बेशर्म इतना है सत्ता से नत्थी जनमजात मेधा वर्चस्व कि भाषा और संस्कृति में सिर्फ पितृसत्ता की गूंज और फिर वहीं धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद दृष्टिहीन!

ऐसा नहीं है कि असहिष्णुता सिर्फ सवर्णों की होती है।

बाबासाहेब जैसे अद्भुत विद्वान राजनेता के अनुयायी भी कम असहिष्णु नहीं

पलाश विश्वास

हम दीपा कर्मकार की उपलब्धियों पर लिख नहीं रहे हैं। इस बारे में अगर आपकी दिलचस्पी है तो मीडिया के सौजन्य से आपको काफी कुछ जानकारी अब तक मिली होगी, जिसे हम दोहराना नहीं चाहते।

हम तो पालमपुर में देश भर के सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्र युवाजनों में सबसे छोटी पूर्वी उत्तर प्रदेश की शिवांजलि की बात करना चाहेंगे जो जूनियर लेवल पर भारतीय राष्ट्रीय क्रिकेट टीम के लिए खेलती है तो जंतर मंतर पर आजादी के नारे भी लगाती है, खूब पढ़ती लिखती है, खालसा कालेज दिल्ली के छात्र संघ का चुनाव लड़ कर जीत चुकी है और अब दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ का चुनाव भी लड़ना चाहती है लेकिन उसके जनसरोकार हमसे कम नहीं है। उसके खेल, उसकी पढ़ाई में उसके जनसरोकार बाधक नहीं है और यह हमारी नई पीढ़ी की नई सोच है, नई समझ है।

ये हमारी बेटियां हैं जो पितृसत्ता के खिलाफ स्वतंत्रता और न्याय के लक्ष्य के साथ खेल का मैदान भी फतह करना चाहती है।

कार्यशाला में एक दिन उसका हाथ टूट गया तो अगले दिन हमने देखा कि उसी टूटे हाथ के साथ वह खेल भी रही है। उड़ान के बच्चों के साथ। ये हमारी बेटियां हैं और हम समझते हैं कि दीपा भी कमोबेश इसी तरह होंगी।

ये बेटियां ही इस पृथ्वी को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित और बेहतर बना सकती हैं। यही हमारी कुल पूंजी है।

आज के छात्र युवा समाज के दिलोदिमाग और उनकी बहुमुखी सक्रियता के इस ऐतिहासिक काल में हमें अपने पढ़े लिखे मेधावी बुद्धिजीवी के मौकापरस्त धर्मोन्मादी तौर तरीके से कोफ्त होती है कि हम इन बच्चों से क्यों नहीं सीखते कि नागरिकता क्या होती और देश और समाज के लिए समर्पण किसे कहते हैं।

इन छात्रों और युवाओं की संवेदनाओं, हर समस्या से जूझने के उनके सरोकार, सत्ता के हर केंद्र से टकराने के उनके साहस और संवेदनाओं से सराबोर हर नागरिक और देश के हर हिस्से के हर नागरिक की चीखों की गूंज बनती उनकी आवाज से पुरानी पीढ़ियों को सीखने की जरूरत है। उनका राष्ट्रवाद उऩका विवेक है।

हम यह तब लिख रहे हैं जबकि देश वातानुकूलित विद्वतजन तेजी से केंद्र या राज्य की सत्ता से नत्थी होते जा रहे हैं और तमाम माध्यमों, विधाओं और ज्ञान विज्ञान के क्षेत्रों मे उनके ही अमोघ वर्चस्व की वजह जनविरोधी जनसंहारी सत्ता ही मजबूत होती है।

इसके हाल फिलहाल अनेक उदाहरण हैं, जिसका उल्लेख करना भी शर्मनाक है। सारी असिष्णुता की जड़ें उऩकी विद्वता में है।

एक वाकया कल कोलकाता में हुआ जो शायद बेहद शर्मनाक है।

हुआ यह कि दो ही चरणों में किले में सेंध होती नजर आने के बाद, साख ध्वस्त हो जाने के बाद, जनता की आस्था हासिल करने में नाकाम सत्ता को अपने दागी सिपाहसालारों की बजाये चमकदार चेहरों की जरूरत आन पड़ी तो उन्होंने हमारी अत्यंत आदरणीया वयोवृद्ध और अस्वस्थ महाश्वेता देवी को प्रेस के सामने वोट मांगने के लिए खड़ा कर दिया।

अभी-अभी फिल्मों और चेली सीरियलों में चमकी कुछ एकदम युवा अभिनेत्रियों के साथ महश्वेता दीदी और उनकी संगत के लिए अर्थशास्त्री अभिरूप सरकार और कवि सुबोध सरकार जैसे लोग वहां खड़े पाये गये, दागी राजनेताओं का पक्ष रखने के लिए।

मेरे ख्याल से बाकी नाम गिनाने की जरूरत नहीं है और इस पर और शब्द खर्च करना भी शर्मनाक है।

बहरहाल, रियो ओलंपिक के लिए क्वालिफाई करने वाली त्रिपुरा की दीपा कर्मकार को मैं नहीं जानता। लेकिन हमारे दिवंगत मित्र और त्रिपुरा के शिक्षा मंत्री कवि अनिल सरकार के सौजन्य से त्रिपुरा से मेरा अच्छा खासा परिचय है।

इसी तरह मेरीकाम को भी मैं नहीं जानता लेकिन हमारे फिल्मकार मित्र जोशी जोसेफ की वजह से मुझे मणिपुर को नजदीक से जानने का मौका मिला है।

किन कठिन परिस्थितियों से जूझकर दीपा और मेरी काम ने भारत के हर नागिरक को गर्वित किया है, इसे समझने की जरूरत है।

इरोम शर्मिला के 14 साल से जारी सैन्य शासन के खिलाफ, सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून के खिलाफ अनशन की निरंतरता को समझे बिना पूर्वोत्तर को समझना बेहद मुश्किल है।

हम यह भी नहीं जानते कि दीपा कर्मकार के पुरखे त्रिपुरा मूल के हैं या वे भी हमारी तरह पूर्वी बंगाल की शरणार्थी परिवार से हैं, लेकिन मैं बंगाल और त्रिपुरा के अलावा भारत भर में बसे कर्मकार बिरादरी के लोगों को बचपन से जानता समझता रहा हूं और हम समझते हैं जनमजात मेधा के रंगभेदी वर्चस्व की दीवारें तोड़कर, पितृसत्ता के निषेधात्मक अनुशासन को तोड़कर चुनौतियों को जीत लेनी की अदम्य जीजिविषा ने दीपा को विजेता बनाया है। जैलसे मेरा काम की उपलब्धियों और उनके संघर्ष की कथा हम जानते हैं।

यही बात सानिया मिर्जा के बारे में कहूं तो लोगों को सानिया की पृष्ठभूमि नजर नहीं आयेगी और उनके ग्लेमर, उनके पैसे और उनके निजी जीवन ही लोगों को समझ में आयेगा।

इसी तरह पूर्वोत्तर के बदले मैं कश्मीर में जूझती महिलाओं की बातें करुं तो शायद पढ़ने सुनने वालों में से ज्यादातर लोगों को मैं कन्हैया या खालिद की तरह राष्ट्रविरोधी हिंदू विरोधी नजर आऊंगा।

यह हमारा नजरिया है जो मनुष्यता को भी उसकी पहचान के मुताबिक तौलता है।

हम उपलब्धियों के भी जाति धर्म क्षेत्र और भूगोल के तहत सियासती या मजहबी पैमाने से तौलते हैं।

यह बेहद खतरनाक है।

यही वजह है कि इरोम शर्मिला का बेमिसाल बलिदान और उनका अभूतपूर्व संघर्ष का हमने सम्मान करना नहीं सीखा और देश के अलग अलग हिस्सों में मनुष्यता पर बर्बर अमानुषिक मुक्तबाजारी सैन्य राष्ट्र के हमलों को हम अंध राष्ट्रवाद के चश्मे से देखते हैं।

यह हमारी दृष्टि की सीमाएं हैं। तो यह सीमाबद्धता हमारी नागरिकता, हमारी भाषा, हमारी संस्कृति, हमारे ज्ञान विज्ञान इतिहास बोध, शिक्षा दीक्षा और विवेक का मामला है।

हाल में हमने जब राजस्थान के दलित बच्चों की पिटाई के मामले को उठाते हुए नंगे जख्मी बच्चों की तस्वीर जारी की तो देश भर से खासकर दलितों और पिछड़ों ने उसका संज्ञान लिया और हस्तक्षेप पर सिर्फ फेसबुक लाइक साढ़े सोलह हजार अब तक है। लेकिन बाकी मुद्दों पर फिर वे लोग मूक बधिर हैं।

मसलन हमारे भाई दिलीप मंडल हमसे कहीं ज्यादा मशहूर हैं और वे दलितों पिछड़ों और बहुजनों के बारे में लिखते रहते हैं। फेसबुक पर उनके किसी भी पोस्ट पर लंबी चौड़ी प्रतिक्रिया होती है।

हम दिलीप को बेहद नजदीक से जानते हैं और यह भी जानते हैं कि वे सटीक लिखते हैं और सोशल मीडिया के अलावा वे कारपोरेट मीडिया के भी कामयाब पत्रकार हैं।

अफसोस यह है कि उनके लिखे पर प्रतिक्रिया विशुद्ध जाति आधारित होती है। दलित और पिछड़े तो बेहद खुश होते हैं लेकिन सवर्णों में तीखी प्रतिक्रिया होती है।

हमारे लिखे की हम बात नहीं कर रहे हैं और न हम अपने उन मित्रों के लिखे की बात कर रहे हैं जो सत्ता पक्ष के खिलाफ लामबंद हैं और हमेशा ज्वलंद मुद्दों को संबोधित करते हैं।

हम अपने गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी की बात कर रहे हैं जो जाति धर्म के पूर्वग्रह से मुक्त विशुद्ध आस्थावान हिंदू की तत्सम भाषा में अपनी संस्कृति लोक जमीन से इतिहास बोध की बात करते हैं बिना किसी पूर्वग्रह के, जिसमें किसी राजनीतिक रंग होता नहीं है। उन्हें पढ़ने में बहुजनों को हिचकिचाहट होती है, तो सवर्ण भी नहीं पढ़ते।

इसी तरह हमारे बहुजनवादियों को नजर नहीं आता कि हम देशव्यापी जनसुनवाई के लिए बहुजनों की पीड़ा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं हस्तक्षेप पर और अंबेडकरी विचारधारा और मिशन को आगे बढ़ाने में हम निरंतर सक्रिय है क्योंकि हस्तक्षेप के संपादक जनमजात ब्राह्मण हैं और बहुजनों को उन पर भरोसा नहीं है। इसलिए हमारी बार-बार अपील करने के बावजूद हमारे साथ हमारे अंबेडकरी मित्र नहीं हैं।

हम उन तमाम लोगों को जानते हैं जो समाज सेवा के नाम पर, बाबासाहेब के मिशन के नाम पर या खालिस राजनीति के नाम पर सालाना एक एक करोड़ का चंदा दे सकते हैं और देश भर में ऐसे अनेक लोग हैं जो प्रतिबद्ध और ईमानदार भी हैं और उनमें से दस पंद्रह लोग भी खड़े हो जायें हमारे साथ तो कारपोरेट मीडिया का हम मुकाबला कर सकते हैं, लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे हैं।

रंगभेदी वर्ण व्यवस्था के महातिलिस्म को तोड़कर समता और न्याय का लक्ष्यहासिल करने के लिए पूर देश और दुनिया को जोड़ने के लिए हमें सभी मुद्दों, सभी विषयों, सभी भाषाओं, सभी संस्कृतियों और भौगोलिक इकाइयों के सभी जनसमुदाओं से संवाद करना ही होगा और उनकी समस्याओं को समझना होगा और जाति मजहब के सीमित दायरे के आर पार राजनीति से ऊपर उठकर वस्तुनिष्ठ विधि से उन तमाम समस्याओं की गुत्थियों को सुलझाना पड़ेगा, जिन पर सत्ता वर्ग का निर्णय ही निर्णायक होता है और हमारा उसमें कोई हस्तक्षेप होता नहीं है क्योंकि उन मुद्दों से हमारा लेना देना नहीं है। हम तो हर हाल में सत्ता के साथ खड़े हैं।

सामान्य जनता की रहने दें, पढ़े लिखे बड़ी बड़ी डिग्रियों से लदे फंदे ज्ञान विज्ञान और तकनीक की विविध धाराओं से जो लोग जुड़े हैं, उनकी दिलचलस्पी किसी तरह के संवाद में नहीं है और उनकी भाषा में गालियों की ऐसी बौछार है, ऐसे-ऐसे फतवे हैं कि जानवर भी अगर पढ़ना लिखना सीख जायें तो उन्हें शर्मिदा होना पड़ेगा।

यह हमारी सभ्यता और संस्कृति है।

अभी पढ़े लिखे लोग कश्मीर के मुद्दे पर बात करना देशद्रोह से कम नहीं समझते और चाहते हैं कि आजाद कश्मीर भी अखंड हिंदू राष्ट्र का हिस्सा बन जाये लेकिन कश्मीर के लोगों के दुःख दर्द का रोजनामचा साझा करते ही उनका बयान है कि कश्मीर को सीधे सेना के हवाले कर देना चाहिए क्योंकि उनकी नजर में हर मुसलमान और खासकर हर कश्मीरी राष्ट्रद्रोही है

हमें आप गाली दें, इससे कोई फर्क नहीं पडता क्योंकि हम इसे आपकी प्रतिक्रिया ही मानते हैं। लेकिन इस रवैये के साथ इस देश का आप क्या बना रहे हैं, इस पर तनिक ठंडे दिमाग से सोचें।

ऐसा नहीं है कि असहिष्णुता सिर्फ सवर्णों की होती है।

सवर्णों में फिर भी एक प्रगतिशील उदार तबका है लेकिन बाबा साहेब जैसे अद्भुत विद्वान राजनेता के अनुयायी भी कम असहिष्णु नहीं है। जिसका सबूत जाति और आरक्षण के मुद्दों को छोड़कर बाकी मुद्दों पर उनकी संवादहीन खामोशी है।

आदिवासियों, कश्मीर और पूर्वोत्तर के मुद्दों को लेकर बहुजनों का अंध राष्ट्रवाद हमारे लिए सरदर्द का सबब है कि हम आखिर किस बदलाव की बात कर रहे हैं और सिर्फ चेहरे बदल रहे हैं, राजनीतिक रंग बदल रहे हैं जबकि देश और समाज निरंतर कबीलाई होता जा रहा है और हमारा आचरण मध्ययुगीन होता जा रहा है।

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