शौक से घर बनाइये बेदखली के वास्ते या फिर जुगत कीजिये दिलों में रिहाइश के लिए!
यूं हम भी स्पानी लाटोमाटिना जश्न मना रहे हैं कि कहीं भी नहीं है लहू का सुराग और ताराशंकर भी अब बेदखल हैं। क्योंकि खुल्ला बाजार में न घर किसी का है और न जमीन किसी की है। लहू भी रगों से बेदखल है!

थम के तनिक डरियो भी कि गुजरात में फिर आग लगी है!
पलाश विश्वास
बेदखल कुनबों में शरीक हूं जनमजात।
बेदखली के जख्म ही जीता रहा हूं आज तलक।
देशभर के, दुनियाभर के बेदखल कुनबों के मलबे का मालिक हूं, यूं कह लीजिये।
स्पानी लाटोमाटिना जश्न की 70 वीं बरसी पर लाल रंग की सुनामी से घबड़ाइयो ना कि जो बहता हुआ दिख्यो, सो खून ना ह। न मिर्ची।
लाटोमाटिना अब गूगल सर्च का डुडल भी है तो स्पीडो का ऐड भी ससुरा। हमु टमाटरो भयो। सब्जी में डालो, तो जायका बरोबर। बाकी टमाटर की औकात कुछो न ह। जनता जनार्दन वहींच लाटोमाटिना में लहूलुहान दीख्यो। लहू हो तभी न बहे, ना लहू नइखे। नइखे हो।
सुबह सबसे पहले इकोनामिक टाइम्स बांचता हूं कि बदमाशियां कैसे-कैसे हो रहीं हैं फिर दिल दिमाग खोलकर अपना अखबार देखता हूं कि रात को गलती को हुई गइल। उकर वाद वाह वाहा कि आनंदो और एइ समय इत्यादि। सविता बाबू गलतियां निकालने में मास्टर हैं। वैसे भी मास्टरनी ठैरी। फटाक से दागदिहिस, का छापे हो।
हमउ ससुरे कम सियाना नहीं, फिलिम उलिम हो कि किताब उताब, पत्रिका सत्रिका, उन्हीं के मत्थे पिछले तैंतीस साल से पटकता हूं कि कोई काम की चीज निकरे तो बतइयो, वरना कबाड़ी के लिए निकाल लो। नैनीताल में तो पूरा शहर था बताने के लिए कि क्या देखना है कि का ना दिखियो। का पढ़िबो का ना पढ़िबो। खलास हुए वहां से तो ई ससुरी सविता जिंदगी बन गइलन ठहरी हुई झील सी। त अब बताती रहो कि का पढ़ें या न पढ़ें, का देखें, ना देखें।
सवेरे सवेरे ईटी देख लिया तो ठानके बइठलन बानी के आजहुं अंग्रेजी पेलेके चाहि कि ई जो बेअदब रिजर्व बैंक का गवर्नर हुआ करै हो, उका कच कच काटे को जी हुआ।
ससुर उ जो डाउ कैमिकल्स का वकील बाड़न, उकर औकात हम जानै ह। उकर दलील भी बूझौ ह। तू ससुर बाबासाहेब के थान पर बइठके जनता को बुरबक बनावल कि बाजार थोड़ा भौत खिसक जइयो त ना घबड़ाइयो। झोंकें सबकुछ बाजार मा।
एको दिन मा साढ़े सात लाख करोड़ का घाटा बा। एक्सपर्ट कहे रहिस कि बाजार डांवाडोल बा। बीचोंबीच हिचकोला होवेक अंदेशा बा।
माने कि मुनाफावसूली जब वे कर लीन्हैं तो जोर का झटका मारिके बुलवा सारे किनारे आउर बाजार ससुर भालुओं के हवाले।
ला टोमाटिना का जलवा बिखेरे ह कि टमाटर कौमें धड़धड़ पिसे जाई, खून भी ना निकरे।
जनसत्ता उलट लिहिस सविता बाबू तब तलक। बोली, ई मोदिया का तो गुजरात मा बाजा बज गइल। ससुर कमलो ना खिलैके, उ भी गुजरात मा। हमउ कहत बाड़न, छप्पन इंचर छाती बाड़न टाइटैनिक बिररंची बाबा बाड़न, रैली उली तख्ता का पलटिहै, रब बना दिहिस।
फोटो देखिक हुसलि गइल सविता बाबू।
बोली, ई तो बामसेफ बा। वामन मेश्राम ना दिख्यो।
ओबीसी गिनती आउर ओबीसी आरक्षण का मसला बामसेफ उठावल रहि आउर हमउ भाखण पेले रहिस इहां उहां।
सविता बाबू पलत मार दीन्है तो हमउ तनिको झुलसै ह फिन बोल दिहिस के बामसेफ त टूट गइलन बाड़ा। उ वामन भी वामन ह।
हमउ तनिको झुलसै ह फिन बोल दिहिस के सबको निकार कै अकेला बाड़न का रैली उली करब। ई त हारदिक पटेल ह। गुजराती नमा मेल किहिस, मैटर बेदम। हमउ मटिया दियो। बाइस बरस का डोकरा ह। जुलुम बरपा दियो। सांप लोटेके चाहि कमल मा यूं।
चरचा करत करत वाहा कि आनंदो हो गइलन फिन एई समय।
दिल धक से रह गइलन। सोच लिया फटाको कि राजन जा भाड़ो मा।
यह तो हाल हवाल हुआ सवेरे सवेरे।
अमलेंदु को खूब परेशां किये जा रहा हूं।
बांग्लादेश से बंपर फीडबैक है तो नेपाल श्रीलंका भी न बख्शे।
हम चाहते हैं कि हिंदी में रोज रोज ना लिखें।
आज बांग्ला में भी लिखना था।
एई समय की खबर से दिल की धड़कन ही थम सी गयी कि मृत्यु के अरसे बाद खास कोलकाता में टाला टैंके के पास ताराशंकर बंदोपाध्याय का घर भी प्रोमोटर के शिकंजे में। जहां गांजा छानकर रोज लिखते रचते रहे उ ताराशंकर, वह मकान भी बेदखल।
हमने यायावर बाबा नागार्जुन को देखा है, जिनने घर की परवाह न की। अपने बाप को देखा है कि उसपार बेदखल हुए तो घर बसा तो लिया, पर घर बनाया नहीं इसपार।
वे मेरे बाप थे कि तजिंदगी बेघर दौड़ते रहे सरहदों के आर पार और मुल्क को घर बना लिया।
हमने उपेंद्रनाथ अश्क से विष्णु चंद्र शर्मा तक न जाने कितनों को अपने घर में तन्हाई को रोशन करते देखा है।
कर्नलगंज इलाहाबाद में शैलेश मटियानी का घर देखा है।
भैरवजी, अमरकांत और मार्केंडय का घर देखा है।
शेखर जोशी के घर में ईजा का बेटा बनकर रहा हूं।
फिर विष्णु प्रभाकर जी को अपने घर से बेदखल तड़पते हुए भी देखा है। तबसे हम घर बनाने के फिराक में कभी रहे ही नहीं।

जमीन इतनी मंहगी है और सारा का सारा सीमेंट का जंगल प्रोमोटरों बिल्डरों के हवाले है।
घर बना भी लिया तो क्या बेदखली तय है।
घर बनाने का किस्सा अब दरअसल बेदखली के हलफनामे पर दस्तखत का किस्सा है। दादा तो छक्का दागने को कह रहे हैं।
छक्का दागो या चौका, दादा, हम झांसे में आने से रहे। पचासेक लाख अव्वल हम तभी पा सकै हैं जब हुकूमत से दोस्ती हो जाई। उ तो नामुमकिन। इलेक्शन जीत लें तो बिलियन बिलियन का जुगाड़ हो जाये और गिल्ली में घर से लेकर मकबरा तक का चाकचौबंद इंतजाम भी हो जाई। जो हराम है हमारे लिए।
फिर हम चुन चुनकर उन हरामजादों से भी हिसाब बराबर करना है जिनने हमारे पुरखों को घर से बेघर कर दिया और हमारे लोगों को जल जंगल जमीन से बेदखल कर रहे हैं जो।
सो सियासत भी हराम है हमारे खातिर।
लिख उखकर पुरस्कार वजीफा सम्मान के जुगाड़ में फिसड्डी रहे। यूं तो समझो कि पालथी मारकर जम गयो एक्सप्रेस समूह मा कि रोजी रोटी चल रही है। बाकी जुगाड़ जुगत मुश्किल है।
मान लिया कि खुदा न खास्ता छप्पर फाड़कर बारिश भी हो गयी तो नैनीताल वाले भी कम बदमाश नहीं, ससुरे तल्ली डाट से वापस भेजे हैं और फिर हमारे गुरुजी अभी एक्टिव है।
बेचाल दौड़े बदहवास तो ऐसे मारेंगे कि..
वैसे भी हमने तय किया है बचपन से कि दुनिया में आये हैं तो थोड़ी तकलीफ और उठा ली जाये कि दुनिया को दाग दिया जाये। फिर ससुरे मिटाते रहो। हम घर उर के फिराक में रहे नहीं कभी।
सीमेंट की दीवारों का कोई भरोसा भी नहीं है।
भूकंप या भूस्खलन या बाड़ से ना जाने कब ढह जाये।
हम तो आपके दिलों में बसेरा बनाने के फिराक में हैं और कामयाब भी होंगे यकीनन। इसीलिए रोज रोज दस्तक।
तैंतीस साल हो गये शादी के लेकिन सविता बाबू को भरोसा नहीं है हमारी औकात पर। कहती है कि दावा करते हो दुनिया फतह कर लोगे। कब तलक कर लोगे, जरा बताइयो।
बावरी है। हम न मजहबी हैं और न हम सियासती हैं।
कोई खूनी तलवार भी नहीं है हमारे पास कि मुगल पठान, अंग्रेज, पुरतगीज जलदस्युओं की तरह, विदेशी निवेशकों की तरह, पेंटागन और नाटो की तरह, सिकंदर नेपोलियन या कोलंबस वास्कोडिगामा या हिटलर की तरह हम यू दुनिया जीत लें।
हमारा कारोबार दिलों का कारोबार है।
वैसे दुनिया फतह करने में बहुत देर लगती भी नहीं है।
सिर्फ दुनियावालों का यकीन जीतना होता है।
सविता बाबू को मालूम नहीं कि हमउ भोले शिवशंकर नाही। हम फिणवही मोहंजोदोड़ो के शिवा है। इंसानियत के वास्तुकार हैं हम।
नये सिरे से मोहनजोदड़ो हड़प्पा इनका और माया बसाने का काम दिलों में रिहाइश के चाकचौबंद इंतजाम से मुश्किल है।
हार्दिक पटेल को भी मालूम नहीं है कि इस देश में पटेल के सिवाय कितनी हजार जातियां और हैं, मसलन महाराष्ट्र के मराठा, दिल्ली घेरने वाले जाट और राजस्थान के गुर्जर जो उनसे भी झन्नाटेदार हंगामा बरपा सकते हैं।
ऐसा भी देर सवेर होने वाला है।
फिर भी आरक्षण से अब नौकरियां मिलने वाली नहीं हैं।
ग्लोबीकरण, निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेश, विनियंत्रण, विनियमन, विदेशी अबाद पूंजी के खुल्ला बाजार में डिजिटल, रोबोटिक, बायोमेट्रिक देश में अब जम्हूरियत गुमशुदा है और हुकूमत कत्लेआम पर आमादा है। रोजी रोटी का सफाया है।
मान भी लिया कि निजी क्षेत्र में नौकरियां मिलीं भी आरक्षण के तहत तो यह समझना बेहतर है कि मुनाफा हासिल करने के बाद कारपोरेट उत्पादन प्रणाली में कितनी रोटी और कितनी रोजी हासिल हो सकती है जबकि वहां भरती पिछवाड़े से होती है और चंटनी जब तब होती है।
श्रम कानून भी बदल गये सारे के सारे। रोजगार मिल भी गया तो रोजगार बने रहने की गारंटी है ही नहीं।
अब हाल यह है कि संगठित क्षेत्र के बजाय असंगठिक क्षेत्र में रोजगार नब्वे फीसद से ज्यादा है, जहां देश का कोई कायदा कानून लागू नहीं है। वहां कोई रब भी आरक्षण लागू कर नहीं सकता।
जिस तेजी से आरक्षण का दायरा बढ़ता जा रहा है और बाहुबलि जातियां जिस तेजी से आरक्षण युद्ध में शामिल हैं, समझिये कि दलितों का तो काम तमामो हैं।
जो आरक्षण के अलावा न सियासत समझते हैं न मजहब और हिसाब किताब तो उनके बस में नहीं ही है।
आरक्षण के इस बुनियादी वोटबैंक तंत्र को समझना जरूरी है जिससे कमसकम समता और सामाजिक न्याय का मसला हल हो ही नहीं सकता। आरक्षण दरअसल है ही नहीं है।
गिनती के लोग है जिन्हें आरक्षण का लाभ मिलता है।
मसलन आदिवासियों में सबसे लड़ाकू जातियां संथाल, मुंडा, गोंड, राजवंशी, भील, नगा, मिजो वगैरह वगैरह है और आबादी भी उनकी सबसे ज्यादा तो कोई हमें बतायें कि आदिवासियों के आरक्षण में उनका हिस्सा कुल कितना है।
बंगाल में नमोशूद्र आरक्षण से मालामाल है तो उत्तर भारत की जातियां भी गिनी चुनी हैं। आरक्षण बंगाल में हैं और बंगाल के बाहर किसी नमोशूद्र को आरक्षण नहीं है।
संथाल और भील भी सभी जगह आदिवासी नहीं है।
किसी जाति के नाम आरक्षण मिल जाने से समता और सामाजिक न्यायके हकूक सबके हिस्से दाखिल हो जाते नहीं है।
हमारे लिए बहुत फिक्रमंद होने का सबब है कि अमदाबाद में फिर कर्फ्यू है।
आज के सारे अखबारों में खबर छपी है कि जनगणना की।
करीब-करीब सभी अखबारों और मीडिया में लीड खबर यही है कि हिंदू राष्ट्र में हिंदुओं की जनसंख्या घट रही है और मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ रही है।
हिंदुत्व के सिपाहसालर यही साबित करना चाहते थे और उन्हें जनगणना के आंकड़े भी मिल गये हैं और मीडिया ने आग यूं समझो कि पूरे मुल्क में लगा दी है।
अब यूं भी समझ लो कि हिंदू राष्ट्र में विधर्मी गैरहिंदुओं की खैर नहीं है। 2020 और 2030 का एजंडा भी पूरा समझ लो।
अब यह भी समझ लो कि मीडिया का एजंडा दरअसल क्या है।
जो बजरंगी केसरिया दीख रहे हैं खुलेआम, सिर्फ वे ही बजरंगी नहीं है। अब लग रहा है मीडिया में हर कहीं बजरंगी भाईजान है।
उस दिन हमने आनंद तेलतुंबड़े से कहा कि इस बंदर की फौज को वजरंगवली या हनुमान कहना गलत है क्योंकि बजरंगबली बनकर दिल चीरकर दिखाने की औकात किसीकी होती नहीं है।
हर बात के लिए केसरिया रंग को गुनाहगार ठहराना भी गलत है क्योंकि बाकी रंगों में भी केसरिया कम नहीं है।
यूं हम भी स्पानी लाटोमाटिना जश्न मना रहे हैं कि कहीं भी नहीं है लहू का सुराग और ताराशंकर भी अब बेदखल हैं। क्योंकि खुल्ला बाजार में न घर किसी का है और न जमीन किसी की है। लहू भी रगों से बेदखल है।
थम के तनिक डरियो भी कि गुजारत में फिर आग लगी है!
पलाश विश्वास