डियर मोदी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से गुजरात में बाज़ी मात करने का अब मौका नहीं बचा
डियर मोदी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से गुजरात में बाज़ी मात करने का अब मौका नहीं बचा
आज के ‘आनंदबाजार पत्रिका’ (बांग्ला) में एक रिपोर्ट है -‘प्रश्नों को रोकने का एकमात्र उपाय है ध्रुवीकरण’।
इस रिपोर्ट की शुरूआत इस प्रकार की गई है - “नोटबंदी, जीएसटी, बेरोज़गारी, असंतोष, जय शाह , राफ़ेल, राहुल गांधी, हार्दिक पटेल... गुजरात वोट के पहले ऐसे एक हज़ार काँटों को एक झटके में साफ करने के लिये भाजपा ने अपने पुराने नुस्ख़े पर काम शुरू कर दिया है।
“ध्रुवीकरण।”
रिपोर्ट में आगे गुजरात में भाजपा के द्वारा ‘हिंदू-मुस्लिम करने’ की गोटियाँ सजाने की चालों की चर्चा है। 5 दिसंबर से सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर के मामले में जो लगातार सुनवाई होने की है, उस मौक़े पर भी मोदी-शाह-रूपाणी ने जरूर कोई योजना बनाई है, इसका भी जिक्र है। ‘पद्मावती विवाद’ और श्री श्री रविशंकर की गतिविधियों से इन सबकी ही ज़मीन तैयार की जा रही है, ऐसा भी संकेत दिया गया है।
इस रिपोर्ट को देख कर हम सोच रहे थे कि गुजरात चुनाव में अब सिर्फ 22 दिन बचे हुए हैं। इन थोड़े से दिनों में ही मोदी को तक़रीबन तीस सभाएँ और रोड शो आदि करने हैं। राहुल गांधी की भी न जाने अभी और कितनी सभाएँ और रोड शो होंगे। इनके अलावा इस बार के चुनाव के तीन और नये नायक हैं - अल्पेश ठाकुर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी। इनकी भी ढेर सारी सभाएँ होंगी और सबमें भीड़ भी उमड़ेगी।
अर्थात, आने वाले बीस दिनों में गुजरात की जनता में एक भारी राजनीतिक आलोड़न के दृश्य देखने को मिलेंगे, राज्य में हर दिन लाखों लोग किसी न किसी की सभा, प्रदर्शन के लिये सड़कों पर उतरे हुए दिखाई देंगे।
एक ऐसे गर्म राजनीतिक माहौल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ! सचमुच हम इसके किसी यथार्थ रूप की अभी कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। या तो राजनीतिक प्रक्रिया चलेगी या सांप्रदायिक दंगें। अभी के गुजरात में दोनों का साथ-साथ चलना अनेक कारणों से हमें मुश्किल दिखाई पड़ता है।
यह 2014 के चुनाव का वक्त नहीं है। उस समय मोदी की एकतरफ़ा चल रही थी, लोगों में अन्य दलों की बातों को सुनने की उतनी तैयारी नहीं थी। इसीलिये मोदी विभिन्न उपायों से अंदर ही अंदर एक प्रकार के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को भी हवा देने में सफल हुए थे।
लेकिन आज के गुजरात में अगर कांग्रेस के पलड़े को हम भारी न भी माने, तब भी इसमें कोई शक नहीं है कि दोनों पक्षों के बीच काँटे की टक्कर है। इसमें अंदर ही अंदर कोई कुछ नहीं कर पायेगा। अभी के तेज़ राजनीतिक अभियानों के बीच ऐसी हर षड़यंत्रकारी कोशिश को सतह पर आते देर नहीं लगेगी। ऐसे में भाजपा यदि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ज़िद पर अड़ जाती है तो उसे राजनीतिक प्रचार को पूरी तरह से स्थगित करके जनतांत्रिक प्रक्रिया को ताक पर रखते हुए सीधे तौर पर उपद्रव कराने के रास्ते को चुनना पड़ेगा; शुद्ध फ़ासिस्ट रास्ते का नग्न रूप से चयन करना होगा।
सवाल उठता है कि अभी के हालात में अब क्या ऐसे किसी रास्ते को चुन कर गुजरात के चुनाव में अपने पक्ष को मज़बूत करने की मोदी-शाह के पास कोई संभावना बची रह गई है ? यह रास्ता उनके लिये हमेशा के तौर पर एक भारी आत्मघाती कदम साबित होगा। इसीलिये मोदी-शाह के सामने अभी दो रास्ते ही बच गये है - या तो जनतंत्र की नक़ाब को पूरी तरह से छोड़ कर खुला खेल फर्रूखावादी वाला रास्ता अपना ले या राजनीति की जनतांत्रिक प्रक्रिया को वरीयता देते हुए तेज़ राजनीतिक प्रचार में अपने को झोंक दें।
गुजरात में मोदी-शाह की हरकतों पर अभी सारी दुनिया की नज़र टिकी हुई है। ऐसे में हर लिहाज से उनके लिये श्रेयस्कर यही है कि वे चुनावों में हार-जीत को एक सामान्य सच मानते हुए अपने को गुजरात में पराजित होने के लिये तैयार कर लें। तभी जीत या हार, दोनों ही स्थिति में इनकी इज़्ज़त कुछ हद तक बनी रहेगी। अन्यथा कोई भी हठवादी रास्ता किसी के लिये भी फलीभूत नहीं होता है। गुजरात में इस मौक़े पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आग से खेलना आरएसएस की पूरी राजनीति के लिये दूरगामी नुक़सान का रास्ता साबित होगा।
इसीलिये, अब बचे हुए बीस दिनों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये बाज़ी मात करने का रास्ता हमें तो बंद हो चुका दिखाई देता है।


