रश्मि रविजा

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के अनशन से पूरा देश हिल उठा...आम जनता....मिडिया..व्यस्त हो उठे और प्रशासन.....राजनेता...त्रस्त हो गए

बाबा रामदेव का अनशन ख़त्म करवाने के लिए क्या क्या उपाय और तिकड़म लगाए गए...इस से सब वाकिफ हैं. वहीँ साधू निगमानंद ने ११५ दिनों के अनशन के बाद दम तोड़ दिया....और किसी को सुध नहीं आई. अब उनकी मौत के पीछे एक साज़िश थी....इस तरह की खबरे आ रही हैं.पर किसी स्वार्थवश सरकार की उदासीनता भी एक वजह तो थी ही.

पर एक और महिला पिछले ग्यारह साल से अनशन पर हैं....और आम जनता को खबर तक नहीं है. शर्मीला इरोम, भारतीय सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम 1958 को हटाये की मांग को लेकर 11 सालों
से भूख हड़ताल बैठी हैं.11 सितम्बर, 1958 को भारतीय संसद ने सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून <आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (ए.एफ.एस.पी.ए)> पारित किया . शुरू में इसे 'सात बहनों' के नाम से विख्यात पूर्वोत्तर के सात राज्यों असम, मणिपुर, अरुणांचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में लागू किया गया . 1990 में इसे जम्मू कश्मीर में भी लागू कर दिया गया. बेकाबू आतंरिक सुरक्षा स्थिति को नियंत्रित करने केलिए सरकार द्वारा सेना को यह विशेषाधिकार दिया गया.

इम्फाल से 10 किलोमीटर मालोम (मणिपुर) गाँव के बस स्टॉप पर बस के इंतज़ार में खड़े 10 निहत्थे नागरिकों को उग्रवादी होने के संदेह पर गोलियों से निर्ममतापूर्वक मार दिया गया. मणिपुर के एक दैनिक अखबार 'हुयेल लानपाऊ' की स्तंभकार और गांधीवादी 35 वर्षीय इरोम शर्मिला 2 नवम्बर 2000 को इस क्रूर और अमानवीय क़ानून के विरोध में सत्याग्रह और आमरण अनशन पर अकेले बैठ गई. 6 नवम्बर 2000 को उन्हें 'आत्महत्या के प्रयास' के जुर्म में आई.पी.सी. की धारा 307 के तहत गिरफ़्तार किया गया और 20 नवम्बर 2000 को जबरन उनकी नाक में तरल पदार्थ डालने की कष्टदायक नली डाली गई. पिछले 11 साल से उनका सत्याग्रह जारी है. शर्मीला का कहना है कि जब तक भारत सरकार सेना के इस विशेषाधिकार क़ानून को पूर्णतः हटा नहीं लेती तबतक उनकी भूख़ हड़ताल जारी रहेगी.

शर्मिला के समर्थन में कई महिला अधिकार संगठनों ने इम्फाल के जे. एन. अस्पताल के बाहर क्रमिक भूख़ हड़ताल शुरू कर दी है, यानी कि समूह बनाकर प्रतिदिन भूख़ हड़ताल करना. शर्मिला के समर्थन में मणिपुर स्टेट कमीशन फॉर वूमेन, नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन, नेशनल कैम्पेन फॉर दलित ह्यूमन राइट्स, एकता पीपुल्स यूनियन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स, ऑल इंडिया स्टुडेंट्स एसोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आदि शामिल हैं...विदेशों से भी कई संगठन उनका समर्थन कर रहे हैं...पर अपने देश के सरकार के कान पर जून नहीं रेंगती.

उनकी मांग सही है या नहीं.......वे पूरी की जा सकती हैं या नहीं....ये एक अलग विषय है. पर शर्मीला को अपना अनशन तोड़ने के लिए तैयार तो किया जा सकता है...क्या उनकी जान की कोई कीमत नहीं है? उन्हें भी जीने को एक ही जिंदगी मिली है. पिछले ग्यारह साल से उन्होंने मुहँ में कुछ नही डाला...किसी चीज़ का स्वाद नहीं जाना....ये सब उनके मौलिक अधिकार का हनन है..सरकार की जिम्मेवारी नहीं कि वो अपने एक नागरिक के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करे??
बाबा रामदेव के स्वास्थ्य की पल-पल खबर मिडिया में प्रसारित हो रही थी. उनके स्वास्थ्य बुलेटिन जारी किए जा रहे थे. सिर्फ नौ दिन के उपवास में उनके अंग-प्रत्यंगों पर होने वाले दुष्प्रभावों की चर्चा की जा रही थी. १० साल के उपवास से ,शर्मीला के लीवर-किडनी-ह्रदय पर क्या असर हुआ है...इस से किसी को सरोकार नहीं. इसलिए कि वो एक आम इंसान हैं?? यानि कि किसी आम इंसान को अपनी आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं??

जबतक हज़ारों-लाखों की तादाद में उनके समर्थक ना हों...किसी को अपनी बात कहने का हक़ नहीं...और अगर किसी ने कहने की कोशिश की भी तो उसका कोई असर किसी पर नहीं पड़ेगा. उसका सारा प्रयास व्यर्थ जाएगा... चाहे वो अपनी जान भी क्यूँ ना दे दे. और हमें गर्व है कि हम एक जनतांत्रिक देश में रहते हैं...जहाँ का शासन जनता के लिए और जनता के द्वारा है.

शर्मीला के अनशन को बिलकुल ही नज़रंदाज़ किया जा रहा है...क्या इसलिए कि वे जिन मुद्दों के लिए लड़ रही हैं..उस से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जिन मुद्दों को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं...उस से कहीं ना कहीं हमें भी लाभ होनेवाला है. इसीलिए हम भी उनका साथ दे रहे हैं....इसका अर्थ है..इतने स्वार्थी हैं हम.

मणिपुर के वासियों की भाषा-रीती-रिवाज-रहन-सहन हमसे अलग हैं...पर है , तो वो हमारे ही देश का एक अंग. वहाँ, भी उसी उत्साह से स्वतंत्रता दिवस..गणतंत्र दिवस मनाये जाते हैं...राष्ट्रगीत गाया जाता है. क्रिकेट विश्व-कप जीतने पर खुशियाँ मनाई जाती हैं...हिंदी फिल्मे देखी जाती हैं. फिर वहां की समस्याओं से...हमारी ही एक बहन के इस आमरण अनशन से हम यूँ निरपेक्ष कैसे रह सकते हैं??

वहाँ के मुख्यमंत्री...अन्य मंत्रीगण..सांसद क्यूँ नहीं प्रयास करते कि समझौते की कोई राह निकले...और शर्मीला अपना अनशन ख़त्म करे. शायद केंद्र सरकार पर वहाँ की उथल-पुथल से कोई दबाव नहीं पड़ता. इसलिए भी सरकार यूँ उदासीन है.

और मिडिया को भी शायद ये अहसास है कि शर्मीला इरोम के आन्दोलन को प्रमुखता देकर वह सरकार पर कोई दबाव नहीं बना सकती ,इसीलिए वो भी चुप है.

यानि एक और निगमानंद ..अपने लोगो के हक़ के लिए लड़ते हुए शहीद हो जाने की राह पर हैं...और हम सब चुपचाप, उसका यूँ पल-पल मौत के मुहँ में जाना देखते रहेंगे.
(इस पोस्ट के में उद्धृत कुछ तथ्य साझा-संसार ब्लॉग से साभार .)