तो पीके, हिन्दू ध्रुवीकरण का यंत्र बन गई!
तो पीके, हिन्दू ध्रुवीकरण का यंत्र बन गई!
मित्रों! मैंने पीके देखने के बाद एफबी पर पोस्ट डाला था कि यह फिल्म अधिक से अधिक दो स्टार पाने लायक है। इसके लिए मैंने आधार बनाया था 3 इडियट्स को। सिनेमाई कौशल के आधार पर यह फिल्म निहायत ही साधारण, लगभग सेवेंटी के डिकेड की ‘जय संतोषी मां’ के स्तर की है। यही नहीं मेरे जैसे नास्तिक के लिए यह खतरनाक फिल्म इसलिए थी क्योंकि देश का सबसे कथित सुलझा अभिनेता आमिर खान ने ईश्वर के वजूद में यकीन करने का सन्देश दे डाला था। मैंने इसकी सफलता का एक ही सकारात्मक पहलू पाया था, वह यह कि दलित साहित्य और बामसेफ जैसे संगठनों के प्रयास से ब्राह्मणवाद विरोधी जो अभियान चलाया गया, उसका असर काम कर रहा है। इनसे प्रभावित लोग जब इस फिल्म के समर्थन में कूद पड़े, मैंने बहुजन भावना का सम्मान करते हुए ख़ामोशी अख्तियार कर लिया। बाद में जब मायावती जी ने इस फिल्म का टैक्स माफ़ करने के खिलाफ आवाज उठाया, मन में आया कि इस पर कुछ लिखूं। क्योंकि मायावती जी का यह विरोध मेरी नज़रों में हाल के वर्षों का उनका सबसे बुद्धिमतापूर्ण बयान था। मैं अखिलेश यादव के टैक्स माफ़ी के निर्णय परेशान होने के बावजूद सामान्य बना रहा क्योंकि मैं जानता हूँ मुलायम जी का परिवार व्यवहारिक रूप से संघियों से भी ज्यादा हिंदूवादी है जिसके समक्ष ‘जय श्रीराम’ का विकल्प ‘जय श्रीकृष्ण’ के सिवाय और कुछ नहीं है। अगर संघ परिवार के करोड़ों लोग मिलकर साम्प्रदायिक राजनीति को बुलंदी प्रदान किये हैं तो अकेले मुलायम जी का परिवार ही इसमें कम से कम 40 प्रतिशत योगदान कर डाला है। ऐसे परिवार के अखिलेश यादव के निर्णय पर तरस खाने से ज्यादा किया ही क्या जा सकता था। किन्तु जब मेरे नए हीरो जीतन मांझी ने बिहार में इसका टैक्स माफ़ किया, मैं कांप कर राह गया, पर कुछ लिखा नहीं। बामसेफी विचारधारा पर तरस खाते हुए खामोश रहा। किन्तु अभी आधे घंटे पहले जब मेरे गाँव के मेरे सबसे प्रियजन का फोन आया, मैं अन्दर से पूरी तरह हिलकर रह गया जिसकी परिणति स्वरूप यह लिखने के लिए मजबूर हो गया।
मेरे प्रियजन ने बताया कि अपने गाँव के लोग पीके के बहुत बेकार फिल्म मान रहे हैं और वे चाहते हैं कि आप इस पर कुछ लिखें। मैंने उन्हें बताया कि फेसबुक पर बहुत पहले इस फिल्म को दूसरे दर्जे की करार दे चूका हूँ। जब उसने मेरा एंगल सुना, मुझे बुद्धू करार दिया। उसने कहा आप जिस नजरिये से सोच रहे हैं, सोचकर खुश होते रहिये। सच्ची बात तो यह है कि गाँव के लोग इस बात से दुखी हैं कि इसमें अन्य धर्मों पर नाम मात्र का, जबकि हिन्दू धर्म का पूरी तरह मखौल उड़ाया गया है। हिन्दू धर्म का माखौल उड़ाने से गाँव के मुसलमान इसकी सीडी खरीद कर बार-बार देख रहे हैं। उनके उत्साह को देखते हुए गाँव के हिन्दू आहत हैं। आज हमारे मोहल्ले में इस फिल्म को देखने के लिए चंदा जुगाड़ कर के प्रोजेक्टर पर देखने की तैयारी चल रही है। हमें डर है कि इसे लेकर मोहल्ले में कहीं बवाल न हो जाय।
तो मित्रों ! मेरे गाँव के प्रियजन के उपरोक्त कमेन्ट में जो बात उभर कर आई है, वह बड़े-बड़े बौद्धिक संस्थाओं के अध्ययन से कही ज्यादा मायने रखती है। इसमें प्योर आमजन के मनोभाव का प्रतिबिम्बन हुआ है। उपरोक्त कमेन्ट बताते हैं कि इससे पूरे देश की हिन्दू भावनाओं को ठेस पहुंची है। निरीह हिन्दुओं के इस मनोभाव को दृष्टिगत रखकर ही संघ के असंख्य शिशु संगठनों ने इसके खिलाफ धरना-प्रदर्शन का सिलसिला शुरू कर दिया है। संघ परिवार का अगला टारगेट हिन्दू धर्म-संस्कृति की ह्रदय स्थली यूपी है। पीके का इम्पैक्ट बताता है कि यह संघ के लिए हिन्दू ध्रुवीकरण का एक बड़ा माध्यम बनकर रह गयी है। फिल्म ट्रेड से जुड़े लोगों का आकलन इस फिल्म के 600 करोड़ का अकड़ा छूने का है। पर निरीह दर्शकों का प्रगतिशील बनने की सतही चाह को देखते हुए मुझे डर है कि यह शायद 1000 करोड़ के आंकड़े को छू सकती है। संघ विरोधी मित्रों से मेरा अनुरोध है कि इस फिल्म में हिन्दू ध्रुवीकरण की प्रचुर सामग्री देखते हुए, इसके प्रति लोगों को हतोत्साहित करने में अपनी उर्जा लगायें।
विषयांतर करते हुए आगे बताना चाहूँगा कि पीके का हीरो आमिर खान एक निहायत ही डेंजरस एलिमेंट के रूप में उभर रहा है। अगर राज कपूर भारतीय फिल्म हिस्ट्री के सबसे नेचुरल एक्टर-फिल्मकार रहे तो, आमिर खान सबसे हिसाबी (calculated) एक्टर–फिल्मकार के रूप में उभर गया है। इसने टीवी इत्यादि जैसे अत्याधुनिक सूचना माध्यमों का इस्तेमाल कर खुद की एक्सेप्शल छवि बना ली है, जिसके सामने शाहरुख़-अमिताभ भी बच्चे नजर आते हैं। इस मामले में ‘सत्यमेव जयते’ इसके लिए वरदान साबित हुआ। किन्तु बड़े दावे ले साथ कहता हूँ कि यह कोई बुद्धिजीवी आर्टिस्ट नहीं है। देश की समस्यायों की इसे कोई बहुत बेहतर समझ भी नहीं है, यह सत्यमेव जयते का कुछेक एपिसोड देखने के बाद जान लिया। विशेषकर दलित मामलों पर इसकी बौद्धिक अपंगता उस समय खुलकर आ गयी जब इस बदमाश ने दलितों की समस्या सिर्फ अनटचेबिलिटी से जोड़कर दिखा दिया। दलितों की असल समस्या शक्ति के स्रोतों से बहिष्कार है, यह समझने की उसकी औकात ही नहीं है। बहरहाल मित्रों क्रिकेट के बाद फिल्मों के सबसे दीवाने देश को आमिर खान जैसे एक निहायत ही शातिर जनप्रिय अभिनेता ने अपने सम्मोहन में जकड़ लिया है। खुद ईश्वरभीरु इस अभिनेता के कारण जिस तरह धर्मभीरु लोग खुद को प्रगतिशील प्रमाणित करने के लिए पीके की ओर भाग रहे हैं, उसे अगर रोकने में आपने अपनी उर्जा नहीं लगायी तो 2017 यूपी में भाजपा की सत्ता के जिम्मेवार आप भी होंगे। हिन्दू ध्रुवीकरण के लिए प्रयासरत लोगों के लिए इस फिल्म पर तसलीमा नसरीन जैसे लोगों का यह उद्गार भी काफी सहायक हो सकता कि यह फिल्म यदि पाकिस्तान या बांग्लादेश में बनती, पीके टीम से जुड़े सारे लोग मार दिए जाते।
अंत में। मैं एलान करता हूँ पीके को पसन्द करने वाले वे निरीह लोग हैं जिन्हें सिनेमाटिक कौशल से कुछ लेना देना नहीं,बस भावनाओं में बह जाना है। ऐसे लोगों ने ही कभी दो टके की ‘जय संतोषी मां’ को सुपरहिट कराया था तो आज पीके जैसी फिल्म को बालीवुड की हिस्ट्री की सबसे कामयाब फिल्म बनने की दिशा में योगदान कर दिया है। हालीवुड की सतही नक़ल करने के बावजूद जिस बालीवुड ने राजकपूर, दिलीप कुमार, गुरुदत्त जैसे एक्टर-फ़िल्मकारों के सौजन्य से कुछ यादगार फिल्में देकर इस देश की फ़िल्मी दुनिया में थोड़ी सम्मान में सम्मान दिलाया, पीके उनके लिए एक माखौल है।
बहरहाल मैं पारिवारिक कारणों से बहुत बीजी हूँ नहीं तो हिन्दू ध्रुवीकरण को देखते हुए पीके जैसी साधारण फिल्म के दीवानों को सही रास्ते पर लाने की जंग छेड़ देता। मैं ही नहीं, जो सवर्ण परस्त हिंदुत्ववादी राजनीति से आतंकित हैं, उन सभी के लिए यह फिल्म डर का सबब होंनी चाहिए। बहरहाल जो पीके के दीवाने हैं, वे 26 जनवरी के बाद इस फिल्म की गुणवत्ता के मुद्दे पर दुसाध से भिड़ें। पर मेरा अनुरोध है कि वे मुझे 26 जनवरी के पहले न ललकारें। हाँ लगे हाथ यह भी बता दूं कि 2017 में हिन्दू राज के लिए मैं भाजपा से कम, मुल्ला मुलायम जैसे निरीह हिन्दू से ज्यादा खौफजदा हूँ।
O- एच. एल. दुसाध


