तानाशाही-फासीवादी ताकतों के खिलाफ जनता के सहजबोध को सहेजने की जरूरत"- जोशी
कपूर वासनिक अध्यक्ष, नासिर अहमद सिकंदर सचिव चुने गए
भिलाई। "इस देश में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संवैधानिक मूल्यों व मानवीय संवेदनाओं की रक्षा की जिम्मेदारी हम सबकी है और इसके लिए तानाशाही-फासीवादी ताकतों के खिलाफ आम जनता के सहजबोध को सहेजने की जरूरत है. 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के नाम पर आज जो विचारधारा राजनैतिक सत्ता से नाभिनालबद्ध है, वह बड़े पैमाने पर कभी लव जेहाद, तो कभी वन्दे मातरम् और कभी गौ-रक्षा और सहिष्णुता के नाम पर आम जनता के इसी 'सहजबोध' को निशाना बना रही है. पानसारे, दाभोलकर और कलबुर्गी जैसे संस्कृतिकर्मियों की हत्याएं इसीलिए की गई कि विवेक की आवाज को कुचला जा सके. इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन पर हुआ हमला भी इसी को साबित करता है कि बुद्धिजीवियों के सामने पहले के किसी भी समय की अपेक्षा आज चुनौतियां कहीं बड़ी और व्यापक हैं."

उक्त उदगार सुप्रसिद्ध कवि और जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव राजेश जोशी ने छत्तीसगढ़ जलेसं के स्थापना सम्मेलन को संबोधित करते हुए व्यक्त किये.
आरएसएस-भाजपा की सांप्रदायिक-फासीवादी विचारधारा पर तीखा हमला करते हुए उन्होंने कहा कि भले ही आज राजनैतिक सत्ता उनके हाथों में हो, लेकिन बौद्धिक सत्ता तो वामपंथी-जनवादियों के पास ही है, क्योंकि 'जन' की उनकी अवधारणा में हमेशा से शोषित-उत्पीड़ित समुदाय और विपन्न श्रमजीवी तबके ही रहे हैं, अडानी-अंबानी नहीं. हमने ही दुनिया की बेहतरी के लिए बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया है. राजनैतिक सत्ता द्वारा आम जनता के अधिकारों पर बड़े पैमाने पर जो हमले किये जा रहे हैं, बौद्धिक सत्ता ने उसको अपने विचार-विमर्श और प्रतिरोध के केंद्र में रखा है, ताकि उसको जन-आंदोलन में बदल सके.
मप्र जलेसं के संरक्षक रामप्रकाश त्रिपाठी की अध्यक्षता में हुए इस सांगठनिक सम्मेलन में दलित आंदोलन से जुड़े साहित्यकार कपूर वासनिक अध्यक्ष तथा प्रसिद्द कवि नासिर अहमद सिकंदर सचिव चुने गये.
अपने अध्यक्षीय संबोधन में त्रिपाठी ने कहा कि वर्ष 2014 के बाद जिस तरह राजनैतिक परिस्थितियां बदली हैं, उसी तरह संस्कृति के क्षेत्र में भी नई चुनौतियां पैदा हुई हैं. अखलाक की हत्या, ऊना में दलित-उत्पीड़न की घटना, सर्जिकल स्ट्राइक की आड़ में अंधराष्ट्रवाद व युद्धोन्माद फैलाने की राजनीति करना, विश्वविद्यालयों और अकादमिक संस्थानों की स्वायत्तता पर हमले, मुस्लिमों और ईसाईयों के खिलाफ जहरीले भाषण, ओड़िशा में एक आदिवासी का पत्नी की लाश को कंधे पर ढोने के लिए मजबूर होना — ये सब घटनाएं इस बात का प्रतीक है कि हमारे समाज में कितनी भयानक विकृतियां आ गई हैं. यह सामाजिक विखंडन खतरनाक है और अधिसंख्यक दलित-आदिवासी-महिलाओं के साथ जारी 'ऐतिहासिक अन्याय' और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार को ही पुष्ट करता है. इसके खिलाफ लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में यकीन करने वाले तमाम लोगों व संगठनों को एकजुट होकर साझी रणनीति बनानी होगी. आम जनता को उस आसन्न खतरे के प्रति जागरूक करना आज सबसे बड़ा लेखकीय दायित्व है, जो भारत की मिली-जुली संस्कृति और साझी विरासत पर हमले कर रही है तथा कट्टरता, उन्माद और अवैज्ञानिकता के बीज बो रही है.
सम्मलेन में 36 सदस्यीय तदर्थ राज्य समिति का भी चुनाव किया गया, जो इस प्रकार है : अध्यक्ष - कपूर वासनिक (बिलासपुर), उपाध्यक्ष - विनोद साव (दुर्ग), के. रविन्द्र (रायपुर), विजय राठौर (जांजगीर-चांपा), सचिव - नासिर अहमद सिकंदर (दुर्ग), संयुक्त सचिव - भास्कर चौधरी (कोरबा), सहसचिव - सतीश सिंह (जांजगीर), अजय चंद्रवंशी (कवर्धा), किशन लाल (रायपुर), कोषाध्यक्ष - राकेश बम्बार्डे, कार्यकारिणी सदस्य - निसार अली, पूर्णचन्द्र रथ, पीयूष तिवारी (रायपुर), मुमताज, निजाम राही, प्रदीप भट्टाचार्य (दुर्ग), विजय सिंह, शरद गौड़, सुरेन्द्र कच्छ (बस्तर), मांझी अनंत, युगल गजेन्द्र, कुमेश्वर (धमतरी), शाकिर अली, सी. के. खांडे, हयात, त्रिजुगी कौशिक, प्रियंका शुक्ल (बिलासपुर), सूरजप्रकाश राठौर, बसंत दुबे, महेश कुमार आमटे (कोरबा), रजत कृष्ण (महासमुंद), नरेन्द्र श्रीवास्तव (जांजगीर), गणेश कछवाहा (रायगढ़), रमेश सिन्हा (सरगुजा), समयलाल दिलेर (कवर्धा) तथा विशेष स्थायी आमंत्रित सदस्य - बसंत त्रिपाठी.
सम्मेलन का समापन मप्र जलेसं के सचिव तथा प्रसिद्ध चित्रकार मनोज कुलकर्णी ने किया.

उन्होंने कहा कि आजादी के बाद ही अंबेडकर ने पूछा था कि हमारी (दलितों की) स्वतंत्रता का क्या होगा?
उन्होंने कहा कि बाजारवाद सबसे पहले भाषा पर आक्रमण करता है और आज बाजार की शक्तियां भारतीय भाषाओँ पर भी सर्वग्रासी संकट खड़ा कर रही है. हिंदी भी इससे अछूती नहीं है. आज अलग-अलग रूपों में साहित्य-संस्कृति-शिक्षा के क्षेत्र में अलग-अलग तरह के हमले हो रहे हैं, लेकिन उनका मकसद एक ही है कि किस तरह श्रम पर पूंजी का प्रभुत्व कायम किया जाए. एक लेखक होने के नाते इन तमाम मुखौटों को हमें पहचानने की जरूरत है. छात्तिसगाथ में जलेसं की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हुए उन्होंने बताया कि यह संगठन वामपंथी विचारधारा से परिचालित तो है, लेकिन किसी राजनैतिक पार्टी का पिछलग्गू नहीं. आज देश में आपातकाल से भी बदतर स्थिति है और इस स्थिति का मुकाबला तानाशाही-फासीवादी ताकतों और विचारधारा के खिलाफ आम जनता में चेतना पैदा करके तथा उसे अपनी ताकत का अहसास कराकर ही हो सकता है.