दिल्ली में दावं पर भाजपा का ‘ किरण दावं’
दिल्ली में दावं पर भाजपा का ‘ किरण दावं’
नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी ने देश की पूर्व चर्चित महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी के नेतृत्व में दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ऩे का निर्णय लेकर उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करते हुए कृष्णानगर जैसी भाजपा के लिए सुरक्षित समझी जाने वाली विधानसभा सीट से पार्टी का प्रत्याशी भी बनाया है। सवाल यह है कि जिस दिल्ली प्रदेश में पूर्व में भाजपा की सरकारें बन चुकी हों, जिस दिल्ली राज्य में पिछले लोकसभा चुनावों में लोकसभा की सातों सीटों पर भाजपा के प्रत्याशी विजयी हुए हों, जो राज्य विजय मलहोत्रा, डा० हर्षवर्धन, विजय गोयल तथा जगदीश मुखी जैसे और भी कई वरिष्ठ भाजपाई नेताओं का राज्य हो, उस दिल्ली में आखिर भाजपा की ऐसी क्या मजबूरी थी कि पार्टी ने एक पूर्व महिला पुलिस अधिकारी को पार्टी की सदस्यता दिलवाने के मात्र 48 घंटे के भीतर ही उसे दिल्ली के मुख्यमंत्री पद का उम्मीवार भी घोषित कर दिया? आख़िर पार्टी के समक्ष ऐसी क्या मजबूरी थी कि उसे अपने वरिष्ठ नेताओं से अधिक भरोसा एक नई-नवेली नेत्री पर करना पड़ा? क्या भाजपा में अपने नेताओं को लेकर आत्मविश्वास में कोई कमी थी। और अब क्या किरण बेदी भाजपा के इरादों व उसकी आकांक्षाओं पर खरी उतर सकेंगी?
जहां तक संगठनात्मक विषयों का प्रश्र है तो भले ही भारतीय जनता पार्टी काँग्रेस पार्टी को हमेशा इस बात के लिए कोसती रही हो कि कांग्रेस में लोकतंत्र नाम की कोई चीज़ नहीं है। और कांग्रेस में सारे फ़ैसले नेहरू-गांधी परिवार द्वारा ही लिए जाते हैं। परंतु भाजपा में मोदी युग की शुरुआत होने के बाद अब यह साफ़ दिखाई दे रहा है कि भाजपा में कांग्रेस से भी अधिक तानाशाही का दौर शुरु हो चुका है। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी पार्टी के किन-किन वरिष्ठ नेताओं को किनारे लगाया और ख़ुद बड़ी ही तिकड़मबाज़ी से सत्ता हासिल की यह तो देश ने देखा ही था। परंतु उनका राजनैतिक सफर यहीं पूरा नहीं हुआ बल्कि उन्होंने अमित शाह जैसे अपने उस विश्वस्त सहयोगी को भाजपा का अध्यक्ष बनवाया जोकि गुजरात में उनके मुख्यमंत्री काल में राज्य के गृहमंत्री हुआ करते थे तथा उस समय भी उनके सबसे विश्वासपात्र सहयोगियों में सर्वप्रमुख थे। आज भाजपा में संगठनात्मक स्तर पर जो भी निर्णय लिए जा रहे हैं वह अमित शाह द्वारा नरेंद्र मोदी के इशारे पर ही लिए जा रहे हैं। लिहाज़ा इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए कि किरण बेदी को भी राज्य का भावी मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय स्वयं मोदी द्वारा ही लिया गया है।
ग़ौररतलब है कि दिल्ली में चुनाव घोषणा से पूर्व गत् 10 जनवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित नरेंद्र मोदी की रैली पूरी तरह से फ़्लॉप रैली साबित हुई थी। जबकि उस रैली को सफल बनाने हेतु दिल्ली के सातों भाजपा सांसदों समेत हरियाणा के मुख्यमंत्री को भी दिल्ली रैली सफल बनाने की जि़म्मेदारी सौंपी गई थी। परंतु उस रैली में हालांकि भाजपा ने एक लाख से अधिक लोगों की शिरकत का दावा तो ज़रूर किया परंतु दिल्ली पुलिस ने यह रिपोर्ट दे कर पार्टी के दावों की हवा निकाल दी कि वहां लगभग 35 हज़ार की ही भीड़ मौजूद थी। निश्चित रूप से इसी रैली ने नरेंद्र मोदी तथा भाजपा नेताओं के हौसले पस्त कर दिए और उन्होंने किसी चमत्कारिक नेतृत्व की तलाश करनी शुरु कर दी। गुजरात से लेकर दिल्ली तक दूसरों की बैसाखी पर सत्ता तक पहुंचने में महारत रखने वाली भाजपा ने दिल्ली में भी वही दावं चला। यहां चूंकि भाजपा का मुख्य मुक़ाबला आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल से है लिहाज़ा उसने अपनी रणनीति के अनुसार कल तक अन्ना हज़ारे व अरविंद केजरीवाल के साथ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में सक्रिय रूप से नज़र आ रही किरण बेदी को ही पार्टी का मुख्य चेहरा बनाना उचित समझा। हालांकि इस विषय को लेकर राजनैतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि जनरल वीके सिंह व बाबा रामदेव की ही तरह किरण बेदी को भी जनलोकपाल संबंधी आंदोलन के समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भाजपा द्वारा अन्ना हज़ारे के साथ ‘प्लांट’ किया गया था। और समय आने पर यानी दिल्ली विधानसभा के चुनाव के समय किरण बेदी को औपचारिक रूप से उस पाले से अपने पाले में वापस बुलाया गया है।
बहरहाल प्रत्यक्ष रूप से तो यही नज़र आ रहा है कि भाजपा को अरविंद केजरीवाल का मुक़ाबला करने के लायक पार्टी में किसी नेता का चेहरा नज़र नहीं आया और लोहे से लोहा काटने की कहावत को चरितार्थ करते हुए पार्टी ने किरण बेदी पर ही विश्वास करना ज़्यादा मुनासिब समझा। तो क्या भाजपा का ‘किरण दांव’ सही है? इससे पार्टी को फ़ायदा होने जा रहा है या नुक़सान?इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी 40 वर्ष की पुलिस सेवा के दौरान किरण बेदी पर भ्रष्टाचार का कोई भी आरोप नहीं लगा है। पंरतु क्या केवल पुलिस सेवा में अपनी ईमानदारी से अपना कार्यकाल पूरा करना किसी प्रदेश में सफल सरकार चला पाने का प्रमाणपत्र अथवा योग्यता का पैमाना माना जा सकता है़ और यदि उनमें इतनी सलाहियत है भी तो वे अपने से कम उम्र के अपने ही पूर्व सहयोगी अरविंद केजरीवाल की सार्वजनिक बहस करने की चुनौती से पीछे क्यों हट गईं? जब से किरण बेदी ने राजनीति में क़दम रखा है तब से मीडिया उनसे अलग-अलग कार्यक्रमों में तरह-तरह के तीखे सवाल पूछ रहा है। परंतु अभी से वे मीडिया से झुंझलाती, मीडिया से पीछा छुड़ाती तथा तर्कहीन व बेतुके जवाब देती दिखाई दे रही हैं। उदाहरण के तौर पर उनसे यह पूछा गया कि उन्हें सरकार ने गणतंत्र दिवस परेड में एक वीआईपी की हैसियत से आमंत्रित किया परंतु अरविंद केजरीवाल को पूर्व मुख्यमंत्री होने के बावजूद क्यों आमंत्रित नहीं किया गया ? इस पर उन्होंने यह जवाब दिया कि केजरीवाल भी भाजपा में शामिल हो जाएं तो उन्हें भी न्यौता मिल जाएगा। इस उत्तर को केवल मूर्खतापूर्ण उत्तर समझकर ही किरण बेदी के जवाब की अनदेखी की जा सकती है अन्यथा यदि उनके इस जवाब को गंभीरता से लिया जाए तो उनका यह जवाब ही अपने आप में न केवल कई गंभीर सवालों को जन्म देता है बल्कि उनका यह जवाब भाजपा के लिए परेशानी का सबब बनने वाला जवाब भी है। इसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को लेकर उनका अपना कोई स्पष्ट विचार नहीं है। जब उनसे मीडिया ने भाजपा के कुछ नेताओं द्वारा चार बच्चे पैदा करने के विचार पर उनकी प्रतिक्रिया चाही तो उसपर बेदी ने फरमाया कि कोई औरत चार बच्चे पैदा करे या चौदह यह उसका व उसके परिवार का निजी मामला है।
दिल्ली की लगभग 60 लाख झुग्गियों को लेकर तथा दिल्ली की अवैध कालोनियों को लेकर उनकी कोई स्पष्ट नीति व राय नहीं दिखाई देती। दिल्ली के प्राईवेट स्कूलों तथा सरकारी स्कूलों के मध्य फीस के भारी अंतर को लेकर उनका कोई स्पष्ट नज़रिया नहीं है। हद तो यह है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाए जाने तथा राजनैतिक दलों की फ़ंडिंग में पारदर्शिता जैसे विषय पर उनकी अपनी कोई स्पष्ट सोच अथवा राय नज़र नहीं आती। एक दबंग पुलिस अधिकारी के रूप में अपने सेवाकाल को ही वे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि व योग्यता मानती हैं तथा बार-बार अपनी पिछली सेवाओं का ही गुणगान करती रहती हैं। राजनीति में क़दम रखते ही उन्होंने अपने बारे में यह प्रचारित करना शुरु कर दिया था कि उन्होंने दिल्ली की डिप्टी ट्रैफिक कमिश्रर रहते हुए इंदिरा गांधी की अवैध रूप से पार्क की हुई एक कार को उठवा लिया था। कई दिनों तक यह खबर मीडिया व सोशल मीडिया पर ख़ूब छाई रही। इसी बीच वह सबइंस्पेक्टर भी प्रकट हो गया जिसने वास्तव में उस कार का चालान किया था। जब उस इंस्पेक्टर के सामने आने के बाद मीडिया ने किरण बेदी को इसी विषय पर पुन:टटोला तब कहीं जाकर किरण बेदी के मुंह से सच्चाई निकली की वह गाड़ी इंदिरा गांधी की नहीं बल्कि पीएम हाऊस की गाड़ी थी। और उसका चालान उस समय के इंस्पेक्टर निर्मल सिंह द्वारा किया गया था जो बाद में एसीपी के पद से रिटायर हुए। किरण बेदी ने निर्मल सिंह को उनकी कारगुज़ारी के लिए मात्र सम्मानित किया था। इसी प्रकार किरण बेदी द्वारा स्वयं को देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी बताने का भी भंडाफोड़ हो चुका है। बताया जा रहा है कि किरण बेदी से पहले पंजाब की सुरजीत कौर नामक पहली महिला आईपीएस अधिकारी 1959 बैच में चुनी जा चुकी थी जिनकी दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। इन पर यह आरोप भी लग रहा है कि इन्होंने प्रमोशन न मिलने के कारण अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था।
कुल मिलाकर राजनीति में पदार्पण के बाद किरण बेदी न केवल मीडिया के तीखे सवालों से रूबरू हो रही हैं बल्कि भारतीय राजनीति के तौर-तरीक़ो के अनुसार उनकी परतें भी उधेड़ी जाने लगी हैं। ऐसे में 70 सांसदों तथा 13 केंद्रीय मंत्रियों को भाजपा ने चुनाव मैदान में सक्रिय रूप से झोंक दिया है। इसके अतिरिक्त दिल्ली के सातों सांसद, मध्य प्रदेश के तीन वरिष्ठ मंत्री व बड़ी संख्या में आरएसएस के प्रचारक किरण बेदी के पक्ष में चुनाव मैदान में उतर चुके हैं। तो क्या चुनाव प्रचार की कमान नरेंद्र मोदी द्वारा अपने हाथों में लिए जाने के बावजूद पार्टी द्वारा खेला गया भाजपा का किरण बेदी दांव सफल हो सकेगा? इस बात का फ़ैसला दिल्ली की जनता सात फ़रवरी को कर देगी।
निर्मल रानी


