डॉ अंबेडकर- एक चिंतन : पुस्तक समीक्षा

मधु लिमए द्वारा अंबेडकर पर लिखी गयी किताब 'डॉ अंबेडकर- एक चिंतन' अंबेडकर पर लिखी गयी अन्य किताबों से अलग महत्व रखती है। क्योंकि मधु लिमए ख़ुद एक प्रतिबद्ध राजनेता रहे हैं और अंबेडकर के मूल्यों को शासन-प्रशासन के ज़रिये अमल में आते और खत्म होते उन्होंने देखा है।

क़रीब 35 वर्षों बाद प्रसिद्ध समाजवादी नेता, विचारक और चार बार के सांसद मधु लिमये की इस किताब का दोबारा प्रकाशन एक महत्वपूर्ण काम है जिसे मीडिया स्टडीज़ ग्रुप ने किया है। इसका अनुवाद प्रसिद्ध समाजवादी विचारक मस्त राम कपूर ने किया था। 40 की उम्र के आसपास के लोगों ने अखबारों में उनके लेख पढ़े और देखे होंगे।

यह पुस्तक अंबेडकर की नज़र से गाँधी को जिस तरह परखने की कोशिश करती है वैसा शायद ही कहीं देखने को मिला हो।

मसलन, अम्बेडकर का मानना था कि गाँधी के कांग्रेस पर छा जाने से पहले कांग्रेस में दो गुटों का वर्चस्व था। एक रानाडे का, जिसमें बौद्धिक लोगों की भरमार थी और जिसमें सिर्फ़ शिक्षित होना ही नहीं विद्वान होना नेतृत्व मण्डल का हिस्सा बनने के लिए ज़रूरी पात्रता थी। दूसरा हिंसक और अतिवादी तरीकों के हिमायती लोगों का गरम दल था जिसमें मातृभूमि के लिए जान देने का जज़्बा नेतृत्व में शामिल होने की शर्त थी। अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि गाँधी के आने के बाद विचारहीन और कम साहसी लोग मुख्य धारा में जगह पा गए। उनका कहना था कि सिविल नाफरमानी के लिए विद्वता और जान देने की हिम्मत की ज़रूरत नहीं पड़ती (पेज 59)।

रानाडे युग में जो राजनेता अध्येता नहीं होता था उसे खतरनाक न सही एक अवांछित समस्या तो माना है जाता था। गाँधी के युग में ज्ञानार्जन को तिरस्कार की नज़र से न भी देखा जाता हो, लेकिन उसे राजनेता के लिए आवश्यक योग्यता तो नहीं ही माना जाता है। गाँधी युग भारत का अंधकार युग है। (पेज 62)

हालांकि मधु लिमए की दृष्टि में अंबेडकर द्वारा गाँधी पर किया गया यह तंज एक तरह से उनकी प्रशंसा थी। क्योंकि यह शिष्ट वर्गों की राजनीति को जन साधारण की राजनीति में बदलने का सर्वोत्तम तरीका था। (पेज 59)

अगर गाँधी न आए होते तो क्या होता?

यह एक दिलचस्प सवाल हो सकता है कि अगर गाँधी न आए होते और कांग्रेस विशिष्ट कुलीन वकीलों और आदर्शवादी विचारकों का संगठन ही बना रहता तो हमारा इतिहास कैसा होता?

जाति उन्मूलन के रास्ते में आने वाली बाधाओं पर अंबेडकर ने जो तब कहा वो आज ज़्यादा स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। जातियों के श्रेणिक्रम सम्मान और अपमान के कारण जाति के उन्मूलन में हिंदुओं में आम सहयोग प्राप्त करना नितांत कठिन है। (पेज 35)

पुस्तक का सबसे अहम अध्याय अंबेडकर की सशक्त केंद्रीय व्यवस्था की वकालत है जो गाँधी के विकेंद्रिकरण के ठीक विपरीत थी। यहाँ हमें याद रखना चाहिए कि दक्षिणपंथी तत्वों ने संविधान सभा में गाँधी के ग्राम स्वराज के विचारों को चालाकी से सवर्ण अधिपत्य को बनाए रखने के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन अंबेडकर ने उसे नकार दिया था। क्रिष्टोफ जफेर्लो ने अंबेडकर की जीवनी में इस पर विस्तार से रोशनी डाली है।

अंबेडकर ग्राम पंचायत संस्था की पूरी कल्पना की ही आलोचना करते थे। वो कहते थे कि जो लोग प्रांतवाद और संप्रदायवाद के विरोधी हैं वो आखिर गांवों के समर्थक कैसे हो सकते हैं? गांव क्या है- संकुचितता की गंदी नालियां, अज्ञान, क्षुद्रता और जातीय दंभ की अंधेरी गुफाएं। मुझे प्रसन्नता है कि संविधान के प्रारूप में गांव को छोड़कर व्यक्ति को इकाई के रूप में स्वीकार किया गया है। (पेज 89)

भाषा आधारित प्रांतों के गठन पर यह किताब विशेष रोशनी डालती है। वो मानते थे कि स्वाधीन राज्य और स्वाधीन राष्ट्र के बीच विभाजक रेखा बहुत पतली है। उनका सुझाव था कि नए राज्यों के गठन के बाद हिन्दी को सभी पुनर्गठित राज्यों की भाषा के रूप में अपनाया जाए और जब तक हिंदी इसके लिए सक्षम न बन जाए तब तक इस भूमिका में अंग्रेज़ी को जारी रखा जाए। ऐसा नहीं होने पर राष्ट्र की एकता भाषाई राज्यों के कारण जल्द ही खतरे में पड़ जाएगी। (पेज 92)

अंबेडकर उत्तर दक्षिण के भाषाई संघर्ष और तनाव को देखते हुए हैदराबाद- सिकंदराबाद के क्षेत्र को देश की दूसरी राजधानी बनाने का सुझाव देते थे। (पेज 95)।

राहुल गाँधी जी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो पदयात्रा के दौरान कई जगह लोग मिले थे जो राजधानी तो नहीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच दक्षिण खासतौर से हैदराबाद में बनाने की मांग कर रहे हैं। दक्षिण और उत्तर के बीच समन्वय के लिए यह एक कारगर तरीका हो सकता है।

अंबेडकर का मत था कि न्याय और औचित्य की कल्पना हिंदू समाज की प्रधान कल्पना नहीं है। इसलिए निचले स्तर पर ज़्यादा अधिकार देने का अर्थ होगा सवर्ण हिंदुओं को अनुसूचित जातियों पर ज़ुल्म ढाने का मौका देना। इसलिए केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही कमज़ोर जातियाँ सहानुभूतिपूर्ण रवैय्ये की उम्मीद कर सकती है, यह हमारे राष्ट्रीय जीवन का सत्य है कि कमज़ोर तबकों की समस्याएं जितनी लोकसभा और राज्य सभा में उठायी जाती हैं उतनी राज्यों की विधान सभाओं, परिषदों या स्थानीय निकायों में नहीं उठायी जातीं। (पेज 80)

गौर करिये, ये बात 35 साल पहले प्रकाशित किताब में कही गयी थी और आज भी यही सच है।

अंबेडकर मानते थे कि सिर्फ़ क़ानून बना देने से काम नहीं चलेगा उसे लागू करने का दबाव नहीं होगा तो अनुसूचित वर्गों के लिए क़ानून का मतलब नहीं रह जाएगा।

अस्पृश्यता संबंधी अपराध के विधेयक पर बोलते हुए डॉ अम्बेडकर ने सवाल उठाया कि इस नए क़ानून को लागू कौन करेगा? उन्होंने सुझाव दिया कि विधेयक में विशेष धारा रखी जाए कि यह क़ानून केंद्रीय सरकार द्वारा लागू किया जाएगा। क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो राज्य दावा करेंगे कि यह समवर्ती सूची का क़ानून है और सामान्यतया उन्हें ही इस क़ानून को लागू करने का अधिकार है।

अम्बेडकर नहीं चाहते थे कि क़ानून राज्यों द्वारा लागू किया जाए क्योंकि राज्य सरकारें और उनके मातहत काम करने वाले अधिकारी स्थानीय सवर्ण हिंदुओं के प्रभाव में रहेंगे और चूंकि प्रशासन की बागडोर पूरी तरह से सवर्णों के हाथ से रहती है अतः वे इस क़ानून का कड़ाई से पालन नहीं कराएंगे। वो मानने थे कि न्याय भावना के अभाव में नैतिकता जातीय और वर्गीय हो जाती है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 35 में कहा गया कि अनुच्छेद 17 के अंतर्गत दंड देने का क़ानून या मूलभूत अधिकार (भाग 3) के अंतर्गत आने वाले अपराधों के दंड निर्धारण का क़ानून संसद द्वारा बनाया जाएगा न कि राज्यों द्वारा। इसलिए भले ही यह विषय समवर्ती सूची में आया लेकिन वास्तव में यह केंद्रीय सूची का विषय है। (पेज 81)

उनका मत था कि हरियाणा में जाटों, गुजरात में पाटीदारों, महाराष्ट्र में मराठों, कर्नाटक में लिंगायत और वक्कालिगा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और रायलसीमा में रेडियों का प्रभुत्व है। ऐसी स्थिति में केंद्र ही दलितों को न्याय दिला सकता है। (पेज 87)

अमरीका में अश्वेत लोग भी नस्लभेद के खिलाफ़ अपनी लड़ाई में वॉशिंगटन यानी सुप्रीम कोर्ट, संसद और राष्ट्रपति की ओर ही देखते थे। (पेज 87)

अम्बेडकर का मत था कि भारत का भावी संवैधानिक ढांचा ब्रिटिश भारत के लोकतंत्र और देशी रियासतों के एकतंत्र का खिचड़ी संघ होगा और इस तरह की सरकार राजनैतिक बहुमत की सरकार नहीं, बल्कि सांप्रदायिक बहुमत की सरकार होगी। उनका कहना था मेरे विचार से मूलभूत अधिकारों की रक्षा और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के प्रश्न अन्य संविधानों की अपेक्षा भारत के संविधान में ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं और मूलभूत अधिकारों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की पूरी गारंटी का दायित्व सबसे अहम हो जाते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि संघीय न्यायालय का अधिकार क्षेत्र इतना बढ़ाया जाए कि वे इससे संबंधित मामलों की सुनवाई कर सकें। उनका मत था कि मूलभूत अधिकारों या अल्पसंख्यकों के आधिकारों का मामला ब्रिटिश भारत में देसी रियासतों में जहां कहीं भी उठे उस पर विचार करने का अधिकार संघीय न्यायालय को ही होना चाहिए। (पेज 83)

यदि हम संविधान का अध्ययन करें तो पाएंगे कि डॉ अम्बेडकर की कुछ आशंकाएं संविधान के कुछ प्रावधानों में प्रतिबिंबित होती हैं। उदाहरण के लिए हमारे संविधान के अनुच्छेद 32 में प्रावधान है कि पीड़ित नागरिक सीधे सुप्रीम कोर्ट के पास जा सकता है। आर्टिकल 32 पर उनका कहना था कि यदि मुझसे पूछा जाए कि संविधन का सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद क्या है जिसके बिना संविधान बेकार होगा तो मैं केवल इस अनुच्छेद का नाम लूंगा। यह संविधान की आत्मा, उसका हृदय है "। (पेज 86)

हाल ही में जब मणिपुर की राज्य प्रायोजित हिंसा के शिकार पीड़ित ईसाई सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 32 के तहत न्याय मांगने गए तो सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका ख़ारिज कर दी। उस वक्त उसके इस कृत्य की काफ़ी आलोचना हुई थी और इसे संविधान के विरुद्ध माना गया था।

सुप्रीम कोर्ट को प्रतिष्ठत और प्राधिकार को बनाए रखने के लिए उसे अधिकार दिया गया है कि वह किसी गवाह की उपस्थिति किसी दस्तावेज की प्रस्तुति के लिए तथा अपनी मानहानि के लिए किसी को दंड देने के लिए कोई भी आदेश जारी कर सकती है। वहीं एक अन्य अनुच्छेद में कहा गया कि सभी प्राधिकारियों का कर्तव्य है कि वे अदालत की इच्छा के प्रवर्तन में उसकी मदद करें। "भारत की सीमा में सभी नागरिक या न्यायिक प्राधिकारी सर्वोच्च न्यायालय की मदद करें।

(पेज 87)

अंबेडकर के इन विचारों की रोशनी में भारतीय लोकतंत्र को हम एक संवैधानिक लोकतंत्र कह सकते हैं।

आज जब संवैधानिक मूल्यों को लगातार हमले हो रहे हों, संस्थाओं पर हिंदुत्ववादी गिरोह के सदस्यों का क़ब्ज़ा हो गया हो, अंबेडकर महज जातीय अस्मिता का प्रतीक बना दिये गए हों, तब यह पुस्तक अपने संवैधानिक लोकतंत्र को बचाने की हमारी प्रतिबद्धता को मजबूत करती है।

शाहनवाज़ आलम

(लेखक उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के माइनॉरिटी सेल के चेयरमैन हैं।)