तो क्या अब सिर्फ होक चुंबन?
तो क्या अब सिर्फ होक चुंबन?
पलाश विश्वास
जब होक कलरव देहमुक्ति आंदोलन में हो जाये तब्दील तो न समाज , न व्यवस्था और न देश महादेश बदलने के आसार हैं, बाजार को क्या तकलीफ है भाई?
बाजार के कार्निवाल में बाजार प्रायोजित आंदोलन में कोई वज्रगर्भ जनांदोलन राह खोता नजर आये तो सत्तर के दशक की बची खुची पीढ़ी को तनिक तकलीफ होती है, तो इस पिछड़ेपन के लिए हम माफी चाहते हैं पहले से ही।
हम नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों के हक में हैं और रहेंगे।
हम गोमुख से लेकर गंगासागर तक की यात्राओं के दौरान तीर्थस्थलों की धूल फाँकने के बावजूद धार्मिक कर्मकांड से कभी नहीं जुड़े रहे हैं और हमेशा धर्मांध फतवों के खिलाफ रहे हैं।
हम मानते हैं कि आस्था निजी मामला है, निजी जीवन शैली है और उसमें न किसी का हस्तक्षेप होना चाहिए और न वह हमारी पहचान होनी चाहिए और हमारी राष्ट्रीयता तो कभी नहीं। कभी नहीं।
हम इसीलिए तो संघ परिवार के हिंदू राष्ट्र के विरुद्ध हैं।
हमें संघ परिवार से कोई खास ऐतराज नहीं होता अगर वह ग्लोबल हिंदुत्व के तहत नव नाजीवाद का कारोबार न कर रहा होता और हिंदू राष्ट्र के नाम पर मुक्त बाजारी विध्वंस के लिए देश भर में धर्म और आस्था के नाम पर अभूतपूर्व हिंसा और घृणा का माहौल बनाये बिना लोकतांत्रिक तौर तरीके से सत्ता की राजनीति कर रहा होता।
संघ परिवार जो धार्मिक आस्था को ही राष्ट्रीयता में तब्दील कर रहा है और देस भर में नस्ली आधिपात्यवादी मनुस्मृति शासन लागू कर रहा है कालाधन और विदेशी पूंजी के लिए, अमेरिकी हितों में युद्ध महायुद्ध गृहयुद्ध के लिए, गैर नस्ली जनसंख्या के सफाये के लिए, हमें उसकी तकलीफ है और हम यकीनन उसके विरोध में होंगे। हैं। लेकिन यह निजी आस्था और धर्म के विरुद्ध मामला नहीं है।
इस देश में भी गौतम बुद्ध ने दुनिया में सबसे पहले रक्तहीन क्रांति की समता, भ्रातृत्व और सामाजिक न्याय के लिए। वर्गहीन शोषणविहीन जातिहीन समाज की स्थापना भी हुई थी। लेकिन वह इतिहास भी संघ परिवार का इतिहास यकीनन नहीं है।
उनका इतिहास धर्मयुद्ध है और उनका देश एक अनंत कुरुक्षेत्र हैं। जहाँ उनके नस्ली पक्ष के अलावा बाकी जनसंख्या वध्य कुरुवंश है। यही वध संस्कृति ही संघ परिवार की स्वदेशी विचारधारा है और एजंडा भी।
जिसकी परिणति लेकिन महाविनाश है। हमें उस धर्म से, उस अधर्म से भी कोई लेना देना नहीं है। बजरंगी या मौलवी फतवों के हम उतने ही खिलाफ हैं जितने दूसरे लोग।
होक कलरव होक चुंबन के सिलसिले में बता दें, हम अपनी प्रिय लेखिका तसलीमा नसरीन की धर्महीन वर्गहीन नारीमुक्ति मानवमुक्ति के पक्ष में रहे हैं लेकिन उनकी देहगाथा में कभी शामिल नहीं रहे हैं।
वे जिस मैमनसिंह जनपद से आयी हैं, दलित आत्मकथा बतर्ज निजी अभिज्ञता के अलावा उनके विद्रोह में उस जनपद की कोई गूंज नहीं है।
देहगाथा में जनपद गायब हैं।
इसीलिए हमारी लोकप्रिय लेखिका तसलीमा नसरीन बांग्लादेशी साहित्यधारा की बौद्धमय विरासत के बजाय पश्चिमबंगीय सुनील संप्रदाय की देहगाथा की धारा में अपनी परिपूर्ण धार के बावजूद निष्णात हो गयी हैं।
तसलीमा नसरीन अंततः जनपदों के विपरीत महानगरीय उत्तरआधुनिक ग्लोबल लेखिका हैं, बांग्लादेशी कतई नहीं, जो नारी अस्मिता की बात तो करती हैं लेकिन वह नारी निश्चित तौर पर महानागरिक है, श्रमिक नारी नहीं है।
जो तसलीमा खुद को दूर द्वीपवासिनी की तरह महसूस करने को अभिशप्त हैं और उसके भालो आछि भालो थेको उथाल पाथाल भावावेग है, वह अब बांग्लादेश को किसी भी कोण से स्पर्श नहीं करता।
तो इसकी वजह धर्माध फतवाराज है नहीं, उसके खिलाफ तो बांग्लादेश सड़कों पर जीवन मरण का युद्ध लड़ रहा है जनम से और जो लोग इस लड़ाई में शामिल हैं, वे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष हैं लेकिन वे भी तसलीमा को आवाज दे नहीं सकते तो ऐसा उनकी कोई मजबूरी भी नहीं है।
सच तो यह है कि नरेंद्र मोदी उनकी लज्जा के शुरू से समर्थक हैं और संघ परिवार ने तसलीमा के उपन्यास लज्जा का, बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न की कथा का भारत के अल्पसंख्यकों के खिलाफ धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल किया है ।
अब जबकि बंगाल दखल संघ परिवार की सर्वोच्च प्राथमिकता है तो धार्मिक ध्रुवीकरण के सिलसिले में फिर लज्जा उनकी पूँजी है जबकि नागरिकता संशोधन कानून बतर्ज मौहन भागवत फिर कोलकाता से दहाड़ रहे हैं कि बांग्लादेशी मुसलमानों को सीमापार खदेड़ दिया जाये।
तो बांग्लादेशी कौन है- कौन नहीं, सन 1971 से अब तक जो नही पहचान पाये, अब कैसे पहचानेगे और किस किसको निकालेंगे, कौन जाने। बांग्लादेशी के नाम पर तो अब तक हिंदू भारत विभाजन के शिकार विस्थापित अस्पृश्य बंगाली शरणार्थियों को ही खदेड़ा जाता रहा है और आगे भी वहीं होना है। जिसका बंगाल में विरोध नहीं होता।
मुझे निजी तौर पर बेहद अफसोस है क्योंकि तसलीमा को निजी तौर पर जानता हूँ और उसके दिलो दिमाग को पढ़ सकता हूँ मैं। वह भले अत्यधिक उच्च अवस्थान से हमें फील करें या नहीं, हम अपने मोर्चे पर उन्हें हमेशा चाहते रहे हैं। लेकिन बाजार और सत्ता ने हर दूसरी नारी की तरह अपनी सबसे प्रियविद्रोहिनी तसलीमा नसरीन का भी कारोबार सजा दिया है। भले तसलीमा को इसका अहसास हो न हो।
मुझे निजी तौर पर बेहद अफसोस है बतौर लेखिका तसलीमा नसरिन इस महादेश का कभी वैसा प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती, जैसा नवारुण दा या अखतरुज्जमान इलियस करते रहे हैं।
दरअसल, वह खुद सुनील गंगोपाध्याय धारा की एक मुक्तबाजारी उत्पाद में तब्दील हो गयी हैं, जिसकी रचनात्मकता से देहगाथा की खुशबू के अलावा निर्वाचित कालम की वह धार सिरे से गायब हो गयी है। यह मुद्दों से भटकाव का सबसे त्रासद उदाहरण है ज्वलंत।
वरना जो देश दुनिया की सबसे ताकतवर लेखिका थीं, वह एक अदद मंदाक्रांता सेन भी बन नहीं सकीं और उनके स्वदेश में जो स्थान बेगम सूफिया कमाल या फिर सेलिना हुसैन का है, उससे उनका अवस्थान एकदम उलट हो गया है और वह तो अपनी महाश्वेता दी, आशापूर्णा देवी को छू ही नहीं सकीं। न इस्मत चुगताई को और न कुर्तउल एल हैदर को। न अमृता प्रीतम को। न इंदिरा गोस्वामी या प्रतिभाराय को।
मैं जानता हूँ कि अंततः तसलीमा नसरीन का सरोकार हर नारी से है और वे मानती हैं कि नारी को बंधुआ जीवनयंत्रणा से मुक्त किये बिना समता सामाजिक न्याय और मानवाधिकार के चर्चे फिजूल हैं, लेकिन अपने साहित्य में वे इसे मुद्दा बना सकी हैं, ऐसा मुझे नहीं लगता।
बल्कि उनकी जैसी प्रखर विद्रोह की अनुपस्थिति के बावजूद सेलिना हुसैन और दूसरी बांग्लादेशी लेखिकाओं की रचना में जमीन जनपद की नारी के मुद्दे ज्यादा मुखर हैं।
जाहिर है कि देहगाथा बाजार का विमर्श है और देहमुक्ति न नारी मुक्ति है और न मेहनतकशों का मुक्तिमार्ग, यह तो मुक्त बाजार है विनियंत्रित, जहाँ देह अंततः कमोडिटी है।
यह जो मैं लिख रहा हूँ इसका धर्म और नैतिकता से कोई मतलब भी नहीं है, मैं मुद्दों से भटकाव के माइंड कंट्रोल तकनीक के बारे में बता रहा हूँ।
आज ऐसा मुझे इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि घर, ससुराल होकर नैनीताल के शिखरों से लेकर राजधानी नई दिल्ली की मेट्रो यात्रा से लौटकर देख रहा हूँ कि जो छात्र होक कलरव कहकर सड़कों पर थे, वे अब होक चुंबन के लिए लड़ रहे हैं।
हम न चुंबन के खिलाफ रहे हैं और न प्रेम के।
हमें तो विवाह से पहले या बाद में पत्नी के सिवाय किसी नारी से प्रेम की प्रतीक्षा का भा अधिकार न था, सार्वजनिक चुंबन तो दूर की बात है।
हम तो हिमपाती रातों में अपने हसीन से हसीन सपने में किसी चुंबन की आहट से वंचित रहे हैं और हमारे उस साठ के, सत्तर के दशक में किसानों के जीवन मरण के जनविद्रोह से रोमांस के चरमोत्कर्ष में तब्दील नक्सल विद्रोह के वसंत के वज्रनिनाद में भी किसी चुंबन का कोई स्पर्श रहा है या नहीं, कभी मालूम ही नहीं पड़ा।
हमारा जीवन तो गुलमोहर के लाल रंग का धूप छांव है, जहाँ प्रेम है या नहीं है, इस अहसास से भी हम वंचित रहे हैं।
इसलिए आज की पीढ़ियाँ अगर अगिनखोर बजाय चुंबनखोर और सारवजनिक सहवास के अधिकार के लिए सड़क पर होक चुंबन के नारे लगाते हुए देहमुक्ति का कार्निवाल मनाये, तो हमें शायद इस पर टिप्पणी का अधिकार भी नहीं है।
क्योंकि किसी नीरा से प्रेम तो क्या उसके स्पर्श की स्पर्धा का दुस्साहस भी हमारी पीढ़ी का आचरण नहीं रहा है।
अपवादों से समय और समाजवास्तव का रेखंकन होता लेकिन नहीं है।
हम तो कोलकाता से 14 अक्तूबर को सीमा आरपार होक कलरव की ध्वनि प्रतिध्वनियों से सराबोर निकले थे और बार-बार यह देश दुनिया को बतला जतला रहे थे, पाशे आछि यादवपुर, साथे आछे यादवपुर शहबाग और जिनका नारा रहा है, जमात संघी भाई भाई, दुईएर एक रशिते फांसी चाई या फिर सीपीएम तृणमूल इतिहासेर भूल।
जबकि अब हमारे लिए वसंत कहीं नहीं हैं और हम अपने को खून की नदियों के मध्य डूबते खत्म हो रहे कायनात के साथ खड़े पा रहे हैं, जहाँ किसी चुंबन या प्रेम पर्व या तसलीमा जैसी नारीवादियों के चितकोबरा देहमुक्ति के बजाये इस समाजवास्तव और राष्ट्रतंत्र को, इस निरंकुश जनसंहारी मुक्त बाजार के सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान परिदृश्य को बदलने की सबसे बड़ी जरूरत हमारे सिरदर्द का सबब है।
हम अपने बच्चों के साथ हैं और रहेंगे।
हम तो उनके आंदोलनों के लिए अपनी जान तक कुर्बान करने को तैयार हैं और उनके खिलाफ, उनकी मर्जी के खिलाफ पीढ़ियों के अनुशासन, परंपराओं, लोकरिवाज का भी अनुशासन नहीं लादना चाहते, धर्म और नैतिकता के प्रवक्ता तो हम खैर हो नहीं सकते।
हम जिंदगी भर अपना प्रेम अपने दिल के सबसे निचले सतह पर छुपा दबाकर जी गये और किसी से कह भी नहीं सकें कि आई लव यू या किसी को स्पर्श भी कर नहीं सकें तो क्या हमारे बच्चों को चुंबन और प्रेम और सहवास के अधिकार नहीं होने चाहिए।
लेकिन इसे बुनियादी मुद्दा बनाने के खिलाफ हम है और अंततः यह देहगाथा का उन्मुक्त बाजार है, जिसके नशे में दिशाहीन हैं युवा पीढ़ियाँ। फिर भी इसी दिशाहीन युवा फीढ़ियों पर दांव लगाने के सिवाय चारा भी तो कुछ दूसरा नहीं है।
चूँकि हम दशकों से देखते रहे हैं कि छात्र युवा अस्मिताओं के आर पार समाज देश राष्ट्रव्यवस्था को बदलने के लिए मरने मारने के संकल्प के साथ सड़कों पर उतरते हैं, शहादत देते हैं, हँसते-हँसते और व्यवस्था के शिकार हो जाते हैं, राजनीति हर बार उनका गलत इस्तेमाल अपने हित में कर लेती है।
और देश तो क्या समाज जहाँ का तहाँ, उसी दलदल में फँसा रहता है।
चूँकि हम देहमुक्ति की बात नहीं कर रहे हैं, पुरुषवर्चस्व के इस आधिपात्यवादी मुक्तबाजारी बर्बर असभ्य समय में जो नवनाजीवाद के शिकंजे में है यह महादेश और यह दुनिया, उसको मुक्त करने के लिए होक कलरव के हक में खड़े हैं।
चुंबन का ऐसा जोरदार झटका हमारी उम्र और सेहत के खिलाफ है।
हमारी मानें तो तो बाजार को क्या तकलीफ होनी चाहिए सार्वजनिक चुंबन और सार्वजनिक सहवास से, बाजार तो धारीदार उन्मुक्त विकाससूत्र के कारोबार के लिए तमाम संस्कृतियों, मातृभाषाओं, परंपराओं, लोक और जनपदों को तहस-नहस कर रहा है और न उसका धर्म से कोई नाता है और नैतिकता से।
हमारे बच्चे शायद भूल रहे हैं कि सीमाओं के आर पार जो सत्ता वर्ग बाजार प्रभुत्व है, व्यवस्था उन्हीं की है और उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता अबाध पूंजी, गैर जरुरी जनसंख्या का विनाश और बलगाम मुनाफा है।
आप कीजिये चुंबन, सरेआम कपड़े उतारकर एक दूसरे से बीच सड़क में एकाकार हो जाते रहिए, बाजार आपको धारीदार सुगंधित मदहोशी नशीला विकास सूत्र थमा देगा।
हम भी कोई ऐतराज नहीं कर रहे हैं और चाहते हैं कि जिन मुद्दों को लेकर आंदोलन हो रहा था, उन मुद्दों को भूले नहीं, भले ही चुंबन प्रेम के अधिकार आपको हों। लेकिन आप नशेड़ी बनकर बीच सड़क पर कुछ भी करेंगे, भले हम आपको रोकें न रोकें, माँ बाप और स्वजनों की जनपदीय दिलोदिमाग पर क्या उसका असर होता है, बाजार के शब्दों में कहे कि कितना बड़ा सांस्कृतिक झटका आप दे रहे हैं और आपका समाज इस जोर के झटके के लिए कितना तैयार, परिपक्व और बालिग है, इस पर भी तनिक सोच लीजिये, तो बेहतर।


