तो पिछड़ों की एकता को तोड़ेगा मोदी सरकार का नया ओबीसी आयोग ?
तो पिछड़ों की एकता को तोड़ेगा मोदी सरकार का नया ओबीसी आयोग ?
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक ऐसे आयोग के गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, जो केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़ी जाति के कोटे से मिलने वाले आरक्षण की समीक्षा करेगा। कोशिश यह होगी कि ओबीसी आरक्षण का फायदा उन सभी पिछड़ी जातियों तक पंहुचे जो अभी तक भी हाशिये पर हैं।
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सरकार का कहना है कि ओबीसी में शामिल जातियों को आरक्षण से मिलने वाले लाभ का न्यायपूर्ण वितरण उन जातियों को नहीं मिल पा रहा है जिनकी संख्या कम है। इस आयोग से पर यह दारोमदार होगा कि वह अब तक नज़रंदाज़ की गई पिछड़ी जातियों को न्याय दिलाने के तरीके भी सुझाए।
केंद्रीय सूची में मौजूद सभी ओबीसी जातियों की नए सिरे से समीक्षा करने के लिए बनाए जा रहे इस आयोग के दूरगामी राजनीतिक पारिणाम होंगे।
मंत्रिमंडल के फैसले की जानकारी देते हुए केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बताया कि अभी तक होता यह रहा है कि संख्या में अधिक और राजनीतिक रूप से सक्षम जातियां अति पिछड़ों को नज़रंदाज़ करती रही हैं लेकिन उसको दुरुस्त करना ज़रूरी हो गया था, इसलिए सरकार को यह फैसला करना पड़ा।
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2015 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव के दौरान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि आरक्षण नीति की समीक्षा की जानी चाहिए। लालू प्रसाद यादव और उनके तब के चुनाव के सहयोगी नीतीश कुमार ने मोहन भागवत के इस बयान को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया था कि पिछड़ी जातियों की भारी संख्या वाले बिहार में बीजेपी बुरी तरह से चुनाव हार गई।
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मंत्रिमंडल की बैठक के बाद फैसलों की जानकारी देने आये अरुण जेटली से जब पूछा गया कि क्या केंद्र सरकार मोहन भागवत की बात को ही अमलीजामा पहनाने की दिशा में चल रही है तो उन्होंने साफ कहा कि 'सरकार के पास इस तरह का कोई प्रस्ताव नहीं है और न ही भविष्य में ऐसा प्रस्ताव होगा यानी उन्होंने मोहन भागवत की बात को लागू करने की किसी संभावना से साफ इन्कार कर दिया। प्रस्तावित आयोग का सीमित उद्देश्य केवल मंडल कमीशन की जातियों की योग्यता की श्रेणी का पुनार्विभाजन ही है और कुछ नहीं।
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केंद्रीय मंत्री की बात अपनी जगह है लेकिन यह तय है कि ओबीसी लिस्ट में संशोधन की बात पर ताकतवर जातियों के नेता राजनीतिक स्तर पर हल्ला गुल्ला जरूर करेंगे। लगता है कि लालू प्रसाद यादव की 27 अगस्त की प्रस्तावित रैली के लिए केंद्र सरकार और बीजेपी ने बड़ा मुद्दा दे दिया है। यह भी संभव है कि केंद्र सरकार लालू यादव और उनके साथ आने वाली पार्टियों की ताकत को भी इसी फैसले की कसौटी पर कसना चाह रही हो। ओबीसी की राजनीति के बड़े पैरोकार नीतीश कुमार के शरणागत होने के बाद केंद्र सरकार को लालू यादव को चिढ़ाने का भी एक अवसर हाथ आया है जिसका राजनीतिक लाभ होगा और केंद्र सरकार उसको लेने की कोशिश अवश्य करेगी।
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मीडिया से मुखातिब अरुण जेटली ने बताया कि ग्यारह राज्यों में इस तरह की सूची पहले से ही है जिसमे आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखण्ड ,पश्चिम बंगाल, जम्मू, आदि शामिल हैं। ओबीसी वर्ग में आरक्षण लेने के लिए क्रीमी लेयर की बात भी हुई। अब तक सालाना आमदनी छ: लाख रुपये वाले लोगों के बच्चे आरक्षण के लिए योग्य होते थे। अब वह सीमा बढ़ाकर आठ लाख कर दी गई है। बिहार और उत्तरप्रदेश दलित और ओबीसी राजनीति का एक प्रमुख केंद्र है। दक्षिण भारत में तो यह राजनीति स्थिर हो चुकी है बिहार और उत्तर प्रदेश में ओबीसी की सबसे ताकतवर जातियों यादव और कुर्मी का दबदबा है।
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बीजेपी प्रमुख अमित शाह लोकसभा 2014 चुनाव के दौरान उत्तरप्रदेश के प्रभारी थे और विधानसभा 2017 के दौरान तो वे पार्टी के अध्यक्ष ही थे। इन दोनों चुनावों में उन्होंने गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को अपने साथ लेने का बड़ा राजनीतिक प्रयास किया। केशव प्रसाद मौर्य को राज्य की राजनीति में महत्व देना इसी रणनीति का हिस्सा था। यादव जाति को अलग थलग करके समाजवादी पार्टी को पराजित करने की योजना की सफलता के बाद से ही ओबीसी जातियों को फिर से समायोजित करने की बात चल रही थी।
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार का पिछड़ी जातियों के बारे में प्रस्तावित आयोग इसी राजनीति का हिस्सा है।
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आरक्षण की राजनीति को डॉ. राममनोहर लोहिया ने अफर्मेटिव एक्शन यानी सकारात्मक हस्तक्षेप नाम दिया था। उनका दावा था कि अमेरिका में भी इस तरह की राजनीतिक योजना पर काम किया गया था। अपने देश में सकारात्मक हस्तक्षेप के पुरोधा डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया माने जाते हैं। इन नेताओं की सोच को कांग्रेस ने भी अपनाया और संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई कि दलितों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया। संविधान के लागू होने के इतने साल बाद सकारात्मक हस्तक्षेप के राजनीतिक दर्शन में अब कुछ सुधार की ज़रूरत महसूस की जा रही है। हालांकि आज के नेताओं में किसी की वह ताकत नहीं है कि वह आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं की तरह वे तरीके भी अपना सकें जो चुनाव के गणित के हिसाब से अलोकप्रिय हों। लेकिन इतना तय है कि चुनावी लाभ हानि को ध्यान में रख कर ही सही सामाजिक बराबरी के बारे में चर्चा हो रही है। उस समय दलितों को आरक्षण दिया गया था। पिछड़ी जातियों को तो आरक्षण विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री रहते दिया गया।
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उत्तर प्रदेश में ओबीसी की राजनीति में सही तरीके से आरक्षण की बात हमेशा उठती रही है। ताकतवर यादव और कुर्मी जाति के लोग बड़ी संख्या में सरकारी नौकरियों पर मंडल कमीशन लागू होने के बाद से ही काबिज हो रहे थे और अति पिछड़ी जातियों में बड़ा असंतोष था।
बीजेपी की ओर से जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए तो उन्होंने राज्य की भावी राजनीति की इस दस्तक को पहचान लिया था। पिछड़ों की राजनीति के मामले में उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की ताकत बहुत ज्यादा थी।
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पिछड़े और दलित वोट बैंक को छिन्न-भिन्न करके अपनी पार्टी की स्थिति को मजबूत बनाने के लिए राजनाथ सिंह ने वही करने की कोशिश की जिसे बाद में बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ने अपनाया। नीतीश अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं इसलिए वे अपनी योजना को लागू करने में सफल हुए लेकिन राजनाथ सिंह की किस्मत वैसी नहीं थी। उनकी टांग खींचने के लिए तो उत्तर प्रदेश में ही बहुत लोग मौजूद थे और उन लोगों को दिल्ली के नेताओं का आशीर्वाद भी मिलता रहता था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय समिति बनाई थी जिसने अति पिछड़ों के लिए आरक्षण के अन्दर आरक्षण की सिफारिश की थी।
राजनाथ सिंह ने कहा था कि पिछड़ों के लिए तय आरक्षण में कुछ जातियां ही आरक्षण का पूरा लाभ ले लेती हैं जबकि अन्य पिछड़ी जातियां वंचित रह जाती हैं। समिति की सिफारिशें के आधार पर काम शुरू भी हो गया था। बहुत ही शुरुआती दौर था। यह योजना परवान चढ़ पाती कि आम चुनाव हो गए और भाजपा सत्ता में लौटी ही नहीं। मायावती ने बाद में इस श्रेणी को खत्म कर दिया। इसके बाद भाजपा ने भी समिति की रिपोर्ट को भुला दिया। बाद में तो बीजेपी में भी सामाजिक न्याय और आरक्षण के मामले पर गंभीर आन्तरिक चिंतन हुआ और अमित शाह ने 2014 में उस चिंतन का लाभ उठाया। जाहिर है आरक्षण से जुड़े मुद्दों की राजनीति करवट ले रही है।


