‘ दिव्यांग समाज ’ के बल पर महाशक्ति बनने का दक्षिणपंथी दु:स्वप्न
‘ दिव्यांग समाज ’ के बल पर महाशक्ति बनने का दक्षिणपंथी दु:स्वप्न
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की स्थायी सदस्यता का प्रश्न भाजपा की विदेश नीति का महत्वपूर्ण तत्व है, इसकी बदौलत भारत की एक महाशक्ति की लोकप्रिय छवि प्रस्तुत की जा सकती है और लोगों को विश्वास दिलाया जा सकता है कि भारत एक विकसित देश बनने की दिशा में सफलता से बढ़ रहा है। भारत, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के लिए प्रबल दावेदार है, यह एक अलग तथ्य है।
भाजपा सरकार की जुमलेबाजियों में से एक है भारत का दक्षिणपंथी महाशक्ति दु:स्वप्न।
नरेंद्र मोदी के विदेशी दौरों को ‘ग्लैमरस’ ऐतिहासिक घटनाओं के रूप में भारतीय जनमानस के मानस-पटल पर उकेरने के मनोवैज्ञानिक प्रयत्न किये जा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठित भाजपा सरकार की जुमलेबाजियों में से एक है भारत का दक्षिणपंथी महाशक्ति दु:स्वप्न। ये भाजपा के दक्षिणपंथी नीति-केन्द्रों की महत्वपूर्ण बौद्धिक कवायदों में से एक है। इसके लिए जनसंचार के संसाधनों पर बेतरह वाग्जाल और सम्मोहक स्वप्न जाल फैलाये जा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी को एक ‘आक्रामक’ और ‘मज़बूत’ राजनीतिज्ञ के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर ‘पेश’ करने की कोशिश की जा रही है ताकि सामान्य भारतीय नागरिक को मोहित किया जा सके मोदी की एक वैश्विक नेता की छवि से। प्राय: भारतीय मूल के ‘उदारवादी’ डायसपोरा के आर्थिक और मानसिक सहयोग से ऐसा किया जा रहा है। चाहें मेडिसन स्कायर यो या वेम्बले स्टेडियम, मोदी के विशाल जुलूसों में भारतीय डायसपोरा ही नज़र आया, जिसमें उनका सबसे बड़ा सहयोगी गुजराती समुदाय ही बहुसंख्यक था। स्थानीय नागरिक और जनसंचार माध्यम प्राय: अप्रभावित ही रहा है।
नरेन्द्र मोदी को एक मिथकीय व्यक्तित्व के रूप में गढ़ा जा रहा है। एक तरफ उसे फासीवादी शख्सियत के मापदंड पर खरा उतरना है जैसे कि हिटलर या मुसोलिनी, तो दूसरी तरफ उसे देसी मिथकों यथा जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गाँधी को भी विखंडित करना है, जिन्होंने अपने समय में पर्याप्त अन्तर्राष्ट्रीय ‘लोकप्रियता’ हासिल की थी। भीमराव अम्बेडकर के भगवाकरण और हिंदुत्व के एजेंडे के अनुसार उनका परिभाषिकरण और सुभास चन्द्र बोस के व्यक्तित्व को ‘राष्ट्रवादी’ विचारधारा के रूप में प्रस्तुत करना इसी बौद्धिक कवायद का हिस्सा है।
अक्सर ही बढ़ा-चढ़ा कर मोदी के विदेशी दौरों को कूटनीतिक सफलताओं के रूप में विज्ञापित किया जा रहा है ये कुछ वैसा ही है जैसा आंतरिक नीतियों में सिवाय जुमलेबाजियों के अभी तक कोई भी ठोस परिणाम सामने नहीं आया है। पूर्व राष्ट्रीय सलाहकार शिवशंकर मेनन का मानना है कि मनमोहन सिंह ने भी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से कम विदेशी दौरे नहीं किये थे, किन्तु उन्हें कभी भी इतना प्रचारित और विज्ञापित नहीं किया गया था। इन विदेशी दौरों को सामरिक और कूटनीतिक कोशिशों से ज्यादा नाटकीय और चहेते पूंजीपतियों के लिए व्यापार की सम्भावनाये खोजने वाल कहा जा सकता है। ऐसे प्रयास कम ही हैं जिन्हें मोदी के श्रीलन्का की विदेश यात्रा के समतुल्य माना जा सके, खास तौर से बड़े राष्ट्रों के सन्दर्भ में।
गौतम अदानी मोदी की यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान यात्राओं में छाया की तरह दिखते रहे हैं। 56000 करोड़ की सम्पति के मालिक अदानी का उभार मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री बनाए के समय से रहा है। वो पहले भी चीन, जापान, सिंगापूर और रूस दौरों पर मोदी की व्यापार नीति के निर्देशक और लाभार्थी रहे है। ये अनायास नहीं है कि अदानी समूह के ऊपर 72000 करोड़ की देनदारियां व कर्जों के वावजूद सरकारी संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हो रही है। ऑस्ट्रेलिया में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा वित्-प्रदत्त अदानी का ‘डाउन अंडर’ नामक 6200 करोड़ का प्रोजक्ट विवादों में फंस गया है। यही नहीं सीबीआई और ईडी जैसी संस्थाओं की नज़र भी गौतम अदानी पर है और इन पर गुजरात दंगों को ‘फ़ायनेंस’ करने का भी अंदाजा लगाया जाता रहा है। पिछले एक- दो साल में ही अदानी समूह की सम्पति चार गुना बढ़ चुकी है। चीनी दौरे के दौरान मित्तल और अदानी प्रमुख लाभार्थी थे। मोदी और उनके रणनीतिक/ सामरिक सलाहकार अजित डोवाल, जो अक्सर मोदी के विदेशी दौरों पर उनके साथ रहते हैं, अभी तक कोई ठोस ‘कूटनीतिक करतब’ दिखने में नाकामयाब रहे हैं।
फासीवादी मॉडल से प्रभावित है हिन्दुत्ववादी विचारधारा
arendra दरअसल हिन्दुत्ववादी विचारधारा जिसके अग्रगामी नरेन्द्र मोदी हैं, आक्रामक एवम कठोर राज्य की छवि के फासीवादी मॉडल से प्रभावित है। मुसोलिनी कहा करता था राज्य के लिए युद्ध वैसा ही है, जैसे मां के लिए ममता। सेना और सैन्य तत्वों/घटनाओं को प्रचारित कर मानवीय संवेगों को उत्तेजित कर जनसमुदाय का समर्थन हासिल करने का प्रयास किया जाता है। वर्तमान भाजपा सरकार ने सामजिक रूप से महत्वपूर्ण मदों में कटौती करके सैन्य बजट में बढ़ोत्तरी की है। खरबों रूपये के सैनिक साजो-सामान की खरीद के समझौते की सामरिक आधुनिकीकरण, तैयारी और के मुखौटे के पीछे बिचोलियों, उद्योगपतियों और राजनेताओं के बीच अरबों की दलाली और रिश्वत के प्रत्यक्ष लाभ शामिल हैं। ये संघ और उसके अनुषंगी संस्थाओं के धनोपार्जन और उसकी गतिविधियों को संचालित करने के लिए आवश्यक धन उपलब्ध कराएगा।
फ़्रांस के साथ राफ़ेल विमानों का सौदा एक अपेक्षाकृत घटिया और सस्ते विमानों के लिए कई गुना दाम चुकाकर किया जा रहा है, निश्चित ही ऐसे समझौतों के पीछे कई अप्रत्यक्ष कारण हैं जो शायद ही सामान्य भारतीय नागरिकों के सम्मुख आयेंगे।
राष्ट्रवाद के भड़काऊ और संकीर्णवादी मॉडल पर गंभीर सवाल खड़े करता है पठानकोट हमला
हाल के पठानकोट हमले ने, जिसमें आतंकवादियों ने सीधे सैनिक अड्डे पर हमला किया और गिने-चुने आतंकवादियों को नियंत्रित करने में कई दिन लग गए, उससे नरेन्द्र मोदी के खास राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोवाल की ‘सैन्य क्राइसिस’ के प्रबंधन और नीतियों पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं और ये खोखले, आभासी ‘आक्रामक सैन्य’ छवि-निर्माण को चुनौती देता है, जिसकी सेवा में कई निज़ी टेलीविज़न चैनल्स महीनों से लगे पड़े हैं। आतंकवाद की वैश्विक पहुँच और उसके आत्मघाती और जेहादी चरित्र तथा जुनून के कारण उसका पूर्वानुमान लगाना वाकई असंभव सा है; किन्तु, जबकि इंटेलीजेंस सूत्रों से संभावित आतकवादी घटना की सूचना मिल चुकी हो, उसके बाद भी सतर्कता और रणनीतिक सोच की कमी हो तो ये राष्ट्रवाद के भड़काऊ और संकीर्णवादी मॉडल पर गंभीर सवाल खड़े करता है। सुरक्षा-व्यवस्था के प्रति एक ढीले-ढाले रवैये की गंध भी महसूस होती है। हम महाशक्ति के स्वप्न तो देखते हैं मगर हमरी सामरिक और सुरक्षा नीतियों में अभी भी एक अपरिपक्वता और सोच का अभाव है।
कमज़ोर लोगों, कमज़ोर सोच और कमज़ोर नेतृत्व से एक कमज़ोर राष्ट्र ही बनता है कोई महाशक्ति नहीं। महाशक्ति बनने का सूत्रपात देश के अंदरूनी सशक्तिकरण से ही होता है। अभी हमारा ‘होमवर्क’ बहुत पिछड़ा हुआ है। ना सिर्फ भौतिक बल्कि मानसिक और ‘मानवीय’ रूप से भी हमें मज़बूत बनना होगा। हाल की कुछ सरकारों ने ‘मानवीय’ पक्ष के प्रति उपेक्षा का रूख अपनाया है और उसमे भाजपा ने उस दिशा में पराकाष्ठा पर पहुँचने की ठान रखी है। ‘क्रोनि कैपिटलिज्म’ की नीतियों के चलते राज्य की कल्याणकारी संकल्पना को समूल समाप्त करने की दिशा में प्रयत्न हो रहे हैं। प्राथमिक और उच्च शिक्षा के बजट में कमी की जा रही है वो भी तब जब इतने दशकों बाद भी लोग असाक्षर और अशिक्षित हैं। ‘उच्च-शिक्षित’ लोगों की विशाल गुणवत्ताविहीन फौज को सामाजिक रूप से कार्यात्मक संसाधन में बदलने की ज़रूरत है। भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है मगर संसाधनों और संपत्ति की अश्लील विषमता ने आंतरिक विक्षोभ और विप्लव की परिस्थितियां पैदा कर दी हैं - कभी उसे जातिवाद,कभी क्षेत्रवाद, कभी माओवाद और कभी नक्सलवाद के नाम से पुकारा जाता है। अल्पसंख्यक पूंजीपतियों की संपत्ति में उतरोत्तर वृद्धि और ग़रीबी का प्रसार दोनों एक ही आर्थिक प्रक्रिया के द्योतक है। सरकारें पूंजीपतियों और धनिकों के लिए बन्धुत्वपूर्ण नीतियां बनाकर उन्हें लाभ पहुंचा रही है। पूंजीपतियों को राजनीतिक रसूख के चलते हजारों करोड़ के क़र्ज़ पर क़र्ज़ दिए जा रहे हैं मगर आम इंसान रोटी,कपड़ा और मकान जैसी ज़रूरतों के लिए जीवन की ज़ददो-ज़हद में फंसा है। कराधान की व्यवस्था पंगु और धनिकतंत्र के हितों के अनुसार निर्मित की जा रही है। कराधान की त्रुटिपूर्ण नीतियां तथा नौकरशाही में भ्रष्टाचार जाति और भाई –भतीजेवाद की मज़बूत संरचनाओं से मिलकर काले धन के भंडार को असीमित रूप से बढाने का काम रही हैं, जिसका सीधा परिणाम जनोन्मुखी योजनाओं के लिए पूँजी की कमी के रूप में प्रकट होता है। कानून का शिकंजा और व्याख्या इन पुरातन किन्तु गहरे पैठी संरचनाओं के आगे निशक्त हो जाता है। यह विषमता के अन्य अश्लील रूपों को जन्म देता है जहाँ पूँजी पर एकाधिकार और वंचना की स्थिति जातीय और आर्थिक संस्थाओं को ओवरलेप करने लगती हैं।
कुपोषित बच्चों के दम पर खड़ा है हमारा विश्वशक्ति बनने का अहम्
महाशक्ति के स्वप्नदृष्टा देश के लिए इससे शोचनीय और शर्मनाक बात क्या होगी कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश मानवीय विकास सूचकांक में सबसे फिसड्डी कतार में है। मानवीय विकास सूचकांक 2014 की रिपोर्ट के अनुसार 100 दिन के रोज़गार और सामाजिक सहयोग, शिशुओं की सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवाओं और विकलांगों व् बुजुर्गों की पेंशन जैसी छोटी योजनाओं पर जीडीपी के सिर्फ 4% खर्चे से ही इन लक्ष्यों को पाया जा सकता है। 30 से 40% लोग ग़रीबी और भुखमरी के कगार पर ‘जीवन-यापन’ करते हैं। ग़रीबी और कर्जों के चलते ग्रामीण क्षेत्रों में लोग आत्महत्या करने के लिए विवश हैं। 2015 की वैश्विक भूख सूचकांक के अनुसार भारत में भुखमरी की गंभीर समस्या है और बड़े राष्ट्रों की सूची में दुनिया में बीसबें स्थान पर है। राष्ट्र के भविष्य कहे जाने वाले बच्चों के प्रति हम कितने गंभीर हैं, ये इस तथ्य की भयावहता से पता चलता है कि विश्व में सबसे कुपोषित बच्चे भारत में हैं व पैदा होते हैं। कुपोषित बच्चों के दम पर खड़ा है हमारा विश्वशक्ति बनने का अहम्।
सम्पूर्ण विश्व के 25% भूख से पीड़ित लोग भारत में रहते हैं।
लोकतान्त्रिक भारत की विडंवना ये है कि कुपोषण, भुखमरी, गरीवी और विपन्नता क्षेत्रीय और जातीय आधार पर संकेंद्रित है। अनुसूचित जनजातियाँ और जातियां,पिछड़ी जातियों और मुस्लिम तबकों में ये बीमारियाँ सबसे तीव्र रूप से फैली हुई हैं। सेक्युलर लोकतंत्र का ढांचा आज भी जातीय/धार्मिक अभिजनों और ब्राह्मणवादी कुलीन सोच के अनुसार चलाया जा रहा है। जाति और धर्म की खंड-खंड अस्मिताओं में कैद और उसके शिकंजे के तले कराहता देश, अपने ही नागरिकों को विकास और आधुनिकीकरण के नाम पर उनके घरों और संसाधनों से उजाड़ता देश (आदिवासी विस्थापन और प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा भूख), फिर नक्सलवाद और राष्ट्रद्रोह के नाम पर नरसंहार के लिए उकसाता देश- ये सभी छवियाँ इस देश और समाज की आंतरिक विषमताओं, कलह और आत्मघाती स्थितियों के विप्लवकारी स्वरूप की द्योतक है। क्या कोई राष्ट्र अपने बहुसंख्यक समाज की आर्थिक-सामाजिक त्रासद अवनति, विपन्नता और उपेक्षा के बल पर ही एक महाशक्ति बनने का स्वप्न देखता है?
अंतर्राष्ट्रीय सम्मान और प्रतिष्ठा सिर्फ हवाई घोषणाओं और विज्ञापनों से हासिल नहीं होता।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति बेहद यथार्थपरक ढंग से क्रियान्वित होती है। अगर आप मज़बूत, सक्षम और इच्छुक हों तभी राष्ट्रों के व्यवहार को अनुकूलित और राष्ट्रहितों के अनुसार ढल सकते हैं। अमेरिका या अन्य महाशक्तियों की पहचान सिर्फ सैनिक बल के आधार पर नहीं बनी है। चीन की आर्थिक प्रगति के साथ-साथ नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में उत्तरोत्तर वृद्धि ने भी उसकी ‘सॉफ्ट पॉवर’ और ‘हार्ड पॉवर’ दोनों प्रस्थितियों में इज़ाफा किया है। नागरिकों के सामजिक–आर्थिक सशक्तिकरण से राष्ट्र की शक्ति-निर्माण जैसी सोच का आज भी हमारे देश में अभाव है। विश्व भर में अर्थशास्त्र का ‘ट्रिकल डाउन’ या टपकन सिद्धांत विफल हो चुका है। सम्पूर्ण नागरिक समाज में बिना किसी भेदभाव के उनके बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, स्वास्थ्य व शैक्षिक विकास और सम्पन्नता के अनुकूल वातावरण के निर्माण के बिना महाशक्ति का स्वप्न एक दु:स्वप्न की तरह ‘दिव्यांग शक्ति’ जैसा भाषाई वाग्जाल मात्र रह जाएगा।
डॉ. नरेन्द्र कुमार आर्य, युवा लेखक, कवि एवं स्वतंत्र शोधकर्ता


