दादरी हत्याकांड
कट्टर साम्प्रदायिक ताकतों का उत्पात या स्थानीय भीड़ का प्रकोप
डॉ. अनिल पुष्कर
ऐसा नहीं है कि दादरी में हुई अख़लाक़ की हत्या के पीछे धर्मांध लोगों का हुजूम या ताँता था या इसके पीछे पड़ोसी की रंजिश थी.. इसमें से कोई बात हलक से नीचे नहीं उतरती. ऐसा भी नहीं है कि गोमांस की बिक्री और गोमांस खाने के मामले में दादरी के लोगों को किसी तरह की कोई ख़ास धार्मिक दिक्कत हो, अगर ऐसा होता तो दादरी इलाके के लोगों को क्या इस बात की जानकारी नहीं है कि भारत में गौमांस का निर्यात दुनिया के तमाम देशों की अपेक्षा सबसे अधिक मात्रा में तकरीबन रोजाना होता है.
अखलाक की बेटी सजदा ने यह बताया कि घर में गोमांस नहीं था, मटन रखा हुआ था. सवाल घर में मटन या गोमांस का तो हरगिज़ नहीं था सवाल था साम्प्रदायिक हमले की तैयारी का. जिसका पता इस इलाके के लोगों को भी नहीं था. यहाँ बाकायदा राजनीतिक साजिश की दुर्गन्ध महसूस की जा सकती है. अगर यह साजिश नहीं थी तो इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करना जरूरी है. क्या एक मात्र गोमांस घर में रखे होने के अपवाद से किसी की हत्या को न्यायसंगत ठहराया जा सकता है?
दादरी बहुत पुराना इलाका है जहां इससे पहले कभी इस तरह की वारदात शायद कभी नहीं हुई. फिर ऐसा क्या हुआ होगा जिसके कारण मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या कर दी गई? दिल्ली से लेकर पूरे एनसीआर एरिया में अगर आप स्थानीय बाज़ार के भीतर जाकर देखें तो मालूम होगा कि ‘बड़े का मांस’ खुलेआम बिकता है. ‘बड़े’ यानी गाय और भैंस का मांस. और यह मांस बकरे और मुर्गे की अपेक्षा कहीं अधिक सस्ती कीमत पर बेचा जाता है. मांस खाने में दिलचस्पी रखने वाले लोग इस मांस को हर रोज़ न भी सही तो हफ्ते में अधिकाँश दिन बड़े चाव से खाना पसंद करते हैं. फिर चाहे वह तबका हिन्दू हो या मुसलमान. इस मामले में कोई भेदभाव इन तमाम इलाकों में देखने को नहीं मिलता.
वजह शायद यह है कि मांस चूंकि मजदूर और दिहाड़ी करने वाले तबके की जरूरत बन चुका है बिना मांस के वह कौन सा आहार ले जिससे उसे काम करने के लिए उचित ताकत और मानसिक बल मिल सके. अधिकाँश लोग बाज़ार में सब्जी-दालों की बढ़ी कीमतों के कारण अपने परिवार को रोज़ भरपेट आहार नहीं खिला सकते, मगर पौष्टिक आहार के नाम पर सस्ती कीमत वाला मांस आसानी से बाज़ार में मुहैया है. ऐसे में मेहनतकश और निम्न मध्यम क्या खाए और अपने परिवार को क्या खिलाये कि समूचा परिवार अगले रोज़ दिहाड़ी के लिए कमर कसकर जाने को तैयार हो सके. जाहिर है मांस में वो तमाम तत्व मौजूद हैं जो मोटे अन्न के मुकाबले सस्ता और अधिक उपयोगी दिखाई देता है. तो मौका चाहे कोई भी हो या सामान्य दिनों में भी बड़े का मांस बाज़ार में खुलेआम दलित और अल्पसंख्यक बस्तियों और इलाकों के बाज़ार में बिकता हुआ खूब दिख जाएगा. मगर अब तक इस मांस को लेकर कभी इन इलाकों में किसी तरह की वारदात या हत्या अब तक नहीं हुई है.
दूसरी बात, इन बाज़ारों में बिकने वाले मांस पर न तो प्रशासन की तरफ से किसी तरह की कोई पाबंदी है और न ही ऐसे तमाम इलाकों में रहने वाले लोगों को किसी तरह को कोई आपत्ति है. पुरानी दिल्ली के अधिकतर इलाकों में जहां निम्न मध्यम वर्ग तबका गुजर-बसर करता है वहां मांस का बिकना तकरीबन हर रोज़ होता है. यह तो हुई दिल्ली और एनसीआर इलाके की हकीकत.
अब आइये जान लें कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले देश में राष्ट्रीय स्तर पर बूचड़खानों से निकलने वाले गोमांस के निर्यात की स्थिति क्या है? भारत गौमांस बेचने के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार लम्बे समय से बना हुआ है. इस पर अब तक न तो संवैधानिक प्रतिबन्ध लगाया गया है और न ही सत्तारूढ़ दल इस मामले में किसी तरह की आपत्ति जता रहा है. तो फिर देश के भीतर गौमांस रखने और बेचने के मामले में दादरी जैसे इलाके में एक अल्पसंख्यक की हत्या करना कहाँ तक जायज है?
उपर्युक्त बातों पर गौर करें तो यह हत्या किसी राजनीतिक साजिश की तरफ साफ़ इशारा करती है. यह साजिश कौन कर रहा है और क्यूँ कर रहा है? इस बात का पता लगाया जाना चाहिए. क्योंकि कहीं न कहीं यह घटना अपने आप कुछ ऐसे संकेत दे रही है कि देश में सामान्य जन के बीच मजबूत सम्बन्ध जो अब तक बने हुए हैं उन्हें बिगाड़ने की कोशिशें की जा रही हैं.
कारण बहुत हद तक साफ़ हैं जब सत्तारूढ़ पार्टी अपने सांस्कृतिक और सामाजिक-धार्मिक कहे जाने वाले संगठनों को अपराध के लिए निरंकुश होने की छूट दे रही हो तब इन स्थितियों में जनसामान्य को बहुत सतर्क हो जाना चाहिए. अभी अभी मुम्बई बम काण्ड पर कोर्ट का फैसला आया है जिसमें सभी अपराधी अल्पसंख्यक समुदाय के हैं जिन्हें उम्रकैद की सजा दी गई है. मगर इस फैसले की प्रतिक्रिया में कट्टर या सहिष्णु अल्पसंख्यक समुदाय की तरफ से कोई आपत्तिजनक या विरोध की आवाज़ सुनाई नहीं दी. जिससे परेशान ब्शुसंख्य्क कट्टर साम्प्रदायिक ताकतें बौखलाहट महसूस कर रही हैं. उनमें अल्पसंख्यकों को लेकर एक आक्रोश लगातार बना हुआ है. मगर कहीं किसी तरह की अराजकता का कोई संकेत नहीं होने के कारण ये ताकतें भीतर ही भीतर कसमसाहट महसूस कर रही हैं. कि कहीं कुछ तो हो जिसके बाद बहुसंख्य कट्टर ताकतें देश में हिंसा, आगजनी और अराजकता का माहोल पैदा कर सकें. जनता के मन में धर्म और अपने अपने सम्प्रदाय को लेकर एक सुरक्षा का भाव पैदा हो सके. और अल्पसंख्यक समुदाय को तंगहाल किया जा सके.
मगर क्या यह सोच डिजिटल इंडिया बनाने में मददगार साबित होगी? क्या यह हरकतें विकास के पैमाने को पूरा करने में सक्षम हो सकेंगी? या फिर डिजिटल इण्डिया और विकास के पीछे कुछ और ही निरंकुश राजनीति पक रही है जोकि साम्प्राद्यिक और हिंसा से पूरी तरह भरी हुई है. अब तो अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर इतनी खामोशी छाई है कि वह इस बात की मांग तक करने में डर महसूस कर रहा है कि मुम्बई सीरियल ब्लास्ट के फैसले के साथ ही अब तो मुम्बई दंगों के अपराधियों के खिलाफ भी कोई फैसला आयेगा भी या नहीं? क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय को मालूम है ये राजनीतिक सत्तारूढ़ दल किसी न किसी तरह से उनके इलाकों और उनकी हर हरकत पर निगाहें जमाये बैठे हैं. कहीं कोई सुगबुगाहट इधर हुई नहीं कि दंगा और साम्प्रदायिक हिंसा के लिए सांस्कृतिक बहुसंख्य कट्टर समुदाय तैयार खड़े हैं.
ऐसे तनावपूर्ण समय में एक आम आदमी को क्या चाहिए सुकून की जिन्दगी और परिवार की हिफाजत. मगर क्या इन छोटी-छोटी घटनाओं के बाद आम आदमी चैन की सांस ले सकता है? हरगिज़ नहीं ले सकता. कट्टरपंथी ताकतें लोगों में भय का माहोल लगातार बनाए रखना चाहती हैं, ताकि इस भय से राजनीतिक साम्प्रदायिक तन्त्र फौरी तौर से जब-तब फायदा ले सके.
अगर यह मान भी लें कि इस घटना को अंजाम देने के पीछे कोई राजनीतिक साजिश नहीं है और स्थानीय लोगों का समूह वाकई में इतना ताकतवर है, गौमांस रखने या खाने के मामले में वह इस हद तक संवेदनशील है कि वह अपने इलाके के किसी भी व्यक्ति की हत्या तक कर सकता है जो व्यक्ति गोमांस की बिक्री करता है या फिर गोमांस खाने में दिलचस्पी रखता है. ऐसे में सवाल उठता है तब फिर यह समूह उस तंत्र की हत्या क्यों नहीं करता जिसने इस देश में गौमांस के निर्यात को इजाजत दे रखी है? यह समूह उन सांसदों की हत्या क्यों नहीं करता जिनकी रजामंदी से राष्ट्रीय स्तर पर गोमांस को बेचने के लिए कानूनी इजाजत दी गई है? यह समूह उन राजनीतिक ताकतवर लोगों की हत्या क्यों नहीं करता जो बूचरखानों में गौहत्या करने की खुली इजाजत दे चुके हैं? यह समूह अगर सच मायने में इतना ताकतवर है तो वह बूचरखानों में जहां गोहत्या बड़े पैमाने पर रोजाना की जा रही है उन्हें बर्बाद और तबाह क्यों नहीं करता?
जाहिर है यह समूह जिसे स्थानीय भीड़ बताया जा रहा है जिसने दानिश को इस हद तक पीटा कि वह गंभीर हालत में जिन्दगी और मौत के बीच जूझ रहा है और उसके पिता मोहम्मद अख़लाक़ की बेरहमी से हत्या तक कर दी. यह समूह सिर्फ इलाके की भीड़ नहीं हो सकती है? यह बात मानी जा सकती है? इसके पीछे की साम्प्रदायिक राजनीतिक साजिश और शातिर हत्यारों की पहचान की जानी चाहिए जिससे घटना की असलियत सामने आ सके और हत्या के पीछे की हकीकत का खुलासा हो सके.
यह तभी संभव है जब स्थानीय पुलिस को इस घटना के लिए दण्डित किया जाय और उससे कड़ी पूछताछ की जाय. पुलिस बताये दादरी में इस हत्या के पीछे कौन सी साम्प्रदायिक हिंसक ताकतें थीं जिन्होंने उस इलाके के एक समुदाय को उकसाया और भीड़ इकट्ठा करने में कारगर तरीके से काम किया. फिर मौका देखकर भीड़ के बीच इन हिंसक ताकतों के पेड (जिन्हें हत्या करने के लिए बड़ी कीमत चुकाई गई) हत्यारों ने अल्पसंख्यक समुदाय के एक परिवार पर हमला कर दिया, जिसमें अख़लाक़ की मौत हो गई और उसका बेटा दानिश अस्पताल में भर्ती है. बिना पुलिस की मदद के यह घटना योजनाबद्ध तरीके से नहीं की जा सकती है.
पुलिस पर ह्त्या का मुकद्दमा चलाया जाय. पुलिस पर जानबूझकर साम्प्रदायिक वारदात को अंजाम देने के लिए साजिश रचने वालों का साथ देने के एवज में इरादतन अल्पसंख्यक समुदाय के कमजोर परिवार पर हमला करवाने का मुकद्दमा होना चाहिए ताकि पुलिस आगे से इस तरह की घटनाओं में अधिक सतर्कता बरते. और सच्चाई को सामने ला सके. जाहिर है इस मामले में स्थानीय कट्टरपंथी दबंग नेताओं का हाथ होने में कोई दोराय नहीं है, क्योंकि बिना ताकतवर नेता की शह के बगैर पुलिस इस घटना को कैसे होने दे सकती थी.
यह कोई सामान्य घटना नहीं है. इस ह्त्या से साफ़ पता लगता है कि दादरी में साम्प्रदायिक हिंसा कराने की कोशिश की जा रही थी, जिसमें भीड़ का सहारा लिया गया. इस बात की भी जांच हो कि स्थानीय भीड़ में बाहरी कौन से अराजक तत्व शरीक थे. किस राजनीतिक संगठन के व्यामोह में फंसकर उनके अराजक हत्यारों ने इस हत्या के बहाने शांतिपूर्ण माहोल बिगाड़ने की कोशिशें की हैं, जिससे मामले की हकीकत का खुलासा हो सके.
जब तक कोई स्थानीय ताकतें ऐसे मामलों में शामिल नहीं होंगी, तब तक प्रशासन की मौजूदगी में भीड़ कितनी भी अराजक क्यों न हो, भीड़ किसी इलाके में सामूहिक तौर से इकट्ठा होकर हत्या नहीं कर सकती. स्थानीय प्रशासन और स्थानीय ताकतवर संस्थाओं की मिलीभगत के बिना इस तरह की घटना को अंजाम नहीं दिया जा सकता है. जाहिर है यह मामला हिन्दू बनाम मुसलमान का बनाने की कोशिश थी ताकि मुसलमानों का समुदाय भडक जाय और साम्प्रदायिक हिंसा बड़े पैमाने पर की जा सके. इस बात से यह पक्ष मजबूत होता है कि दादरी के जिस इलाके में यह हत्या हुई है वहां के लोग बेहद संवेदनशील और जागरूक लोग हैं मगर कुछ अराजक किस्म के गुंडों की पहल पर इसे भीड़ में तब्दील कर दिया गया. यह भी हो सकता है कि किसी ख़ास मकसद से एक समूह किसी दल, संगठन या राजनीतिक पार्टी की ताकत के दम पर बाहर से इस इलाके में आया हो और हत्या को अंजाम देने के बाद उसे राजनीतिक संरक्षण भी मिला हो.
अनिल पुष्कर