तुलसी के जीवन का अन्त भी उनके राम के अन्त की तरह दुखदायी रहा
तुलसी के जीवन का अन्त भी उनके राम के अन्त की तरह दुखदायी रहा
मरने के बाद भी राम का सरदर्द कम नहीं हुआ
ताराचंद्र त्रिपाठी
बचपन से लेकर 77 वर्ष की इस अवस्था तक मैं मन ही राम से जुड़ा रहा। उनके जीवन में मुझे कोई अवतारी पुरुष नहीं एक ऐसा सामान्य मानव दिखता रहा, जिसे अनवरत विरोध और समस्याओं का सामना करना पड़ा। राज्याभिषेक होना था, पर 14 साल के लिए निर्वासन झेलना पड़ा।
चित्रकूट में शान्तिपूर्वक रह रहे थे, अयोध्या से निकटता सर दर्द बन गयी। चित्रकूट से सैकड़ों मील दूर पंचवटी गये तो स्थानीय दादाओं से ठन गयी। पत्नी का अपहरण हो गया। अपहर्ता से युद्ध हुआ तो भाई मरते-मरते बचा। सीता को छुड़ा कर जैसे-तैसे वापस आये, राजा बने, पर पत्नी के अपहरण और शत्रु के नगर में रहने के बारे खु्सफुसाहट शुरू हो गयी। राज्य बचाने के लिए गर्भावस्था के कष्ट झेल रही पत्नी को निर्वासित करना पड़ा। एक के बाद एक परिवारी जन गोलोकसी होते गये, सदा साथ रहने वाले लक्ष्मण को संयोगवश एक अवज्ञा हो जाने का ऐसा आघात लगा कि उसने सरयू में डूब कर आत्महत्या कर ली। अन्तत: इतने प्यारे और जान छिड़कने वाले भाई की असामयिक मृत्यु के पश्चाताप में राम ने भी सरयू में डूब कर प्राण त्याग दिये।
यही हाल उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में निरूपित करने वाले तुलसी के जीवन का है। मातु- पिता जग जाय तज्यो से लेकर कुत्तों के लिए फैंके जाने वाले रोटी के टुकड़ों के लिए ललचाते, गुरु नरहरिदास की कृपा से रामकथा वाचक बने तुलसी दास की, सदा उपेक्षा और अपमान झेलते स्नेह की एक एक बूँद के लिए तरसते रामबोला की, पत्नी पर ऐसा सम्मोहित हुआ कि पत्नी से भी झाड़ खायी, फिर कभी न मिलने की कसम खा कर श्री राम की शरण में गया। जन भाषा में रामचरित मानस क्या लिख बैठा कि बनारस के पंडों को यह अपनी रोटी छीनने का प्रयास लगा और रामचरित मानस को नष्ट करने का षड्यंत्र होने लगा। काशी के तत्कालीन सर्वाधिक मान्य विद्वान मधुसूदन मिश्र के पास गुहार लगायी, तब जा कर रामचरित मानस नष्ट होने से बच पाया।
प्रतिष्ठा मिली, महन्त बने, एक बार फिर मोह हावी होने लगा, हाथ में बाल तोड़ का सामान्य सा घाव विषाक्त हो कर भयंकर पीड़ा देने लगा तो लगा कि इस बालतोड़ के बहाने राम के प्रति अनुरक्ति कम हो जाने का दंड तो नहीं मिल रहा है ( आज बरतोर मिस निकसत नोन राम राय को)
तुलसी के जीवन का अन्त भी उनके राम के अन्त की तरह दुखदायी रहा। कहा जाता है कि किसी ने उन्हें पारा खिला दिया जिससे उनके सारे शरीर में फोड़े हो गये। और इन फोड़ों की असह्य पीड़ा को सहते-सहते वे स्वर्ग सिधार गये।
मुझे लगता है कि मरने के बाद भी राम का सरदर्द कम नहीं हुआ है। कल वे निजी जीवन झमेले भोग रहे थे तो आज उनके मन्दिर से जुड़े राजनीतिक स्वार्थ उन्हें चैन नहीं लेने दे रहे हैं। गनीमत है कि उनका काव्यात्मक जीवन चरित लिखने वाले तुलसीदास का अपना जीवन कितना ही उपेक्षित न रहा हो, उनकी यह रचना तमाम महन्तों और कथावाचकों की विलासिता और अहंकार तुष्टि का साधन ही नहीं उन लोगों के राजनीतिक स्वार्थों के साधन का आधार बन गयी है, जिनके पूर्वज इसे जनता की भाषा में होने के कारण नष्ट करने पर तुले हुए थे।


