देखभाल की बेहतर गुणवत्ता से कम हो सकती है मातृ मृत्यु दर

Maternal mortality rate in India

उमाशंकर मिश्र

नई दिल्ली, 25 अक्तूबर (इंडिया साइंस वायर) : मातृ मृत्यु दर कम करने और मातृ स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार के लिए सार्वजनिक प्रसूति सेवाओं की निरंतरता के साथ-साथ व्यक्ति केंद्रित देखभाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। एक ताजा अध्ययन में यह बात उभरकर आई है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि मातृ स्वास्थ्य के क्षेत्र में गुणवत्ता संबंधी बाधाओं को सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार से दूर नहीं किया जा सकता। इसके लिए व्यक्तिगत देखभाल से जुड़ी सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ानी होगी।

सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में दुर्व्यवहार

Bad behavior in public health services

इस अध्ययन में सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसव के विभिन्न चरणों में देखभाल संबंधी गुणवत्ता में खामियां पायी गई हैं। इनमें मुख्य रूप से हाथों की खराब हाइजीन, संक्रमित उपकरणों का उपयोग, अपर्याप्त नैदानिक देखभाल, प्रसव से पहले और प्रसव के बाद नियमित निगरानी की कमी, प्रसव कक्ष और प्रसवोत्तर वार्ड में आंशिक प्राइवेसी शामिल हैं। इसके अलावा, कुछेक मामलों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में पैसे मांगने और दुर्व्यवहार की घटनाएं भी देखने को मिली हैं।

अक्तूबर 2016 से फरवरी 2017 के दौरान किए गए इस अध्ययन में उत्तर प्रदेश के दो जिलों कानपुर और उन्नाव के नौ सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में गैर-प्रतिभागी प्रत्यक्ष अवलोकन के जरिये प्रसूति सेवाओं की गुणवत्ता का अध्ययन किया गया है। इस तरह प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण विश्व स्वास्थ्य संगठन के मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य के लिए निर्धारित मापदंडों के आधार पर किया गया है। हरियाणा के गुरुग्राम स्थित पब्लिक हेल्थ फांउडेशन के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह अध्ययन शोध पत्रिका प्लॉस वन में प्रकाशित किया गया है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर प्रसूति सेवाओं की गुणवत्ता का अध्ययन

Study of quality of maternity services at public health centers

प्रसव से पहले करीब आधे मरीजों का ब्लडप्रेशर, नब्ज, तापमान, हीमोग्लोबिन, मलमूत्र में ग्लूकोज की मात्रा और गर्भस्थ शिशु के हृदय गति की जांच न किया जाना प्रमुख कमी के रूप में उभरकर आयी है। इसके अलावा परीक्षण के लिए कई मामलों में दस्तानों का उपयोग न करना और इस्तेमाल के बाद दस्तानों के मरीज के पास छोड़ने जैसे हाइजीन संबंधी मामले भी देखने को मिले हैं। इसके अलावा, प्रसव से पूर्व मां और गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा से जुड़ी पूछताछ का जवाब परिजनों नहीं दिया जाता। स्वास्थ्य केंद्र में प्रवेश के समय मरीजों को व्हीलचेयर/स्ट्रेचर उपलब्ध न कराये जाने को भी शोधकर्ताओं ने रेखांकित किया है।

अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, प्रसव के दौरान कई मामलों में मरीज को दवाएं, कॉटन या पैड्स तक उपलब्ध नहीं कराए जाते और परिजनों को ये चीजे खुद जुटानी पड़ती हैं। कई केंद्रों पर बेड, चादर और बाथरूम भी साफ नहीं पाए गए हैं। कुछेक मामलों में तो महिला को मौखिक और शारीरिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती और प्रसव के दौरान उन्हें सहारा तक नहीं दिया जाता। अधिकतर मामलों में प्रसव के बाद मां और शिशु की स्थिति के बारे में जानकारी परिजनों से साझा नहीं की जाती और डिस्चार्ज के समय उन्हें देखभाल संबंधी सलाह भी नहीं दी जाती।

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इस अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता डॉ संगीता भट्टाचार्य के अनुसार, “प्रसूति सेवाओं के विभिन्न चरणों मे सबसे अधिक खामियां प्रसव के दौरान और उससे पूर्व देखने को मिली हैं। इन स्वास्थ्य केंद्रों की गुणवत्ता में सुधार के लिए ढांचागत एवं मेडिकल सप्लाई से जुड़ी खामियों की पहचान के साथ-साथ नैदानिक, मरीजों की सुरक्षा, सूचनाओं को साझा करने, भावनात्मक सपोर्ट, अनौपचारिक भुगतान और स्टाफ के अपमानजनक रवैये जैसे मामलों का समाधान भी जरूरी है।”

भारत में संस्थागत प्रसव के मामले वर्ष 2005-2006 के 39 प्रतिशत के मुकाबले वर्ष 2015-2016 में बढ़कर 79 प्रतिशत तक पहुंच गए थे। जननी सुरक्षा योजना के अंतर्गत गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाली महिलाओं को संस्थागत प्रसूति कराने के लिए आर्थिक सहायता के रूप में नकद हस्तांरण को इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है। इसके बावजूद मातृ मृत्यु दर में उम्मीद के मुताबिक कमी नहीं हुई है, जिससे स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और देखभाल पर सवाल खड़े होते हैं।

डॉ भट्टाचार्य के मुताबिक, “प्रसव संबंधी सेवाओं के दौरान निरंतर देखभाल में समझौता होने से समानता और स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। सम्मानजनक देखभाल मुहैया कराने से जुड़े व्यावहार में बदलाव के लिए कई बार लंबा रास्ता तय करना पड़ता है।”

अध्ययनकर्ताओं में डॉ भट्टाचार्य के अलावा मालविका सक्सेना, अराधना श्रीवास्तव और प्रवेश द्विवेदी शामिल थे।

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