भले ही मालदा का मामला साम्प्रदायिक हो या ना हो पर मुसलमानों को कट्टरपंथ और साम्प्रदायिक संस्थाओं व आकाओं से बचना होगा वरना दक्षिणपंथ के समर्थकों का काम और आसान होता जाएगा।
मोहम्मद ज़फ़र
अभी हाल ही में मालदा में एक मुस्लिम संस्था ने विरोध प्रदर्शन किया जो कि एक दक्षिणपंथी नेता के पैगम्बर पर दिए एक बयान पर आधारित था। जो कहा जाता है कि एक दूसरे वोट बैंक की राजनीति करने वाले नेता के एक विवादास्पद बयान का जवाब था। अब ऐसे लोगों को हम अपना नेता कहते हैं, यह एक अलग बहस का विषय हो सकता है, लेकिन आते हैं मालदा के मुद्दे पर। तो विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया और देखते ही देखते पुलिस प्रशासन और सुरक्षा बलों के साथ प्रदर्शनकारियों (जो ज़ाहिर सी बात है मुस्लिम ही थे) द्वारा आगज़नी, फायरिंग, मारामारी शुरू कर दी गई जो कि कहीं से भी लोकतंत्र के ढाँचे में तर्कसंगत नहीं है। मगर अभी ना पूरी तरह जांच या सच सामने आया था, पर जो मीडिया, सोशल मीडिया और बुद्धिजीवियों के बीच हुआ वह लोकतंत्र के आन्तरिक स्तर के लिए और व्यापक खतरा है।
एक तरफ़ तो सोशल मीडिया में तैनात दक्षिणपंथी ताकतों ने तुरंत बिना पूरा सच जाने व देरी किए धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले लोगों, संस्थाओं आदि पर निशाना साधना शुरू किया, दूसरी ओर मीडिया ने भी आधी जानकारी पर आधारित मसाला बेचा। तो तीसरी ओर कई सारे वे बुद्धिजीवी भी अपने विचारों को आंकने लगे जो खुद को धर्मनिरपेक्षता व तार्किकता का समर्थक मानते हैं। उन चिंतकों ने भी उन प्रश्नों को भी बखूबी जायज़ ठहरा दिया जो दक्षिणपंथी या उनके सोशल मीडिया के उदारवादी जाँबाज़ समर्थक हर वक्त पूछा करते हैं जैसे कि अब सेक्युलर चुप क्यों हैं? अब अवार्ड वापसी वाले कहाँ गए? आदि। मुसलमानों के सहिष्णु व असहिष्णु होने की बात और हिन्दुओं के सहिष्णु होने की तुलनात्मक चर्चा भी की जाने लगी। खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले लोगों ने खुद पर भी आत्मचिंतन शुरू कर दिया। मुसलमानों को कट्टरता, साम्प्रदायिकता से ऊपर निकलना होगा और आगे बढ़ने के विचार भी दिए गए (जो सही भी हैं)।

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पर इन सभी बातों में किसी ने ये नहीं ध्यान दिया कि सवाल पूछने वाले और दादरी और मालदा में समानता ढूँढने वाले लोग कौन हैं? कहीं ये उसी तबके से तो नहीं हैं जो पढ़ा लिखा होने पर भी अशिक्षित है और खाया अघाया इंटरनेट पर बैठ पूर्वाग्रहों (prejudices) से ग्रसित नफरत को बढ़ावा दे रहा है।

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कहीं ये वो ही लोग तो नहीं जो दादरी को या तो उचित ठहरा रहे थे या उस पर खामोश थे, कहीं ये वो लोग तो नहीं जिन्हें सेक्युलर लोग सिकुलर नज़र आते हैं और वे कितने भी विरोध प्रदर्शन हर तरह की हिंसा और असहिष्णुता के खिलाफ क्यों ना कर लें इस तबके को दिखेगा ही नहीं क्योंकि यही तबका शबनम हाशमी को एकतरफ़ा सेक्युलर बताता है, गालियाँ देता है पर उसे शबनम हाशमी का ही ओवैसी के खिलाफ बोलना नहीं सुनाई देता।

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मन में पूर्वाग्रह जो है, और ना ही इंटरनेट पर बैठे इन खुद को असली सेक्युलर कहने वालों को सुभाष गाताड़े जैसे धर्मनिरपेक्ष का भारत के दाभोलकर से लेकर बांग्लादेश के मुस्लिम कट्टरपंथ या श्रीलंका के बौद्ध हिंसकों का विरोध दिखता है। इन्हें काफ़िला जैसे ब्लॉग पर आई. एस. के खिलाफ लिखा लेख भी नहीं दिखता और कहीं ऐसा तो नहीं कि ये लोग जो धर्मनिरपेक्ष लोगों को तर्क पर सवाल पूछ रहे हैं ये खुद ही स्वामी के फेसबुक के पन्नों और शंखनाद जैसे ब्लॉग के लेखों में यही कर रहे थे जिस पर आज वे सवाल पूछ रहे हैं? क्या हमें पता है कि वे सवाल पूछने वाले दाभोलकर के मरने पर विरोध कर रहे थे? या दादरी में सवाल पूछ रहे थे? मगर हमने तुरंत निर्णय ले लिया कि हाँ हम धर्मनिरपेक्ष लोग एकतरफ़ा हो रहे हैं और यही तो उन दक्षिणपंथियों की जीत है कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षों के आत्मविश्वास को डिगा दिया। हमने यह भी जानने की देर नहीं की कि असल में कारण क्या हैं। इस हिंसक आन्दोलन को किसी भी तरह जायज़ नहीं ठहराया जा सकता चाहे वो साम्प्रदायिक ना भी रहा हो मगर एक सवाल यह भी है कि क्या हार्दिक पटेल के आन्दोलन में हुई हिंसा को हमने साम्प्रदायिकता से जोड़ा? क्या कारण सिर्फ़ यह था कि इस हिंसा में विरोध प्रदर्शनकारी मुसलमान थे तो उन पर साम्प्रदायिकता व असहिष्णुता का उदाहरण दिखाने का कुछ लोग मौका ही ढूँढ़ रहे थे या उन्होंने पहले ही मान रखा था कि ये लोग तो होते ही असहिष्णु हैं।
हमने सारे के सारे मुसलमानों को राय मशविरा देना शुरू कर दिया कि मुसलमानों को सोचना होगा, ये करना होगा आदि। जबकि हम भूल गए कि यह एक संस्था विशेष का आयोजन था, जिसे हर मुसलमान से जोड़ना जायज़ नहीं है शायद। क्या सब मुस्लिम उस संस्था के समर्थक हैं? क्या सब वहाँ विरोध और तोड़ फोड़ में शामिल थे? ठीक उसी तरह जैसे वही दक्षिणपंथी दादरी में कह रहे थे कि पूरे देश और हिन्दू धर्म को असहिष्णु बताया जा रहा है। जबकि अवार्ड वापसी या दादरी के विरोधी ऐसे अलोकतांत्रिक कृत्यों और उनको अंजाम देने वालों के खिलाफ थे और ऐसे मामले ना बढ़ें उसके लिए आवाज़ उठा रहे थे ना कि वे पूरे हिंदुस्तान और सभी हिन्दुओं को असहिष्णु बता रहे थे।

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जो ग़लती हम दादरी में कर रहे थे वही हम यहाँ भी कर रहे हैं जब हम मुसलमानों को बेवकूफ़ बनाने वाली ऐसी मज़हबी संस्थाओं को निशाना बनाने की जगह पूरे समुदाय को ही कठघरे में ले आते हैं जबकि हर हिन्दू संघ या बजरंग दल का समर्थक और कट्टरपंथ का पैरोकार नहीं होता उसी तरह हर मुसलमान कट्टरपंथ को जायज़ नहीं ठहराता। हमें फिर ध्यान देना होगा कि हम विरोध किसका कर रहे हैं और किसका करना चाहिए। हमारा विरोध किसी मज़हब से नहीं बल्कि जो भी जिस भी तबके से है, पर अशांति फैला रहा है उससे है। इन सबसे भी अधिक ज़रूरी है कि तर्कों का इस्तेमाल करें और सही गलत का फेर समझें। जिनके दिमाग में पूर्वाग्रह (prejudice) है वे आप कितने भी विरोध चाहे हर धर्म के कट्टरपन्थ का कर लें वे तो आपको ताना मारेंगे ही और कोसेंगे ही अगर उनके शब्दकोष में ही सेक्युलर की जगह सिक्युलर शब्द है तो। और एक बात दोनों धर्मों के लोगों को भी समझनी होगी कि कैसे झूठे और मक्कार मज़हबी और सियासी नेताओं के जालों से बचें। जाने माने साम्प्रदायिक सद्भाव के समर्थक एक्टिविस्ट राम पुनियानी ने कहा है कि अगर बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता फैलाते हैं तो वह हत्या है और अगर अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता फैलाते हैं तो वह आत्महत्या है। भले ही यह मामला साम्प्रदायिक हो या ना हो पर मुसलमानों को कट्टरपंथ और साम्प्रदायिक संस्थाओं व आकाओं से बचना होगा वरना दक्षिणपंथ के समर्थकों का काम और आसान होता जाएगा।
मोहम्मद ज़फ़र, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।