तुम्हारा डर———-1
फिलिस्तीनी डायरी -2014
विनीत तिवारी
एक स्थिति के बाद लाशों की गिनती के कोई मायने नहीं रह जाते। एक स्थिति के बाद मरने वालों की अलग-अलग पहचान बताने के भी कोई मायने नहीं रह जाते। जब हवा से हिलती पत्तियों से लेकर हर हरकत करने वाली चीज़ -
कुत्ता हो या इंसान,

जानदार हो या बेजान,

भूनी जा रही हो तो

ये बताने के क्या मायने हैं।

कि देखो, ये तो बेकसूर था,

या ये कि ये तो औरत थी,

हामला थी, या देखो,

ये तो बच्चा था, ये बुजुर्ग

और ये, ये तो मुर्दा ही था,

जिसे तुमने मार दिया।

सब कुछ को मार सकने की

ताक़त तुम्हारे पास है,

उस ताक़त पर तुम्हें भरोसा है,

फिर भी तुम डरते हो,

तुम डरते हो क्योंकि

तुम जानते हो,

बारूद से शहर उड़ाये

जा सकते हैं,

बदला जा सकता है

इंसानों को लाशों में

लेकिन तुम हमारी

आज़ादी की ख़्वाहिश और

हमारे वजूद की पहचान

हमारे हौसले को नहीं मार पाते।

तुम डरते हो क्योंकि

तुम जानते हो कि

फिलिस्तीन में

मुर्दा जिस्मों के भीतर भी

हौसले जि़ंदा बने रहते हैं

बेहिस आँखों के भीतर भी

सपने बड़े होते रहते हैं।

तुम डरते हो

और तुम सही डरते हो।
रशेल कोर्री का मुकदमा
वह अमरीका से आई 23 बरस की एक नौजवान लड़की थी जो अमन की एक सिपाही बनकर फिलिस्तीन में आई थी, जिसने सोचा कि वह बख्तरबंद बुलडोजर लेकर फिलिस्तीनियों की बस्तियाँ उजाड़ने वाले इज़राईली फौजियों को बताएगी कि जिन पर तुम बुलडोजर चढ़ाने जा रहे हो, वे हर्गिज़ तुम्हारे दुश्मन नहीं हैं और उनके पास हथियार तो दूर, खाना बनाने के लिए ज़रूरी बर्तन तक नहीं हैं। बर्तन तो दूर, वो आग तक नहीं जिससे खाना पकाया जा सके। उसका नाम रशेल कोर्री था और उसे लगता था कि जब इज़राईली बुलडोजर उस अमरीकी को देखेंगे और उसकी बात सुनेंगे तो वे उसके पीछे दड़बों में कैद फि़लिस्तीनियों को बख़्श देंगे। इज़राईली बुलडोजरों ने रशेल कोर्री को सड़क पर समतल कर दिया।

रशेल कोर्री की हत्या 2003 में गाज़ा में हुई थी। इस हत्या के खि़लाफ़ रशेल के पालकों ने इज़राईल राज्य के खि़लाफ़ 2005 में मुकदमा दायर किया और उन्होंने अपनी बेटी की मौत के लिए इज़राईली राज्य को जि़म्मेदार ठहराते हुए इज़राईल को शर्मिंदा करने के लिए सिर्फ़ एक डॉलर हर्जाने की माँग की। सात साल मुकदमा चलाने के बाद इज़राईली कोर्ट ने रशेल कोर्री की मौत के लिए ख़ुद रशेल कोर्री को ही जि़म्मेदार ठहराया और फौज की मुस्तैद सेवाओें और जाँच पड़ताल के लिए भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस फैसले के खि़लाफ़ अपील की सुनवाई इज़राईली सर्वोच्च न्यायालय में मई 2014 को हो चुकी है और अभी फैसला आया नहीं है।

जब आप ये नारा लगाते हैं कि युद्ध नहीं शांति चाहिए, तो आप किस से क्या माँग या चाह रहे होते हैं? जब रूस की जनता ज़ार के सामने ज़ार की लंबी उम्र की कामना करने के साथ अपनी कुछ परेशानियाँ लेकर गई और उसने निहत्थी जनता पर गोली चलवाई और उस ख़ूनी रविवार को एक हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए। हम जब यह नारा लगाते हैं कि युद्ध नहीं शांति चाहिए, या बम नहीं रोटी चाहिए, तो क्या हम वह उन्हीं से माँग रहे होते हैं जिन्होंने हमें और इस धरती को युद्ध में झोंका और बम देकर रोटी छीनी? अगर ऐसा है तो नारा बदलने की ज़रूरत है क्योंकि ये तो ज़ार की तरह शांति माँगने वालों पर गोली चलवा सकते हैं लेकिन रोटी नहीं दे सकते।

दूसरे विश्वयुद्ध में यहूदियों के साथ जो बर्ताव हिटलर ने किया, उसने बाकी बचे यहूदियों पर क्या असर डाला होगा? अगर वे जर्मनी या जर्मन लोगों के प्रति नफ़रत या बदले की भावना से भरे होते तो भी उसे एक महाभीषण काण्ड की सहज प्रतिक्रिया समझा जा सकता था। आखि़र एक कौम के 60 लाख लोगों को सिर्फ़ एक कौम का होने की वजह से मार दिया जाना कम से कम गु़स्से की वजह तो बनता ही है।

लेकिन हुआ क्या। हुआ यह कि यहूदियों को जर्मनी की त्रासद स्मृतियों से दूर रखने, भूलने और अपनी जि़ंदगी फिर से बनाने के लिए 1947 में जो ज़मीन सौंपी गई, वह थी फ़िलिस्तीन की ज़मीन। ज़मीन वहाँ रहने वाले फिलिस्तीनियों की और सौंपने वाला कौन-इंग्लैण्ड। क्योंकि भारत की तरह फिलिस्तीन भी इंग्लैण्ड के तमाम उपनिवेशों में से एक उपनिवेश ही था जिसके सौदे का हक़ अंग्रेजों ने अपने पास रखा था। लेकिन इंग्लैण्ड को भला यहूदियों को ज़मीन दिलाने की क्या ज़रूरत पड़ी? अंग्रेजों की दिलचस्पी पश्चिम एशिया में मौजूद स्वेज नहर में थी जिस पर 1948 में तो उनका ज़ोर नहीं चला और बाद में मिस्र के प्रगतिशील नेता ग़माल अब्दुल नासेर ने इस महत्तवपूर्ण नहर का राष्ट्रीयकरण भी कर दिया। बाद में इंग्लैण्ड ने इज़राईल को ही इस्तेमाल करके मिस्र पर भी काबू किया और स्वेज का व्यापार अपने फायदे के लिए खोला।

यह शर्मनाक है कि कोई मूर्ख भी हिंदुस्तान में यह हिम्मत करे कि वह फि़लिस्तीनी लोगों पर इज़राईल सरकार द्वारा ढाये जा रहे कहर को सही माने और फिलिस्तीन के खि़लाफ़ व इज़राईल के पक्ष में सार्वजनिक प्रदर्शन करे। हमारे देश में फि़लिस्तीन और यासिर अराफ़ात को नायक मानने वालों की पूरी पीढि़याँ रही हैं। यासिर अराफ़ात को एक राष्ट्राध्यक्ष की हैसियत दी जाती थी और अमरीका से बिना डरे उन्हें अपने देश का दोस्त और दुनिया में अमन की हिफ़ाजत के लिए लड़ रहे सिपाही के तौर पर पेश किया जाता था और 2014 में सुनते हैं कि जंतर-मंतर पर कोई भगत सिंह क्रांति सेना ने इज़राईल के पक्ष और फिलिस्तीन के खि़लाफ़ प्रदर्शन किया और उन्हें उनके विचारों की अभिव्यक्ति के लिए पूरी तरह स्वतंत्र रखा गया। इसलिए ब्राजील उरुग्वे, वेनेज़ुएला ने जिस तरह इज़राईल का बहिष्कार किया है, उस तरह हिंदुस्तान में भी करना चाहिए। अगर सरकार नहीं कर रही तो न करे, नागरिक समाज और बाकी राजनैतिक दल करें। कम से कम यह सोचने वालों की शर्म तो कम करेगा।

क्रमशः

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विनीत तिवारी, लेखक प्रगतिशील लेखक संघ, मध्य प्रदेश के महासचिव हैं।