डा. अम्बेडकर का संघीकरण!
डा. अम्बेडकर का संघीकरण!
मुकेश कुमार
आज भारत की संसदीय राजनीति में जाति व धर्म आधारित पहचान की राजनीति का बोलबाला सिर चढकर बोल रहा है!
दुनिया के सबसे बड़े कहे जाने वाले लोकतंत्र में जब अधिकांश जनता धनबल व बाहुबली लठैतों द्वारा हांके जा रहे राजनीतिक रथ के लिए वोट करने जाती है तो हम लगभग विवेकहीनता या बुद्धिहीनता का परिचय देते हुए अपनी जाति व धर्म का एलान कर रहे होते हैं।
2011 की जनगणना के सरकारी आंकड़े कहते हैं कि आज देश भर में दलितों की संख्यां कुल जनसंख्या का एक चौथाई हो गई है। विषुद्ध राजनीतिक और केवल राजनीतिक नजरिये से वोट बैंक के रूप में इनकी भूमिका निर्णायक हो जाती है। जो कभी काग्रेंस के पक्ष में थी तो वो विजयी हुआ करती थी फिर इन्होंने यूपी में मायावती के हाथी व हाथ तीन बार खूब मजबूत किए और दिल्ली में तो लोग बदहवास हो झाड़ू पर टूट मरे थे? लेकिन आजकल लगता है कि इन्होनें संघ में बेशर्त पूर्ण घर वापिसी सी कर ली है?
संघ परिवार इस बात को अच्छी तरह समझ गया है कि दलितों की खेमेबन्दी किए बिना वह ना तो सत्ता का उपभोग कर पाऐगा और ना ही हिन्दू राश्ट्र का निर्माण कर सकेगा। तमाम प्रयोगों, शोधों, अनुभवों से शाखाचारी यह भलिभांति समझ गए हैं कि डा. अम्बेडकर दलितों के अराध्य देव हैं और दलितों को अपने साथ लाने के लिए यह आवश्यक है कि या तो मूर्तिभंजक की तरह बाबा साहब की छवि को एक व्यक्ति व विचारक के रूप में खंडित/ध्वस्त करके दलितों को उनसे विमुख कर अपने पाल़े मे लाया जाए अथवा डा. अम्बेडकर को अपनाकर-नायक बनाकर स्वयं को महानप्रशंसक घोषित कर दलितों के दिलो-दिमाग को मनोवैज्ञानिक व भावनात्मक तरिके से अपने वश में किया जाए।
1990 के दशक में संघ ने पहली नीति पर जोरों से अमल किया और डा. अम्बेडकर की छवि को खंडित करने का कार्य महान खोजी पत्रकार अरुण शौरी ने अपने कन्धों पर लिया।
संघ परिवार व अरुण शौरी के रिश्ते खुल्लम-खुल्ला सब जानते हैं, जिनको वाजपेयी सरकार ने इनके काम से खुश होकर केन्द्रिय मंत्रीपद से भी नवाजा था! इन्होंने डा. अम्बेडकर पर अपना विस्तृत गहन शोध ग्रन्थ लिखा जिसमें इन्होनें बाबा साहब अम्बेडकर को अग्रेंजो का एजेन्ट व राष्ट्रद्रोही प्रमाणित करने के तमाम तथ्य व तर्कों को गढा था!
अरुण शौरी भगवा रंग में इतने गहरे तक डूब चुके थे कि इन्होंने संविधान निर्माण तक में बाबा साहब डा. अम्बेडकर की भूमिका को पूरी तरह नकार दिया था? परिणाम स्वरूप ठीक इसी समय महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में हिन्दुत्व के ठेकेदारों ने डा. अम्बेडकर की मूर्तियों को बड़े स्तर पर तहस-नहस किया। लेकिन दुर्भाग्यवश शौरी साहब की पूर्ण मेहनत जाया चली गई और ये अपने उद्देश्यपूर्ति में पूर्णतः फेल साबित हुए और अम्बेडकरवाद हिन्दुत्व पर भारी पड़ गया!
दलितों ने दिखा दिया कि डा. अम्बेडकर को नकार कर दलित वोट बैंक पर कब्जा नहीं किया जा सकता?
दो दशकों तक चली जब संघ की पहली रणनीति सिरे नहीं चढ पाई तो इन्होंनें दूसरी रणनीतिक योजनानुसार डा. अम्बेडकर को स्वीकार करने की राह पर चलना शुरू किया! जिसकी निरन्तरता हम 2014 के बाद से अनवरत देख रहे हैं।
14 अप्रैल 2015 को संघ-भाजपा सरकार, संगठन व पार्टी ने देश-भर में जयंतिया मनाकर, पांचजन्य व ओर्गेनाइजर के डा. अम्बेडकर विषेशांक निकालकर अपनी मंशा जगजाहिर कर दी थी।
कानपुर की एक सार्वजनिक सभा में तो संघ प्रमुख भागवत जी ने कहा कि डा. अम्बेडकर हिन्दूवादी विचारधारा के थे।
संघी साहित्य जी तोड़ प्रचार कर रहा है कि बाबा साहब मुस्लिम विरोधी थे और इन्होंने पाकिस्तान का भी विरोध किया था।
संघ प्रमुख गोपाल जी ने बीएचयू में दिए अपने भाषण में यह स्थापित किया कि डा. अम्बेडकर की वैदिक धर्म में गहरी आस्था थी, और उनका उद्देश्य मात्र हिन्दू समाज को सुधारना था! वे घर वापिसी के भी समर्थक थे!
इनका कहना है कि डा. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म इसलिए अपनाया क्योंकि यह एक भारतीय धर्म था! आज तमाम संघी विचारक, बुद्धिजीवी नित नूतन ज्ञान प्रत्यारोपित कर रहे हैं।
जब भागवत जी ने राम मंदिर का राग अलापना शुरू किया तो बाबा साहब के बारे में यह हवा उड़ा दी गई कि उनकी राम में आस्था थी, इसलिए मंदिर निर्माण में दलितों को बढ़-चढ़कर कुर्बानी देनी चाहिए।
संघी शोधों में जो नित नया-नया ज्ञान बघारा जा रहा है डा. अम्बेडकर के बारे में कोई भी तर्कशील, वास्तविक सोच वाला इंसान इनके निष्कर्शों को बेबुनियादी व तथ्यहीन बातें ही कहेगा! पर दुर्भाग्य ये वास्तव में ऐसा नहीं है। संघ ने दलितों का व इनके ज्ञान का भी अनुकूलन कर लिया है! जिससे दलित वर्ग का चेतनशील, जागरूक, सुशिक्षित बड़ा हिस्सा अपने स्वार्थो के चलते केसरिया रंग मे रंग चुका है!
चहूंओर के वातावरण को देखकर लगता है कि आज मानो डा. अम्बेडकर के धर्म व जाति की आलोचना वाले विचार अर्थहीन से हो गए हैं। संघी विकास-विचार का रथ आज तमाम विरोधी सोच विचारों को बेदर्दी से लीलता हुआ आगे बढ़ा जा रहा है!
ये स्पष्ट होता जा रहा है कि आने वाली पीढियां डा. अम्बेडकर के बारे मे वही जानेंगी जो संघ-भाजपा जनवाना चाहेगा!
अगर आप पिछले 4-5 साल से डा. अम्बेडकर के जन्मदिवस पर 14 अप्रैल को पार्लियामैंट स्ट्रीट पर होने वाले आयोजनों की वैचारिक तासीर को जरा गहराई से देखें समझें तो आप यहां भी बाबा साहब के संघीकरण की प्रक्रिया को भाप जाएंग।
कहा जाता है कि देश भर में यह एक ऐसी जगह है जहां एनसीआर व दिल्ली के लाखों लोग डा. अम्बेडकर के प्रति अपनी भावना व श्रद्धा लेकर यहां मेले रूपी उत्सव में शिरकत करते हैं। जहां एक तरफ यह दिवस व स्थल डा. अम्बेडकर के विचारों को सेमिनार, गोष्ठियों व विमर्शो के रूप में जानने-समझने का मौका देता था वहीं दूसरी तरफ पुस्तकों, फिल्मों आदि के रूप में उनके साहित्य से लोगों को जोड़ता था। और हर तरह के सोच-विचार रखने वाले संगठनों, संस्थाओं व राजनीतिक दलों को एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति की जगह भी उपलब्ध कराता था। लेकिन पिछले 2-3 सालों से सत्तापक्ष वालों ने इस उत्सव की प्रकृति पर ही मानो कब्ज़ा कर लिया हो!
निरन्तर यहां सत्तापक्ष से इतर सोच रखने वालों को ना केवल दूर किया जा रहा है बल्कि इस उत्सव के वैचारिक-गुणात्मक पहलुओं पर भी योजनाबद्ध हमला किया जा रहा है।
मात्र सत्तापक्ष से जुड़े संगठनों, दलों, यूनियनों को बड़े-बड़े पंडाल दे दिए जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर डा. अम्बेडकर का साहित्य बेचने वालों को निरंतर निराश किया जा रहा है!
सत्तापक्ष के बड़े-बड़े पंडालो-तम्बुओं में मात्र लंगर चल रहे थे या फिर थोक में हल्वा, पूरी, लड्डु आदि प्रसाद बांटा जा रहा था।
अबकी बार के कार्यक्रम की तासीर देखकर ऐसा लग रहा था मानों यहां लोग घन्टों लाइनों में लगकर संसद परिसर में स्थापित बाबा साहब की प्रतिमा तथा तम्बुओं के अन्दर रखी डा. अम्बेडकर की प्रतिमा पर फूल चढाने व लंगर व प्रसादा चखने मात्र के लिए सपरिवार आ रहे हैं।
माफ करना मित्रों पर यहां उंची-उंची आवाज में बजने वाले भोंपूओं व ढोल नगाड़ो का कानफोड़ु शोर के अलावा कोई सार्थक व अर्थपूर्ण महत्व कम ही लग रहा था। यहां केवल फ्री मे खाना बांटा जा रहा था मानो भूखे-नंगे लोग यहां केवल पेट भरने ही आ रहे हैं, पूजा-अर्चना भी जोरों पर चल रही थी। बुरा ना मानो तो दोस्तों यहां कावडियों जैसा सा माहौल था! किताबों की बजाय मूर्तियां अधिक बेची जा रही थीं ताकि लोग घरों में इनको शेरोवाली माता, शिवजी, राम, हनुमान के बगल में सजा सकें!
ये भी गजब की समरसता है जो अक्सर दलित घरों में देखी जा सकती है!
खैर यह विमर्ष का एक और अलग पहलू है जिस पर फिर कभी चर्चा कर सकते हैं! वैसे भी आजकल राजनीति वैचारिक विमर्षो, वैचारिक सिद्धांतों व जीवन के सैद्धांतिक व्यावहारिक पहलुओं का लगभग मटिया-मेट कर चुकी है?
वर्तमान राजनीति माहौल में विचारधारा, सिद्धांत, व्यवहारिकता, मानवता जैसे शब्दों व इनके अर्थों के कोई मायने नहीं रह गए हैं।
राजनेताओं की विचारधारा दिन भर में कई बार बदलती उलटती-पलटती देखी जा सकती है।
3-4 साल पहले तक यहां सभी दलों के नेता आते थे और अपने-अपने तम्बुओं में डा. अमबेडकर के विचारों-संघर्षों पर गहन चर्चाएं करते थे, रोड़ पर खड़े-खड़े लोग इन चर्चाओं मे खुद को शामिल कर लिया करते थे। हैल्दी विचार-विमर्ष होता था, दलित-अम्बेडकरी साहित्य, प्रगतिशील साहित्य खरीदा बेचा जाता था। दलित साहित्य व संदर्भों से जुड़ी पत्र-पत्रिकाओं के विमोचन कार्यक्रम भी होते थे। लेखक, विचारक, नेता, कार्यकर्ता सब एक ही जगह होते थे! पर इस बार के कार्यक्रम में ऐसा कुछ कहीं दिखाई नही दिया।
मीडिया को तो मानों आकाओं की सख्त हिदायत थी कि वहां जाकर झांकना तक नहीं है। और मीडिया ने पूर्णरूप से अपना धर्म निभाया भी!
एक भी चैनल ने एक सैंकड की खबर तक नहीं दी। संभवतः सत्तापक्ष वाली विचारधारा के लोग नहीं चाहते कि डा. अम्बेडकर की विचारधारा को असल में लोग जाने-समझें? अगर लोग बाबा साहब के विचारों, अपने साथ हो रहे शोषण, भेदभाव, अन्याय को पहचान गए तो इनकी पोल खुल जाएगी?
लगता है संघी सोच यह है कि इस दिन को मात्र पूजा अराधना के दिन तक सीमित कर दिया जाए, और लोग डा. अम्बेडकर को लोग एक इंसान की बजाय एक भगवान की तरह पूजना शुरू कर दें, क्योंकि रैदास, कबीर और बाल्मीकि को तो जातियों में बांटकर लगभग इनका अनुकूलन किया जा चुका है! जगह-जगह इनके मंदिर बन चुके हैं जहां इनको शांति से बैठाया जा चुका है! यहां हो सकता है आने वाले दिनों में कोई अम्बेडकर मंदिर बन जाएं और दलितों व डा. अम्बेडकर के अनुयायियों को केवल मात्र दर्शन करने व लंगर छकने या प्रसादा लेने तक की ही इजाजत मिले? जबकि मित्रों डा. अम्बेडकर खुद नायक पूजा के खिलाफ थे और इन्होनें लिखा है कि नायक पूजा से समाज और लोकतंत्र नष्ट हो जाता है। पर सावधान! वर्तमान सरकार इनको नायक बनाने पर तुली हुई है!
आप सब जानते हैं कि गांधी, शहीद भगत सिंह, डा. अम्बेडकर के विचारों का भगवाकरण जोरो पर है? आप भी अपनी सोच का परीक्षण कर लें यदि उसमे हिन्दू राष्ट्र व देशभक्ति जैसी खुशबू आ रही है तो ठीक है, नहीं तो...................!
आप समझ गए ना जब संघाचारियों के अनुसार अम्बेडकर देशद्रोही व हिन्दूवादी हो सकते हैं, तो गोडसे देशभक्त भी तो हो सकते हैं?
आप भी बाबा साहब की पूजा अराधना शुरू कर दें, नही तो लाजिमी तौर पर आप देशद्रोही कहलाएंगे? आठों पहर, चौबीसों घन्टे विकास निरन्तर जारी है तन-मन-धन से आप सभी लगे रहें। मोदी जी व योगी जी भलाई में ही जग की भलाई निहित है।
Mukesh Kumar Asst. Prof. Dept. Of Commerce PGDAV College


