दरअसल भाजपा को कश्मीर समस्या चाहिए, समाधान नहीं
दरअसल भाजपा को कश्मीर समस्या चाहिए, समाधान नहीं
भाजपा को कश्मीर समस्या चाहिए समाधान नहीं, विडंबना का इससे करुण उदाहरण मिलना मुश्किल
70वें स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम के मौके पर श्रीनगर में अपने पहले ही संबोधन में, जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती (Jammu and Kashmir Chief Minister Mahbuba Mufti), जाहिर है कि राज्य की मौजूदा अशांति के संदर्भ में और तमाम बातों के अलावा भारत और पाकिस्तान से बातचीत (Conversation with India and Pakistan) शुरू करने का आग्रह कर रही थीं। इसके साथ ही साथ वह देश के राजनीतिक नेतृत्व यानी संक्षेप में नरेंद्र मोदी से, जाहिर है कि अपनी ही पार्टी के अपने से पहले के प्रधानमंत्री, अटलबिहारी वाजपेयी की कश्मीर के साथ बर्ताव में ‘इंसानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत’ के रास्ते की विरासत को आगे बढ़ाने का आग्रह कर रही थीं। इस सब के अलावा वह कश्मीर के मामले में ‘सीमाओं को ही बेमानी’ बना देने के पूर्व-प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वादे को याद कर रही थीं और अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के सपने के हवाले से इसकी कल्पना पेश कर रही थीं कि ‘कश्मीर को मुक्त व्यापार क्षेत्र बना दिया जाए, जहां लोग बिना रोक-टोक के आ-जा सकें...सार्क की साझा मुद्रा की बात यहीं से चले’ आदि, आदि।
विडंबना यह कि उसी सुबह लाल किले के प्राचीर से अपने तीसरे स्वतंत्रता दिवस संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अपनी मुद्रा तथा स्वर से ही नहीं, अपने शब्दों से भी, इस सबसे ठीक उल्टी दिशा में बढ़ने का एक तरह से एलान ही कर चुके थे।
हालात की विडंबना इस तथ्य से और गहरी हो जाती है कि महबूबा मुफ्ती जिस गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री हैं, उसमें केंद्र में सत्ताधारी भाजपा भी पूरी तरह से न सही, लगभग बराबर की साझीदार जरूर है।
हां! यह गठबंधन इस माने में जरूर इकतरफा है कि पिछली यूपीए सरकार के विपरीत, केंद्र में मोदी सरकार में, कश्मीरियों का प्रतिनिधित्व करने वाली किसी पार्टी को साथ लेने की जरूरत महसूस नहीं हुई।
यह संयोग ही नहीं है कि जम्मू-कश्मीर के लिए तो मोदी सरकार को, अपना भाजपायी चेहरा ही काफी तो लगता ही है, जरूरी भी लगता है, जिसकी चर्चा हम जरा बाद में करेंगे।
प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले से अपने सबसे लंबे संबोधन में, न सिर्फ आतंकवाद के मुद्दे पर नाम लिए बिना पाकिस्तान को तीखे हमले का निशाना बनाया, जिसने अब धीरे-धीरे लगभग सामान्य कर्मकांड का जैसा रूप लेना शुरू कर दिया है, उन्होंने पहली बार लाल किले प्राचीर से पाक-अधिकृत कश्मीर तथा गिलगिट-बल्टिस्तान के साथ ही, जिन पर कि भारत दावा करता है तथा इसलिए जिन्हें दोनों देशों के बीच विवाद का विषय कहा जा सकता है, हर तरह से पाकिस्तान का प्रांत माने जाने वाले बलूचिस्तान में भी पाकिस्तान द्वारा मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उठाना जरूरी समझा।
वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी ने वहां सिर्फ मानवाधिकारों का ही मुद्दा नहीं उठाया बल्कि ऐसे संगठनों के लिए समर्थन का भी स्पष्ट इशारा किया, जो पाकिस्तान से बलूचिस्तान की आजादी की मांग करते हैं और इस माने में कम से कम अलगाववादी संगठन जरूर हैं।
यह पैंतरा वास्तव में ज्यादा से ज्यादा पाकिस्तान को उसके स्तर पर ही उतरकर, उसी की भाषा में जवाब देने की झूठी शेखी के ही काम आ सकता है, जबकि वास्तविक कूटनीति के पहलू से तो यह भारत का दर्जा गिराने तथा कश्मीर के मामले में उसके पक्ष को कुछ न कुछ कमजोर करने का ही काम करेगा।
बहरहाल, इसे अगर फिलहाल छोड़ भी दिया जाए तब भी ‘ईंट के जवाब में पत्थर’ के इस मुकाबले के बीच, कम से कम मेहबूबा मुफ्ती की ‘हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच बातचीत’ की मांग की दिशा में बढ़े जाने के दूर-दूर तक कोई आसार नजर नहीं आते हैं।
उल्टे सारे आसार इससे उल्टी दिशा में जाने के ही हैं।
प्रधानमंत्री के उक्त इशारे के अगले दिन ही वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सार्क के वित्तमंत्रियों की बैठक के लिए पाकिस्तान न जाने तथा अपनी जगह एक नौकरशाह को भेजने का एलान कर दिया है।
उधर उनसे भी दो कदम आगे बढ़कर, जुबान की गरमी के लिए कुख्यात रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने, पाकिस्तान को ही ‘नरक’ करार दे दिया!
यह समझ पाना वाकई मुश्किल है कि क्या यह वही सरकार है, जिसके प्रधानमंत्री ने अफगानिस्तान के दौरे से लौटते हुए, अचानक लाहौर में स्टॉपओवर कर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के परिवारिक आयोजन में शामिल होना जरूरी समझा था।
फिर भी असली मुद्दा पाकिस्तान के प्रति इस तरह की निरर्थक तथा वास्तव में नुकसानदेह छाती ठोकू उग्रता का ही नहीं है।
सच तो यह है कि प्रधानमंत्री ने संसद में हुई बहस के जरिए, चारों ओर से आयी कश्मीर की मौजूदा अशांति पर सर्वदलीय बैठक की मांग के दबाव में, दो रोज पहले हुई दिल्ली में हुई सर्वदलीय बैठक में ही यह कहकर कि उक्त क्षेत्रों में पाकिस्तान का मानवाधिकार रिकार्ड एक बड़ा मुद्दा है, इस तरह के रुख का स्पष्टï संकेत दे दिया था।
इससे भी पहले, केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कश्मीर के मुद्दे पर राज्यसभा में हुई बहस के जवाब में यह एलान कर कि पाकिस्तान से कश्मीर पर बात, सिर्फ उसके कब्जे वाले इलाके को आजाद कराने पर होगी, यह स्पष्ट कर दिया था कि कश्मीर की समस्या के हल के, आम तौर पर भारत-पाकिस्तान के बीच संवाद के साथ किसी भी संबंध को पहचानने के बजाए, मोदी सरकार कश्मीर की मौजूदा समस्या को सिर्फ पाकिस्तान की साजिश तक घटा देना चाहती और इस तरह, सिर्फ कानून-व्यवस्था का मामला बनाकर, रक्षा बलों द्वारा निपटे जाने के लिए ही छोड़ देना चाहती है।
अचरज नहीं कि लाल किले से अपने असामान्य रूप से लंबे संबोधन में प्रधानमंत्री को कश्मीर की मौजूदा अशांति के संदर्भ में कोई भी संदेश, कोई भी आश्वासन, यहां तक कोई भी दिलासा तक देने की जरूरत महसूस नहीं हुई। इस मौके पर उन्हें वाजपेयी नीति तक याद नहीं आयी, जिसकी दुहाई उन्होने दो दिन पहले ही मध्य प्रदेश में अपने भाषण में दी थी।
वास्तव में इसका भी इशारा इससे पहले दिल्ली में हुई सर्वदलीय बैठक में ही मिल चुका था, जिसमें मोदी सरकार अशांत घाटी में सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल भेजने तक के लिए राजी नहीं हुई।
इतना ही नहीं, बाद में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मोदी सरकार की ओर इसका भी इशारा कर दिया कि उनकी सरकार कम से कम अब तक कश्मीर में हुर्रियत जैसे अलगाव की मांग करने वाले गुटों से भी बात करने के लिए तैयार नहीं है।
साफ है कि मोदी सरकार कश्मीर को शांत करने के लिए, वहां रक्षा बलों को बढ़ाने के सिवा और कोई पहल करने के लिए तैयार नहीं है। ऐसा लगता है कि मोदी सरकार कश्मीर को भारत-पाकिस्तान तनातनी का बंधक बनाए रखने जा रही है। और भारत-पाकिस्तान तनातनी, दोनों ओर के शासकों की राजनीतिक जरूरत है। उसके ऊपर से संघ परिवार की नजरों में कश्मीर और पाकिस्तान, दोनों के साथ सख्ती समानार्थी है। उसे कश्मीर की आग को शांत करने की उतनी चिंता नहीं है, जितनी इसे पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ाने के मौके के तौर पर इस्तेमाल करने की है।
आने वाले उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात आदि के महत्वपूर्र्ण विधानसभाई चुनावों के लिए और अंतत: अगले आम चुनाव के लिए, पाकिस्तान/ कश्मीर से यह बढ़ती तनातनी, सत्ताधारी पार्टी के लिए काफी काम की साबित हो सकती है।
अफसोस! इसकी कीमत कश्मीरियों को अपने खून से और शेष भारतवासियों को एक फर्जी उन्माद के पांवों तले अपनी स्वतंत्रताओं के कुचले जाने के रूप में चुकानी पड़ रही होगी।
राजेंद्र शर्मा
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