दिल्ली हिल रही है जाति उन्मूलन के जयभीम कामरेड की गूंज से।
"तुम्हारी कब्र पर मैं, फ़ातेहा पढ़ने नहीं आया, मुझे मालूम था, तुम मर नहीं सकते। "
हमारे बच्चों का खून बोल रहा है -
शोकगान नहीं अब और, न पीड़ा का बखान है, अब जब सतह से उठे हैं लोग तो हालात बदल के रहेंगे!
पलाश विश्वास
आज हिंदी में लिखने का मन नहीं था। कुछ और तय कर बैठा था लेकिन बदमाश यशवंत के पोस्ट से दिल के तार झनझनाये और फिर मेरे भाई दिलीप मंडल ने जो जेएनयू से शीतल साठे का कार्यक्रम लाइव बयान किया है, रात को लिखने बैठा हूं कि जिगर से खून कतरा कतरा अंगार की तरह दहक रहा है।
हालात इतने संगीन हैं कि हर कहीं हमारे बच्चों का खून का सिलसिला जारी है और हम इतने बेखबर कि हम समझ रहे थे कि सबकुछ ठीक भी है।
इस कयामत के खलाफ कायनात की सेहत की खातिर, इंसानियत की जज्बे की खातिर, हमारे हजारों साल की आजादी की विरासत के खातिर बाकी सांसें उस बदलाव के ख्वाब के लिए हैं, जिन्हें जीते हुए हमारी हजारों पीढ़ियां मर खप गयीं और हम आखिरकार आजादी के नाम, राम के नाम बजरंगी सेना में तब्दील है।
दिल से लिख रहा हूं और बूंद-बूंद लहू में लगी है आग, भूमिगत आग की लपटों से घिरा हूं और चाक चाक है सारी दुनिया।
वर्तनी वगैरह सुधार कर शुध लिखने का वक्त है नहीं यह। जिसे पढ़ना हो, जिसकी नजर से बची नहीं हैं खून की नदियां, वे ठीकठक पढ़ लें। इस जलजले का कोई व्याकरण नहीं है।
जिसके दिल में हकीकत की आग है और ख्वाब हैं यह कयामत का मंजर बदलने का, वर्चस्व की सारी दीवारें तोड़कर वे चीखें दम लगातर और जो आखर जानते हैं कुछ कुछ, कलम से खड़ा कर दें ऐसा जलजला कि ताश के सारे तिलिस्म ढहकर बह निकले हमेशा के लिए। मनुस्मृति राज का खात्मा हो और कारपोरेट माफिया का फासिस्ट राजकाज का तख्ता भी पलट दिया जाये।
निदा फाज़ली हमारे भी शायर है बहुत अजीज।
उन्हें पसंद कुछ जियादा नहीं था कि उनका लिखा यूं ही शेयर कर दिया जाये, इसलिए उनको कोट बहुत कम किया है।
अब रोहित के मौत के सिलसिले में यशवंत के इस पोस्ट से जियादा प्रासगिक कुछ भी नहीं है।
निदा फ़ाज़ली साहब के न रहने पर उनकी वो नज़्म याद आती है जिसे उन्होंने अपने पिता के गुजर जाने पर लिखा था...
"तुम्हारी कब्र पर मैं, फ़ातेहा पढ़ने नहीं आया, मुझे मालूम था, तुम मर नहीं सकते। "
शोकगान नहीं अब और, न पीड़ा का बखान है, अब जब सतह से उठे हैं लोग तो हालात बदलके रहेंगे कि डरो, खूंखार भेड़िये कि मशाले लेकर लोग निकल पड़े हैं।
समझा जाता है कि दिलीप मंडल अस्मिता में कैद हैं।
बेहद कामयाब पत्रकार होने के बावजूद, उस पर यही मुहर लगी है कि इस कमंडल दुस्समय में वह मंडल युद्ध का सिपाहसालार है।
उसका पोस्ट पढ़ लें तो देख भी लें कि अस्मिताएं कैसे किरचों में बिखर रही हैं और कायनात खिल रही है बदलाव की खुशबू से। झूठे कमल वन में जहरीले नागों के सिवाय कुछ भी नहीं है।
शीतल साठे के बारे में हमारे लोगों की सोच बहुत सही नहीं है। मसलन महानायक के संपादक हमारे मित्र सुनील खोपड़ागड़े ने जयभीम कामरेड पर सवालिया निशान लगाये न होते।
भगवा झंडे की पैदल फौज में तब्दील इस देश को सर्वहारा आम जनता के खून से रंगे लाल झंडे से सबसे जियादा परहेज रहा है, जबकि असल सर्वहारा वे ही हैं।
बाबासाहेब ने कहीं साम्यवाद का विरोध किया नहीं है।
सबसे पहले वर्कर्स पार्टी उनने बनायी थी और भारतीय मेहनतकश जनता के लिए सारे हकहकूक उन्हीं के दिये हैं। जिसे खत्म कर दिया फासिस्टों ने और यह हमारा ही पाप है कि आज हमारे बच्चे खुदकशी करने को मजबूर हैं और हम बेशर्मी जी रहे हैं।
बाबासाहेब से बड़ा कम्युनिस्ट कोई दूसरा है ही नहीं।
बाबासाहेब को जमींदारों के वंशजों के नेतृत्व ने इस देश के कम्युनिस्ट आंदोलन से अलग कर दिया लेकिन जाति को तोड़कर फिर बौद्धमय भारत बनाने के लिए, मनुस्मृति राज के खात्मे के लिए बाबासाहेब का जाति उन्मूलन का एजंडा ही भारत का असल कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो है।
कबीर कला मंच का राष्ट्र फिर वहीं सर्वहारा है जो जातिव्यवस्था में कैद मनुस्मृति राज के शिकंजे में हैं।
अब बिजनेस फ्रेंडली सरकार ने सारे गैर कानूनी, सारे राष्ट्रद्रोही, सारे गैर संवैधानिक, सारे अमानवीय अपराध कर्म को जायज ठहराने के लिए मुक्तबाजारी आर्थिक सुधारों के तहम हमें न सिर्फ हमारे हकहकूक से , जल जगल, जमीन से बेदखल कर दिया है।
पूरे देश को आम जनता के नरसंहार के लिए देशी विदेशी पूंजी का आखेटस्थल बना दिया है गुलाम वंश के जमींदार शासकों ने।
लाल नील झंडे जबतक एकाकरा नहीं हो जाते, जब तक न कि मेहनतकश आवाम सारी अस्मिताओं के चक्रव्यूह से बाहर निकल नहीं आते, तब तक हिंदुत्व के इस नर्क में हिंदू राष्ट्र हमें न जीने देगा और न मरने देगा।
पूरे देश को परमाणु विनाश के हवाले करके, पूरे हिमालय और सारे समुंदर को, सारे जंगलात और मरुस्थल, रण को भी कारपोरेट हवाले करके भी सुखीलाला बिरंची बाबा की प्यास बुझी नहीं है।
भव्य राममंदिर के नाम हिदू धर्म और भारतीय इतिहास के उलट घृणा और वैदिकी हिंसा, मिथकों के मायाजाल के तहत हमारे सारे संसाधन पूंजी और मुनाफावसूली के हवाले हैं।
निजीकरण मुकम्मल है।
रिजर्वेशन कोटा बेमतलब मंडल कमंडल जुध है और देश कुरुक्षेत्र हैं ताकि भारतीय जनता आपस में मार काट करती रहे और अबाध लूटतंत्र का सिलसिला जारी रहे।
नया बंदोबस्त बहुत भयानक है कि संघी बगुला भगत नये मृग मरीचिका रच रहे हैं कि बैंक से लेन देन के वक्त रुपया निकालते वक्त और रुपया जमा करते वक्त दो फीसद टैक्स के सिवाय कोई टैक्स और नहीं लगेगा। बाकी केसरिया समरसता है।

सीधे इसका मतलब यह है कि पूंजी पर कोई टैक्स अब लगना नहीं है और हम बाजार की मर्जी पर जियेंगे डिजिटल जिंदगी, जहां हर चीज की कीमत अदा करनी होगी।
जिंदा दफनाने का पक्का इंतजाम। यही मेकिंग इन है, सुखीलाला का भारत और मदरइंडिया का शोकगीत।
यह गजब कि समरसता है कि जो टैक्स के दायरे से बाहर फटेहाल हैं, उनको लेन देन पर टैक्स के बहाने उसकी सारी कमाई की खुली लूट है और अंबानी अडानी टाटा बिड़ला तो खैर अपने हैं, विदेशी पूंजी को सारे टैक्स माफ है और लेन धन वे बैंक के मार्फत करते नहीं है कि दो फीसद टैक्स भी अब उन्हें देना नहीं है।
यही विकास है।
मदर इंडिया की तो आदत है अपनी संतान की बलि देने की ताकि सुखी लाला की सूदखोरी चल सके। वही बलि का सिलसिला जारी है। जिसका शिकार रोहित मोहित, चेन्नई की तीन लड़कियां और न जाने कितने हैं। वध का न्याय हम मांग रहे हैं और हालात बदलने के सारे ख्वाब मर चुके हैं।
मनुस्मृति का अश्वमेध तो गौतम बुद्ध के पंचशील से लैस बौद्धमय भारत के अवासान के बाद कभी थमा नहीं है।
फिर भी भारत की आंतरिक सहिष्णुता और बहुलता के बावजूद सांस्कृतिक अखंडता के कारण मनुस्मृति के बावजूद हिंदू धर्म उदार हुआ है और बाबासाहेब की वजह से बहुजनों का स्वाभिमान भी जागा है और हर क्षेत्र में उनकी नुमइंदगी भी होने लगी है।
बाबासाहेब के मिशन की वजह से जो कुछ सिर्फ बहुजनों को नहीं हर भारतीय स्त्री पुरुष और मेहनतकशों को मिला है, उसके लिए यह राजसूय यज्ञ जारी है ग्लोबल हिंदू राष्ट्र का जो भारतीय राष्ट्र हो ही नहीं सकता।
यह हमारे इतिहास, विरासत और हमारी संस्कृति के साथ बलात्कार है तो प्रकृति के नियमों के खिलाफ भी है।
यह अधर्म कि हिंदुत्व के नाम पर धर्मनाश का राजसूय है और शिक्षा की दुकानों में मनुस्मृति राजकाज में हमारे ही बच्चे चुन चुनकर बलि चढ़ाये जा रहे हैं।
हजारों सालों से हमारे पुरखे जो आजादी की जंग लड़ रहे थे।
उस विरासत से अलहदा हमने अपनी गुलामी चुन ली है और जंजीरों से हमें बेहद मुहब्बत हो गयी है।
कबीर कला मंच के कलाकार उन्हीं जंजीरों को तोड़ने का आह्वान करते हैं।
शीतल साठे को नक्सली बताकर, मंच के कलाकारों को राष्ट्रद्रोही बताकर जयभीम कामरेड की गूंज से जात पात मजहब के दायरे तोड़कर सर्वहारा मेहनतकश अछूत बहुजन आवाम की लामबंदी रोकने की साजिशें कर रहा था फर्जी राष्ट्र और राष्ट्रवाद दोनों।
रोहित वेमुला ने शीतल साठे और कबीर कला मंच के कलाकारों को आजाद कर दिया है। हिंदुस्तान की सरमीं के चप्पे चप्पे पर लाल नील झंडे एक साथ लहरा रहै हैं और नगाड़े खूब बज रहे हैं। दिल्ली हिल रही है जाति उन्मूलन के जयभीम कामरेड की गूंज से।