लोकेश मालती प्रकाश

डोनाल्ड ट्रंप ने ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन से बाहर होने के फ़ैसले का स्वागत किया है।
उनका बस चले तो राष्ट्रपति बनने के बाद वे अमेरिका को धरती से बाहर किसी दूसरे ग्रह पर ले जाना चाहेंगे जहां काले, भूरे, मुसलमान, एशियाई, लैटिन अमेरिकी, अफ्रीकी आदि प्रवासी न पहुंच सकें।

ट्रंप इन ‘गैर-अमेरिकी’ और ‘बाहरी’ लोगों के प्रति अपनी नफ़रत का वमन अपनी आम सभाओं में करते रहे हैं और एक बड़ी भीड़ की वाह-वाही और समर्थन भी लूटते रहे हैं। इन प्रवासियों के सस्ते श्रम के बिना अमरीकी अर्थव्यवस्था का क्या होगा इसका आकलन करने की जहमत ट्रंप नहीं उठाना चाहते। उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि अपनी नफ़रत का खुला प्रचार करने से उनको अमेरिका के बड़े हिस्से का समर्थन मिल रहा है जो उन्हें सत्ता तक पहुंचा सकता है। वैसे भी नफ़रत की अर्थव्यवस्थाएं आजकल सबसे ज्यादा फल-फूल रही हैं, सबसे ज्यादा मुनाफ़ा कमा रही हैं - चाहे वो अमेरिका हो या भारत। और जैसा कि मुनाफ़े की होड़ में होता है तात्कालिक फायदे का संकीर्ण लालच विनाश की आहटों को हमेशा अनदेखा कर देता है।

ये बात ट्रंप के उन समर्थकों पर भी लागू होती है जिन्होंने ट्रंप का जन्मदिन कुछ दिन पहले भारत में बड़ी धूम-धाम से मनाया था।
इससे पहले खुद को ‘हिंदू राष्ट्रवादी सेना’ कहने वाले इन्हीं उत्साही समर्थकों ने ट्रंप की जीत के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर में हवन-पूजन भी किया था। मुझे नहीं मालूम कि ट्रंप को इसकी खबर मिली या नहीं और अगर मिल जाए तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी। भारत के हिंदू अपने भगवान के जरिए अमरीकी चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं ये सुनकर ट्रंप क्या सोचेंगे? हो सकता है कि वे इसका स्वागत करें कि चलो हिंदुओं के भगवान उनके पक्ष में दखल दे रहे हैं। लेकिन ये भी तो हो सकता है कि ट्रंप इसे अपने ‘गॉड’ के इलाके में हिंदू भगवान की नाजायज़ घुसपैठ समझे। आखिर इस तरह के ‘बाहरी’ घुसपैठियों से ही तो वे अमरीका को बचाना चाहते हैं।
हिंदुत्ववादी इसलिए ट्रंप का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि ट्रंप अपने भाषणों में मुसलमानों के खिलाफ़ वैसा ही ज़हर उगलते हैं जैसा भारत के हिंदुत्ववादी उगलते हैं।

ट्रंप मुसलमानों के खिलाफ़ हैं इसलिए हिंदुत्ववादी ट्रंप के साथ हैं।
दोनों के बीच एक समानता है – धर्म, जन्म, नस्ल आदि के आधार पर लोगों से नफ़रत करना और नफ़रत का माहौल बनाना जिससे अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकी जा सके। ट्रंप के नस्लवादी कुविचार हिंदुत्ववादियों के दलित विरोधी विचारों से मिलते हैं। इस तरह की समानताओं की पूरी फेहरिस्त बनाई जा सकती है। नफ़रत की अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े का लालच ट्रंप और हिंदुत्ववादियों को एक सूत्र में पिरोता है।
ट्रंप के इन समर्थकों की हरकतों से ‘कूपमंडूक’ शब्द चरितार्थ होता है। ट्रंप मुसलमानों से नफ़रत करते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि उनको अमेरिका में रह रहे भारतीय प्रवासियों से कोई विशेष प्रेम हो। अमरीकी नस्लवाद सिर्फ काली चमड़ी वालों के खिलाफ़ हो ऐसा नहीं है। उसके निशाने पर भूरी चमड़ी वाले भी रहते हैं। ट्रंप का अंधराष्ट्रवाद अगर वहां जीतता है तो तमाम दूसरे देशों के काले-भूरे प्रवासियों के साथ भारतीय प्रवासियों को भी बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। ये वही प्रवासी हैं जो अमेरिका में हमारे प्रधानमंत्री जी के सार्वजनिक भाषणों में भीड़ बढ़ाने का काम करते हैं। हिंदुत्ववादियों को सोचना चाहिए कि अगर ट्रंप ने इनको भगा दिया तो प्रधानमंत्री जी की सभाओं में ताली कौन बजाएगा। अफसोस की बात ये है कि नफ़रत के तात्कालिक मुनाफ़े के लालच से भरी नजर इन ‘डीटेल्स’ पर कम ही जाती है।
ट्रंप ने अपने चुनावी अभियान में एक और वादा ये किया है कि मैक्सिको से लगी अमरीका की सीमा पर वे दीवार खड़ी करेंगे। वे वाकई ऐसी दीवार बना पाएंगे या नहीं ये कहना अभी मुश्किल है मगर अपने चुनाव अभियान में वे अमेरिका में अलग-अलग समुदायों के बीच इतनी दीवारें बनाएंगे और इतनी खाइयां खोदेंगे जिनको तोड़ना या पाटना लंबे समय तक मुश्किल होगा। नफ़रत की फसल उगाने का क्या अंजाम होता है इससे हम सब वाकिफ़ हैं।

जो बात हमको समझनी चाहिए वो ये है कि ट्रंप सिर्फ एक व्यक्ति नही है बल्कि वो एक सामाजिक प्रक्रिया का प्रतीक है।
ट्रंप सिर्फ उन अति-प्रतिक्रियावादी विचारों को अभिव्यक्त कर रहे हैं जो न सिर्फ अमरीकी समाज में बल्कि हर देश में मौजूद हैं। इन विचारों का संबंध समाज के उन ताकतवर वर्गों व समूहों से है जिनके हाथ में समाज की राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक ताकत केंद्रित है। अपनी ताकत को बनाए रखने के लिए ये वर्ग इस तरह के उग्र प्रतिक्रियावादी विचारों का इस्तेमाल करते हैं और इन विचारों का असर तब सबसे ज्यादा होता है जब जनता के बड़े हिस्से में उसकी बिगड़ती माली हालत से असंतोष और गुस्सा हो। ध्यान देने की बात है कि ट्रंप का आगमन अमेरिकी पटल पर एक ऐसे दौर में हुआ है जब आर्थिक मंदी की मार से वहां की अर्थव्यवस्था अब तक जूझ रही है, बेरोज़गारी की दर ऊंची है और आम लोगों के रहन-सहन के स्तर में गिरावट आई है। लोगों में गुस्सा है और ट्रंप उस गुस्से को एक खास दिशा में मोड़ रहे हैं जिसके निशाने पर उसी जनता का एक हिस्सा है न कि वहां के ताकतवर सत्ताशाली वर्ग जो नफ़रत की लहर में अपनी सत्ता और मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं।
नफ़रत और अंधराष्ट्रवाद की ऐसी लहरों पर सवार होकर उभरने वाली राजनीतिक सत्ताएं समाज को कहां ले जाती हैं इसका एक उदाहरण हिटलर का है। वह दौर जब जर्मनी ने अपने गुस्से में दुनिया को ही नहीं खुद को भी निगल गया। कभी ‘गौ-भक्ति’ तो कभी ‘राष्ट्र-भक्ति’ के नाम पर हमारे देश में भी ऐसी ही लहर बनाई जा रही है। ट्रंप सिर्फ अमेरिका का बुरा सपना नहीं बल्कि हर देश के सामने खड़े आसन्न संकट का नाम है – एक दुस्वप्न जो हकीकत बनना चाहता है।