शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में भाजपा की हार के बाद उस हार के कारणों का विश्लेषण अब एक कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है एक नये विश्लेषक भी मैदान में हैं। शिवसेना के सांसद संजय राउत ने हार के कारणों में हिन्दुत्व से दूरी को बताया है।
अपनी पार्टी के अखबार सामना के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा है कि अगर भाजपा ने हिन्दुत्व को फोकस में रखा होता तो कर्नाटक में इतनी बड़ी हार न होती। संजय राउत ने मोदी को भी हिन्दुत्व से अलग होने पर खरी खोटी सुनायी है और कहते हैं अगर मोदी ने हिन्दुत्व का सम्मान नहीं किया तो उनमें और दिग्विजय सिंह कोई फर्क नहीं रहेगा। भाजपा के नेता भी दिग्विजय सिंह का नाम आते ही इस तरह से बिफर पड़ते हों जैसे उन्हें लाल अँगोछा दिखा दिया गया हो। किसी भी विषय पर दिग्विजय सिंह की राय को भाजपा वाले खारिज करने में एक मिनट नहीं लगाते। मीडिया में भी एक बड़ा वर्ग ऐसे पत्रकारों का है जो दिग्विजय सिंह को बहुत ही अछूत टाइप मानते है। अन्ना हजारे, रामदेव और अरविन्द केजरीवाल के समर्थकों में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो दिग्विजय सिंह का नाम आते ही गुस्से में आ जाते हैं और कुछ तो यह कहते सुने गये हैं वे दिग्विजय सिंह की बातों को गम्भीरता से नहीं लेते।
काँग्रेस में बड़े नेताओं का एक ताकतवर वर्ग दिग्विजय सिंह के किसी बयान के बाद उस बयान से अपनी दूरी बनाने के लिये व्याकुल हो जाता है। सोशल मीडिया में भी दिग्विजय सिंह को गाली देने वालों का एक बहुत बड़ा वर्ग है। जानकार बताते हैं वह वर्ग भी हिन्दुत्ववादी ताकतों ने ही बनाया है। कुल मिलाकर ऐसा माहौल बन गया है कि हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक पार्टियों में किसी को दिग्विजय कह देना बहुत अपमानजनक माना जा रहा है।
सवाल यह उठता है कि दिग्विजय सिंह के खिलाफ इस तरह का माहौल क्यों है? इस सवाल का जवाब उनसे ही लेने की कोशिश की गयी लेकिन उन्होंने कोई जवाब देने से साफ मना कर दिया और कहा कि उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही है जिसके कारण उनके खिलाफ इस तरह का माहौल बनाया जाये। वे अपनी पार्टी की बात करते हैं उसके सिद्धान्तों की बात करते हैं और पार्टी में उनका कोई विरोध नहीं है। उनकी पार्टी के बुनियादी सिद्धान्तों में सभी धर्मों सम्प्रदायों और जातियों को साथ लेकर चलने की बात कही गयी है इसलिये अगर कोई भी व्यक्ति किसी भी भारतीय को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश करेगा तो उसका विरोध किया जायेगा और उसकी राजनीतिक सोच को बेनकाब किया जायेगा।
मीडिया के बड़े वर्ग और दक्षिणपन्थी पार्टियों के तीखे रुख के बावजूद दिग्विजय सिंह की पार्टी में उनकी ताकत किसी से कम नहीं। पार्टी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का उन्हें पूरा संरक्षण मिला हुआ है। इसलिये यह बात साफ है कि भाजपा, शिवसेना और उनके मुरीद चाहे जो कहें काँग्रेस दिग्विजय सिंह को एक महत्वपूर्ण नेता मानती है और उनकी बातों का सम्मान किया जाता है। जाहिर है काँग्रेस को उनके बयानों और राजनीति से कोई नुकसान नहीं हो रहा है और पार्टी उनकी राजनीतिक सोच को आगे बढ़ाने को तैयार है। दिग्विजय सिंह के विरोधी भी मानते हैं कि वे धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। और जब उस राजनीति से पार्टी का कोई नुकसान नहीं हो रहा हो तो उनकी पार्टी को क्या एतराज हो सकता है।
इस बारीकी को समझने के लिये काँग्रेस के समकालीन इतिहास पर नजर डालनी पड़ेगी। महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और जवाहरलाल नेहरू आजादी के पहले और उसके बाद के सबसे बड़े नेता थे। उन्होंने आजादी के पहले और बाद में बता दिया था कि धर्मनिरपेक्षता इस राष्ट्र की स्थापना और संचालन का बुनियादी आधार रहेगा। देखा गया है कि जवाहरलाल नेहरू के जाने के बाद काँग्रेस ने जब भी धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को कमजोर किया उसे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
सबसे पहले इमरजेंसी के दौरान काँग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राह को छोड़ने की कोशिश की। विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में बन्द थे और ऐसा लगता था कि बाहर निकलना असम्भव था। आरएसएस वाले भी बन्द थे। उस वक्त के आरएसएस के मुखिया बालासाहेब देवरस ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी को कई पत्र लिखे और काँग्रेस के साथ मिलकर काम करने का भरोसा दिया। 10 नवम्बर 1975 को यरवदा जेल से लिखे एक पत्र में बाला साहेब देवरस ने इन्दिरा गाँधी को बधायी दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय बेंच ने उनके रायबरेली वाले चुनाव को वैध ठहराया है। इसके पहले 22 अगस्त 1975 को लिखे एक अन्य पत्र में आरएसएस प्रमुख ने लिखा कि "मैंने आपके 15 अगस्त के भाषण को काफी ध्यान से सुना। आपका भाषण आजकल के हालात के उपयुक्त था और संतुलित था।" इसी पत्र में उन्होंने इन्दिरा गाँधी को भरोसा दिलाया था कि संघ के कार्यकर्ता पूरे देश में फैले हुये हैं जो नि:स्वार्थ रूप से काम करते हैं। वह आपके कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में तन-मन से सहयोग करेंगे। इस सब के बावजूद भी इन्दिरा गाँधी के रुख में तो कोई बदलाव नहीं हुआ लेकिन उनके बेटे संजय गाँधी ने मुसलमानों के विरोध का रवैया अपनाया। अपने खास अफसरों को लगाकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई की और कोशिश की कि देश के बहुसंख्यक हिन्दू उनको मुस्लिम विरोधी के रूप में स्वीकार कर लें। यह वह कालखण्ड है जब काँग्रेस ने पहली बार सॉफ्ट हिन्दुत्व को अपनी राजनीति का आधार बनाने की कोशिश की थी। काँग्रेस की 1977 की हार में अन्य कारणों के अलावा इस बात का महत्व सबसे ज्यादा था। हार के बाद इन्दिरा गाँधी ने फिर धर्मनिरपेक्षता की बात शुरू कर दी और उनको हराने वाली जनता पार्टी में फूट डाल दी। उन्होंने देश को बताना शुरू कर दिया कि जनता पार्टी वास्तव में आरएसएस की पार्टी है उसमें समाजवादी तो बहुत कम संख्या में हैं। जनता पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी विचारक मधु लिमये ने भी साफ ऐलान कर दिया कि आरएसएस वास्तव में एक राजनीतिक पार्टी है और उसके सदस्य जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते। कई महीने चली बहस के बाद जनता पार्टी टूट गयी और 1980 में काँग्रेस पार्टी दोबारा सत्ता में आ गयी।

दोहरी सदस्यता के बारे में लालकृष्ण आडवानी ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि "मुख्य रूप से दोहरी सदस्यता का विचार मधु लिमये की मानसिक उपज थी, जिसका लक्ष्य था जनता पार्टी के उन सदस्यों को कमजोर करना, जो पहले जनसंघ का हिस्सा थे और लगातार संघ से जुड़े हुये थे। जब जनता पार्टी को बने एक वर्ष भी नहीं हुआ था तब लिमये, जो पार्टी के महासचिव थे, ने इस बात पर जोर दिया कि जनता पार्टी का कोई भी सदस्य साथ-ही-साथ संघ का भी सदस्य नहीं हो सकता।" उन्होंने काँग्रेस की जीत का भी अपने तरीके से जिक्र किया है। लिखते हैं कि "वर्ष 1980 के संसदीय चुनावों में जनता पार्टी की हार का अनुमान मुझे पहले से ही था। यह हार अत्यन्त गम्भीर थी। इसने दर्शाया कि मतदाता 1977 के जनादेश के साथ विश्वासघात करने के लिये पार्टी को दण्ड देना चाहते थे। 1977 में 298 सीटों की तुलना में पार्टी को मात्र 31 सीटें प्राप्त हुयीं। इसमें जनसंघ की सीटें 1977 में 93 की तुलना में मात्र 16 थीं। दूसरी ओर इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेस (आई) शानदार तरीके से वापस लौटी और 1977 के 153 सांसदों की तुलना में 1980 में उसके 351 सांसद विजयी रहे, जो कि 542 सदस्यीय सदन में लगभग दो-तिहाई बहुमत था।"
दूसरी बार काँग्रेस ने सॉफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति को अपनाने का कार्य बाबरी मस्जिद के लिये चलाये गये आरएसएस के आन्दोलन के दौरान किया जब राजीव गाँधी मन्त्रिमण्डल में गृहमन्त्री, सरदार बूटासिंह ने जाकर अयोध्या में बाबरी मस्जिद के पास एक मन्दिर का शिलान्यास करवा दिया। काँग्रेस पार्टी उसके बाद हुये 1989 के चुनावों में हार गयी। 1991 में पीवी नरसिम्हाराव ने जुगाड़ करके एक सरकार बनायी। काँग्रेस की इसी सरकार के काल में बाबरी मस्जिद का विध्वँस हुआ और उसके बाद हुये चुनावों में काँग्रेस फिर हार गयी। उसके बाद काँग्रेस पार्टी इतिहास का विषय बनने की तरफ बढ़ रही थी लेकिन 1997 के कोलकाता काँग्रेस में सोनिया गाँधी ने पार्टी की सदस्यता ली और 1998 में काँग्रेस अध्यक्ष बनीं। उस वक्त काँग्रेस की हालत बहुत खराब थी। लेकिन सोनिया गाँधी ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्षता की राह से भटक गयी थी अब वे हमेशा उसी धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलती रहेंगी। सिद्धान्तों को फिर से संभाल लेने का ही नतीजा है कि काँग्रेस ने अपनी पुरानी हैसियत को पाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया और 2004 में केन्द्र सरकार पर काँग्रेस का दोबारा कब्जा हो गया। मुख्य विपक्षी दल तब से लगातार सिमट रहा है। भाजपा की सरकारें कई राज्यों में बन गयी थीं जो अब धीरे-धीरे विदा हो रही हैं। राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इसका कारण काँग्रेस की धर्मनिरपेक्ष नीतियाँ हैं।
दिग्विजय सिंह काँग्रेस की इसी आक्रामक धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ा रहे हैं। जाहिर है धर्मनिरपेक्ष राजनीति से भाजपा को चुनावी नुकसान हो रहा है और उसके नेता जब भी मौका मिलता है, दिग्विजय सिंह के खिलाफ अभियान चलाने का अवसर नहीं चूकते। भाजपा के समर्थक भी दिग्विजय सिंह को बहुत ही घटिया इंसान के रूप में पेश करने में संकोच नहीं करते। रामदेव जैसे लोगों के अलावा मीडिया में मौजूद भाजपा के सहयोगी भी दिग्विजय सिंह के हर बयान को अपनी सुविधानुसार पेश करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आज दिग्विजय सिंह साम्प्रदायिक ताकतों को चुनौती देने की राजनीति के विशेषण बन चुके हैं और उनकी पार्टी में उनको पूरा सम्मान मिल रहा है।