देश की एकता और अखण्डता के बिल्कुल विपरीत है आरएसएस का रास्ता
देश की एकता और अखण्डता के बिल्कुल विपरीत है आरएसएस का रास्ता
(6 दिसंबर 1992 - संघ परिवार की भीड़ ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। इसके लगभग दो साल पहले से उन्होंने राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के नाम पर जो भयावह सांप्रदायिक उत्तेजना पैदा की वह इस घटना के बाद भी लंबे समय जारी रही। उसी पृष्ठभूमि में जाने-माने आलोचक अरुण माहेश्वरी ने शोध करके सन् 1993 में एक किताब लिखी - ‘आरएसएस और उसकी विचारधारा’। इस किताब के दो संस्करण नई दिल्ली से नेशनल बुक सेंटर से प्रकाशित हुये और बाद में राधाकृष्ण प्रकाशन से छपती रही है।
अरुण जी ने फेसबुक पर अपनी एक संक्षिप्त टिप्पणी के साथ इस किताब का एक अंश पोस्ट किया है जो पठनीय है। यहाँ हम साभार उनकी टिप्पणी के साथ वह पुस्तक अंश दे रहे हैं-
“तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है। सच यह है कि रामजन्म भूमि आंदोलन के रथ पर सवार होकर ही 1998 और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। और उस सरकार की सबसे बड़ी कीर्ति सन् 2002 में सामने आई जब गुजरात के जनसंहार ने सारी दुनिया के सामने भारत के सर को हमेशा के लिये झुका दिया।
बहरहाल, बाबरी मस्जिद को ढहाने और 2002 के गुजरात दंगों की तरह के अक्षम्य अपराधों के दोषी भारतीय जनता पार्टी और उसका सरगना आरएसएस आज गुजरात जन-हत्या के नायक को ही सामने रख कर आगामी लोक सभा चुनाव में उतर रहे हैं।
जिस समय हमने किताब लिखी, उसकी पृष्ठभूमि में बाबरी मस्जिद की घटना थी, उस किताब का मकसद था - आरएसएस की तरह के एक रहस्यमय संगठन के पूरे सच को उजागर करना। इसीलिये आज भी उस किताब की उपयोगिता कम नहीं हुयी है।
इधर मोदी के नाम से जो एक खास प्रकार की परिघटना दिखायी पड़ती है, वह उस किताब के निष्कर्षों की पुष्टि ही करती है। फिर भी मोदी से जुड़े घटनाक्रम को भी विश्लेषित करते हुये इस विषय के अध्ययन को अद्यतन बनाया जा सकता है। आने वाले दिनों में इसकी कोशिश करूँगा, और अपनी किताब के नये संस्करण में इस परिघटना को भी समेटने की कोशिश करूँगा। लेकिन फिलहाल, अपने फेसबुक के मित्रों के लिये उस किताब का एक अध्याय - ‘आरएसएस और व्यवसायी वर्ग’ दे रहा हूँ। नरेन्द्र मोदी से जुड़ी कई बातों को समझने के अनेक सूत्र इससे मिल सकते हैं। )
अरुण माहेश्वरी
आर. एस. एस. और व्यवसायी वर्ग
व्यवसायियों के साथ आरएसएस का हमेशा एक गहरा सम्बन्ध देखा जाता है। बिल्कुल शुरू के दिनों में ही गोविन्द सहाय ने अपनी पुस्तक में इस पहलू पर थोड़ा प्रकाश डाला था। उन्होंने क्लर्कों के साथ ही मध्यमवर्गीय दुकानदारों के आरएसएस की ओर आकर्षित होने के एक मनोवैज्ञानिक कारण की बात कही थी। उन्होंने लिखा था कि ये वर्ग दमित आकाँक्षाओं से पीड़ित एक हद तक निराश तबके होते हैं और हमेशा शक्तिशाली बनने की कामना करते हैं। आरएसएस की तरह का संगठन उनके सपाट और ढर्रेवर जीवन में थोड़ा वैविध्य ला देता है, पारिवारिक जीवन की निराशाओें और दमित वासनाओं से उत्प शून्य को थोथी बहादुरी और सैनिक आचरण से एक हद तक भरा करता है, इसीलिये वे सहज ही इस संगठन की ओर आकर्षित हो जाते हैं।
हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान का विचार, अन्यथा पूरी तरह से अनुशासनहीन जीवन में एक अनुशासन लाने की इच्छा, रोमांचक खेलों तथा व्यायामों का रोमांच और आकर्षण और सर्वोपरि, महान संघ की विस्मयजनक आध्यात्मिकता या अबूझ रहस्यात्मकता इस वर्ग के लोगों के लिये काफी बड़ा आकर्षण साबित होती है। ...व्यक्ति के जीवन में निजी स्वार्थ सबसे बड़ी चालक शक्ति होती है, इसके दबाव में निराश क्लर्क, जो अक्सर यह सोचता है कि स्वतन्त्रता ने उसके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं किया है, यह कल्पना करने लगता है कि विभाजन के बाद यदि मुसलमानों को खदेड़ दिया गया होता तो शायद उन्हें ज्यादा लाभ होता। इस प्रकार दुकानदार यह मानने लगता है कि यदि उनके व्यवसाय से मुसलमानों को निकाल बाहर कर दिया जाता तो उनके लिये अधिक सम्भावना के द्वार खुल जाते। (गोविन्द सहाय, पूर्वोक्त, पृ. 22-23)
इसके अलावा गोविन्द सहाय ने अपने ढंग से पूँजीपतियों, जमींदारों तथा अन्य निहित स्वार्थी तत्वों के संघ के प्रति आकर्षण के कारणों की ओर भी संकेत किया था। उन्होंने लिखा था : “पूँजीपति, जमींदार तथा अन्य निहित स्वार्थी भी कुछ हैं जो निजी कारणों से कांग्रेस के ‘किसान-मजदूर राज’ के आदर्श से डरते हैं। अपने संकीर्ण वर्गीय हितों के निष्ठुर तर्क से चालित ये लोग भी संघ को एकमात्रा ऐसा संगठन मानते हैं जो सत्ता से कांग्रेस सरकार को हटा सकता है और इस प्रकार जनतन्त्र के क्रोध और आक्रोश से उन्हें बचा सकता है।“ (वही, पृ. 23-24)
गोविन्द सहाय खुद ए आइ सी सी के सदस्य थे। अन्य अनेक कांग्रेसजनों की तरह तब तक शायद उनको भी वहम था कि कांग्रेस सरकार किसी ‘किसान-मजदूर’ राज के लिये काम कर रही है। लेकिन जहाँ तक पूँजीपतियों के एक हिस्से का आरएसएस की ओर खिंचाव का प्रश्न है, उनका कहना काफी हद तक सही था।
कांग्रेस भले ही किसानों-मजदूरों का राज कायम न करें, लेकिन जमींदारों और पूँजीपतियों को लगता था कि आजादी के बाद जनतन्त्र नाम की बला से कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों को बढ़ावा मिल रहा है। इन शक्तियों को वे अपने सामाजिक प्रभुत्व के लिये भारी खतरा मानते हैं। इसीलिये जनतन्त्र से भी वे नफरत करते हैं।
इस तथ्य को जे.ए. करान ने भी अपने शोध में रेखांकित किया है। करान की बातों से एक ओर जहाँ यह साफ है कि 1950 के काल में ही बड़े व्यवसायी घरानों के एक हिस्से का आरएसएस के साथ सम्पर्क स्थापित हो गया था, वहीं इन सम्पर्कों के मूल में काम कर रहे इन व्यवसायियों के दृष्टिकोण का भी साफ पता चलता है।
अपने शोधकार्य के लिये करान जब ’50-’51 के दौरान डेढ़ वर्षों तक आरएसएस के लोगों से घनिष्ठ सम्पर्क बनाकर उसके बारे में जानकारियाँ इकट्ठी कर रहे थे, उसी काल में एक बहुत ही ‘महत्त्वपूर्ण व्यवसायी’ से हुयी बातों का हवाला देते हुये करान ने लिखा था कि एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यवसायी तथा संघ के काफी करीबी समर्थक ने लेखक से (करान से - अ.मा.) हाल में कहा कि ‘यदि अमरीका भारत को स्तालिन एण्ड कम्पनी के खतरे से बचने में मदद करना चाहता है, तो उसे निश्चित तौर पर आरएसएस की मदद करनी चाहिए’। (जे.ए. करान, पूर्वोक्त, पृ. 36)
यहीं पर करान ने आरएसएस के लोगों के मन में कम्युनिस्टों के प्रति चरम नफरत का भी उल्लेख किया है।
सच्चाई यह है कि आरएसएस का कभी भी अपना कोई आर्थिक कार्यक्रम नहीं रहा। यहाँ तक कि जब उसने जन संघ और फिर भारतीय जनता पार्टी की तरह की राजनीतिक पार्टियाँ भी बनाई, तब इन पार्टियों का भी कोई आर्थिक कार्यक्रम नहीं बन सका। आर्थिक कार्यक्रम के बारे में इनके नेताओं का कैसा विचित्र रुख रहा है, यह उनके नेता अटल बिहारी वाजपेयी के एक कथन से पता चल जाता है। सन् 1984 के लोकसभा चुनाव के वक्त कुछ संवाददाताओं ने भाजपा के चुनाव घोषणापत्र के सिलसिले में उनसे यह सवाल किया था कि कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र में तो विस्तार के साथ आर्थिक कार्यक्रम को रखा गया है, लेकिन आप लोग इस बारे में बिल्कुल मौन दिखायी देते हैं, तो इसके जवाब में उन्होंने चुटकी लेते हुये कहा कि अरे इसमें क्या रखा है। जब कभी हम सत्ता में आएँगे तो नौकरशाहों की मदद से आपके सामने आर्थिक कार्यक्रम का पूरा पोथा पेश कर देंगे।
करान ने 1951 में ही आर्थिक क्षेत्र में आरएसएस का अपना कोई कार्यक्रम न होना इसकी एक बड़ी कमजोरी बताया था और लिखा था : ”संघ की बड़ी कमजोरी उनके पास किसी विशेष आर्थिक कार्यक्रम का अभाव है। अन्य राजनीतिक समूह इस मामले में उनसे बेहतर स्थिति में है। आरएसएस के लिये यह एक गम्भीर कमजोरी साबित हो सकती है, यद्यपि संघ के नेतागण इसकी गम्भीरता को महत्त्व नहीं देते। उनका मानना है कि इस प्रकार का कोई कार्यक्रम पेश करना जरूरी नहीं है क्योंकि वे एक खास प्रकार की मानसिकता तैयार कर रहे हैं और अन्य परम्परागत राजनीतिक पार्टियों की तरह सत्ता नहीं चाह रहे हैं। जब हिन्दू सम्प्रदाय उनके दृष्टिकोण को अपना लेगा तब उन्हें प्रभुत्व हासिल हो जायेगा। संघ के नेता इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं कि एक बार यदि आरएसएस के दर्शन की आधारशिला पर हिन्दू समाज का गठन हो जाता है तो अपने आप ही एक उपयुक्त आर्थिक व्यवस्था विकसित हो जायेगी।“ (जे.ए. करान, वही, पृ. 72)
आर्थिक मामलों पर आरएसएस के दृष्टिकोण की यही सच्चाई है। आज भी यदि किसी संघी से आप राष्ट्र के विकास के उनके भावी कार्यक्रम के बारे में पूछे तो वह यही कहेगा कि एकबार हिन्दू जाग जाये, अपने-आप विकास के द्वार खुल जाएँगे। दीनदयाल उपायाय का एकात्म मानववाद का दर्शन भी सिर्फ लीपा-पोती ही है, उसमें ठोस कुछ नहीं है। जहाँ तक आरएसएस के मूल दर्शन का प्रश्न है, हमने पहले ही हेडगेवार और गोलवलकर के उद्धरणों से बताया है कि वे वर्णाश्रम धर्म को ही हिन्दू धर्म मानते थे और यह विश्वास करते थे कि आनेवाले समय में भी हिन्दू समाज का पुनर्गठन मनुस्मृति के सिद्धान्तों पर ही होगा। अभी वे अपनी इस उद्देश्य को पूरी तरह खोलकर रखना नहीं चाहते अन्यथा हिन्दुओं का बड़ा तबका, जो अनुसूचित जातियों और पिछड़े हुये वर्गों का है, बिदक कर इनकी गिरफ्त से हमेशा के लिये दूर चला जायेगा।
आर्थिक मामलों में आरएसएस और उसके संघ परिवार की नीतियों की पहचान उनके किसी सकारात्मक आर्थिक कार्यक्रम से नहीं, बल्कि कुछ मामलों में उनकी चरम नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से होती है। मसलन वे कम्युनिज्म के कट्टर विरोधी हैं। एक समय में भाजपा ने गांधीवादी समाजवाद का नारा जरूर दिया था, लेकिन सच्चाई यही है कि समाजवाद की तरह की किसी भी समतावादी विचाराधारा पर उनका कोई विश्वास नहीं है। गोलवलकर हमेशा प्रकृति के सामंजस्य को असमानता पर टिका हुआ बताते थे और कहते थे कि इसमें समानता लाने की कोशिश प्रकृति के ध्वंस की कोशिश होगी। यही बात उनके अनुसार समाज पर भी लागू होती है।
आरएसएस का यह कट्टर कम्युनिस्ट विरोध पूँजीपतियों के लिये सबसे बड़े आकर्षण की वस्तु रहा है। जिस प्रकार जर्मनी में उद्योगपतियों का एक हिस्सा कम्युनिस्टों पर हमले करके उन्हें समाप्त करने के उद्देश्य से ही नग्न रूप में हिटलर के तमाम जनतन्त्र विरोधी कामों में सहयोगी बना हुआ था, वही स्थिति कुछ हद तक भारत में आरएसएस के प्रति पूँजीपतियों के रुझान से जाहिर होती है।
आरएसएस के समर्थकों का बड़ा हिस्सा चूँकि मध्यमवर्गीय क्लर्कों एवं दुकानदारों का रहा है, इसलिये बड़े पूँजीपतियों के साथ अपने सम्बन्धों को उसका सर्वोच्च नेतृत्व हमेशा छिपाता रहा है। अन्य लोगों ने इस ओर संकेत अवश्य किये, किन्तु आरएसएस के कार्यकर्ता यही समझते रहे हैं कि उनके संगठन को पूँजीपतियों से कोई धन नहीं मिलता। गंगाधर इन्दूरकर ने अपनी पुस्तक में संघ के स्वयंसेवकों के ऐसे वहम को ही व्यक्त किया है जब उन्होंने लिखा कि आरएसएस पूँजीपतियों से प्राप्त धन पर नहीं चलता।
हेडगेवार ने जब गांधी जी को कहा कि संघ का खर्च स्वयंसेवकों द्वारा स्वेच्छा से दी जाने वाली गुरुदक्षिणा से चलता है, तो गांधी जी को इस कथन में झूठ के सिवाय और कुछ नहीं दिखायी दिया था। इस घटना का हम पहले उल्लेख कर आये हैं। पूँजीपतियों से संघ को दूर मानने वाले इन्दूरकर ने अपनी पुस्तक में ही बाद में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के चाल-चलन के बारे में गहरा सन्देह व्यक्त किया। उनके शब्दों में : “आज भारतीय जनता पार्टी के कई नेता ऐसे हैं, जिनका व्यक्तिगत आलीशान खर्च कैसे चलता है, वह पैसा कहाँ से आता है, आदि प्रश्न रहस्य बने हुये हैं। उसके सम्बन्ध में कोई प्रणाली है क्या? जनता कार्यकाल में जनसंघ की ओर से मुख्यमंत्री बने ब्रजलाल वर्मा, जो मध्य प्रदेश में काफी समय तक मुख्यमन्त्री पद पर रहे, वीरेन्द्र कुमार सकलेचा, दिल्ली के विजय कुमार मलहोत्रा, केदारनाथ साहनी, मदनलाल खुराना आदि के सम्बन्ध में जो कहा जा रहा है, उसमें चरित्र हनन की दृष्टि से होनेवाली अतिशयोक्ति का अंश हो सकता है, पर साधारण व्यक्ति की भी यह समझ में नहीं आता कि उनकी आय और खर्च का मेल कैसे बैठाया जाये। विचारधारा की दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जन संघ और भाजपा के नजदीक जो लोग हैं, ऐसे कई जिम्मेदार लोगों से मैंने बात की है। पर किसी ने भी मुझसे यह नहीं कहा कि यह पूरी तरह झूठ है।“ (गंगाधर इन्दूरकर, पूर्वोक्त, पृ. 129)
इन्दूरकर ने यह पुस्तक 1982 में मराठी में लिखी थी जिसका हिन्दी में अनुवाद 1985 में प्रकाशित हुआ था। उसे बाद के 10 वर्षो में तो गंगा में काफी पानी बह गया है। पिछले 5 वर्षों में विश्व हिन्दू परिषद ने राम जन्मभूमि आन्दोलन के नाम पर पूँजीपतियों से जो करोड़ों, अरबों रुपये बटोरे यह बात किसी से छिपी हुयी नहीं है। और तो और, खुद लाल कृष्ण आडवाणी इसी दौरान 1991 में कलकत्ते में बी एम बिड़ला के व्यक्तिगत मेहमान बनकर गये थे। सन् 1991 के चुनाव के पहले शहर-शहर घूमकर उन्होंने पूँजीपतियों के साथ अलग से बैठकें की और करोड़ों रुपये भाजपा के लिये बंटोरे। कई बड़े-बड़े पूँजीपति खुले आम विहिप और भाजपा के नेता बन गये हैं। पूँजीपतियों के एक बड़े तबके के साथ भाजपा के काफी घनिष्ठ सम्बन्ध बन गये हैं। इनमें से एक अम्बानी घराना भी कहा जाता है। स्थिति यह है कि संविाधन की मर्यादाओं का खुला उल्लंघन करके बाबरी मस्जिद को ढहाने का अपराध करने के बाद भी जब उत्तर प्रदेश के भाजपा के पूर्व मुख्यमन्त्री कल्याण सिंह इसी फरवरी 1993 को कलकत्ता आये तो उनके स्वागत में यहाँ के पूँजीपतियों के एक हिस्से ने पलक पावड़े बिछा दिये और उन्हें एक दावत भी दी।
इस प्रकार ऐसा जान पड़ता है कि फासिस्ट संगठन के रूप में जैसे-जैसे भाजपा की उग्रता और उसका प्रभाव बढ़ रहा है, पूँजीपतियों का एक बड़ा तबका उसके साथ उतने ही नग्नरूप में जुड़ा हुआ दिखायी दे रहा है। भारत में साम्प्रदायिक फासीवाद के बढ़ाव में यहाँ का पूँजीपति वर्ग खुलकर योगदान कर रहा है। आज संघ परिवार के साथ भारत के पूँजीपतियों की घनिष्ठता की जो सूरत दिखायी दे रही है वह अनायास ही हिटलर के साथ जर्मनी के पूँजीपतियों के सम्बन्धों की याद को ताजा कर देती है। यहाँ हमारे लिये जर्मनी के इतिहास के उन पृष्ठों को उलटना बहुत ही उपयोगी होगा क्योंकि प्रश्न सिर्फ पूँजीपतियों के साथ फासीवाद के सम्बन्ध को जानने का ही नहीं है, इन सम्बन्धों के चलते मनुष्यता को कौन-कौन से दु:ख उठाने पड़े, और तो और, खुद पूँजीपतियों को ही इससे क्या हासिल हुआ, इतिहास से इसके सबक लेना जरूरी है।
शिरेर की किताब में हिटलर और जर्मनी के पूँजीपतियों के बीच सम्बन्धों का बहुत सजीव चित्र मिलता है। हिटलर के पतन के बाद नाजी पार्टी के बचे हुये नेताओं पर युद्ध के जघन्य अपराधों के लिये न्यूरेमबर्ग में मुकदमा चलाया गया था। इतिहास में यह मुकदमा न्यूरेमबर्ग मुकदमे के नाम से प्रसिद्ध है जिसके अन्त में कुछ को मृत्युदण्ड और अनेक लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी। इन अपराधियों में एक व्यक्ति था बाल्थर फंक। वह जर्मनी के एक प्रमुख आर्थिक अखबार बर्लिनर बोरसेन जेतुंग का एक समय सम्पादक था। सम्पादन के इस काम को छोड़कर वह नाजी पार्टी में शामिल हो गया तथा नाजी पार्टी और जर्मनी के महत्त्वपूर्ण व्यापारी घरानों के बीच वह सम्पर्क-सूत्रा की तरह काम किया करता था। न्यूरेमबर्ग मुकदमे की सुनवाई के दौरान उसने बताया था कि उसके कई उद्योगपति मित्रों ने, खासतौर पर राइनलैण्ड की बड़ी-बड़ी ख


