फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के कर्मचारियों की गिरफ्तारी और एबीवीपी के उत्पात की निंदा
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के दोषी पुलिस अधिकारियों और भाजपा के छात्र संगठन पर कार्रवाई की मांग
नई दिल्ली: 13 अक्टूबर। जन संस्कृति मंच ने फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के कर्मचारियों की गिरफ्तारी और एबीवीपी के उत्पात की निंदा करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के दोषी पुलिस अधिकारियों और भाजपा के छात्र संगठन पर कार्रवाई की मांग की है।

जन संस्कृति मंच की ओर से सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सहसचिव द्वारा जारी वक्तव्य में कहा गया है -

“9 अक्टूबर को वसंत कुज थाना, दिल्ली पुलिस के स्पेशल ब्रांच द्वारा फाॅरवर्ड प्रेस पत्रिका के कर्मचारियों की गिरफ्तारी और उसी रोज जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में महिषासुर शहादत दिवस पर होने वाले आयोजन को बाधित करने की हरसंभव कोशिश और भाजपा-आर.एस.एस से संबद्ध छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेताओं और समर्थकों द्वारा तोड़-फोड़ किया जाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रत्यक्ष हमला है। समाज की प्रगति के लिए स्वतंत्र और निर्भीक बौद्धिक विचार विमर्श की परंपरा की रक्षा के नाते जन संस्कृति मंच इस पुलिसिया कार्रवाई और दक्षिणपंथी छात्र-संगठन के उत्पाती रवैये की कठोरतम शब्दों में निंदा करते हुए दोषी पुलिस अधिकारियों और तोड़-फोड़ करने वाले छात्रों को दंडित करने की मांग करता है

भारत में धार्मिक मिथकों को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हर दौर में रही है। मिथकों के जरिए इतिहास, समाज, संस्कृति की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं भी की जाती रही हैं। न केवल ज्योतिबा फूले, पेरियार और डाॅ. अंबेडकर, बल्कि डी.डी.कोसांबी और राहुल सांकृत्यायन सरीखे विद्वानों ने भी मिथकों की व्याख्याएं की हैं। अनेक साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं में कई मिथकों को प्रश्नचिह्नित किया है या उनकी नई व्याख्याएं की है। खुद स्वामी दयानंद सरस्वती ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में हिंदू, मुस्लिम और ईसाई धर्मों के कई अवैज्ञानिक मिथकों और पुराण कथाओं को प्रश्नचिह्नित कर चुके हैं। इंडो-ईरानियन संस्कृति में ‘असुर’ और ‘देव’ शब्द के परस्पर विपरीत अर्थ मिलते रहे हैं। विपरीत अर्थ वाली लोककथाएं भी मिलती हैं। कई लोककथाओं में ‘देव’ की उत्पीड़क और नृशंस छवि नजर आती है।

जो लोग मिथकों के प्रति अंधधार्मिक या अंधराष्ट्रवादी रवैया रखते हैं, उन्हें इन मिथकों के बारे में कोई भी नया तर्क या इनकी कोई दूसरी व्याख्या मंजूर नहीं होती। इस तरह की अंधधार्मिकता के जरिए समाज में किसी खास धार्मिक मिथकीय विश्वास में यकीन करने वालों के वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश की जाती है, जिससे समाज में तर्कशीलता की प्रवृत्ति और उसकी लोकतांत्रिक प्रगति बाधित होती है। आर.एस.एस-भाजपा की अगुआई में इसी तरह के कूपमंडूक, विषमतापूर्ण, असहिष्णु और अलोकतांत्रिक समाज बनाने की कोशिश की जाती रही है।

वर्चस्वशाली ताकतों द्वारा अपने विरोधियों के शैतानीकरण की प्रवृत्ति भी मानव समाजों में रही है। शैतानीकरण की यह प्रक्रिया संस्कृति के बहुत बारीक स्तरों पर चलती रही है। किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक समाज के लिए जरूरी है कि इस तरह की प्रक्रियाओं के खिलाफ उसमें प्रतिवाद और प्रतिरोध के स्वर मजबूती से विकसित हों। असुरों की हत्या को जायज ठहराने के लिए उनकी जो हिंसक और क्रूर छवि बनाई गई, उसी तर्ज पर जल, जंगल, जमीन पर अपने अधिकार और न्याय के लिए लड़ रहे आदिवासियों और अन्य समुदायों को आज का शासकवर्ग ‘विकास’ का दुश्मन बताते हुए उनका शैतानीकरण कर रहा है और उनके संहार के तर्क विकसित किए जा रहे हैं, उसी तर्ज पर आज मुस्लिम समुदाय की भी आतंकवादी की छवि गढ़के उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसाया जा रहा है, उनकी हत्याएं की जा रही है। जाहिर है अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की हत्या का विरोध भी हो रहा है और उन्हें शहीद का भी दर्जा दिया जा रहा है। यह महज संयोग नहीं है कि अपने लोकतांत्रिक मानवीय अधिकारों और न्याय के लिए लड़ रहे लोगों और उनकी हत्याओं के खिलाफ प्रतिवाद करने वालों का भी विरोध करने वाली ताकतें वही हैं, जो ‘महिषासुर शहादत दिवस’ या दुर्गा-महिषासुर की कथा की भिन्न व्याख्या का विरोध कर रही हैं।

मिथकों की व्याख्या में कौन सी व्याख्या सही है और कौन सी व्याख्या गलत है, इसका निर्धारण बड़े-बड़े पंडितों के लिए भी मुश्किल रहा है। लिहाजा उनकी व्याख्या का क्षेत्र सदैव ही सांस्कृतिक वर्चस्व और प्रतिरोध का क्षेत्र रहा है। हमारा सिर्फ इतना कहना है कि लेखन और विचारों का जवाब उसी स्तर पर देना चाहिए, न कि राज्यशक्ति के माध्यम से या गुंडागर्दी के माध्यम से। ‘महिषासुर शहादत दिवस’ के प्रसंग में सांप्रदायिक फासीवादी राजनीति से संबद्ध छात्र संगठन के सहयोग में पुलिस प्रशासन का खड़ा होना बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए। जेएनयू में उत्पात मचाने वाले दक्षिणपंथी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने पिछले वर्षों में प्रोफेसरों, संस्कृतिकर्मियों और लेखकों पर भी हमले किए हैं, वेलेंटाइन डे और लव जेहाद के दुष्प्रचार की आड़ में उसके द्वारा प्रेमी युगलों को निशाना बनाया गया है, लेकिन इसके खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई नहीं की गई। पुलिस को ऐसे संगठनों की गतिविधि पर रोक लगानी चाहिए।

जन संस्कृति मंच फाॅरवर्ड प्रेस के कर्मचारियों की गिरफ्तारियों के विरोध में प्रतिवाद कर रहे लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ अपनी एकजुटता का इजहार करता है। “

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