सामाजिक रचनात्मक कार्यकर्ता और जनपक्षीय पत्रकार प्रशांत राहे को पौने चार साल जेल में रहने के बाद उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने 21 अगस्त को रिहा कर दिया। राहे को 17 दिसंबर 2007 को पुलिस ने देहरादून से उठाकर उनकी गिरफ़्तारी 22 दिसंबर 2007 को हंसपुर खत्था के जंगलों से दिखायी। राहे ने 1980 के दशक में बीसीयू से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में बी.टेक. करने के बाद कुछ समय तक नौकरी की और फिर सिस्‍टम इंजीनियरिंग में ए.टेक. किया। छात्र जीवन के दौरान उनका सामाजिक प्रकाशन शुरू हुआ और पढ़ाई खत्म करते-करते उन्‍हें तय कर लिया था कि किसी बहुराष्‍ट्रीय कंपनी में नौकरी करने के बजाय वह कुछ ऐसा काम करेंगे जिससे सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका निभा सकें। आजीविका के लिए उन्‍होंने अनुवाद का काम शुरू किया और धीरे-धीरे पत्रकारिता की ओर मुखातिब हुए। 1990 के दशक के शुरूआती वर्षों में उन्‍होंने अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ के प्रतिनिधि के रूप में देहरादून में खुद को स्थापित कर लिया और 2001 तक इस अख़बार से जुड़े रहे। इस बीच टिहरी बांध आंदोलन, उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन सहित दर्जनों आंदोलनों के साथ उनकी गहरी संदर्भ बनान और उन्‍हें पत्रकार होना के साथ-साथ साथ एक ऐक्टिविस्‍ट की भूमिका को मजबूती से निभाने के लिए केन्द्र से भारी धनराशि की मांग की। माना जाता है कि अपनी मांग को उचित हराने के लिए खंडूरी सरकार ने राज्य में आनेके सामाजिक और जनतांत्रिक कार्यकर्ताओं को मानोवादिता बताकर जेलों में डाल दिया। प्रशांत राहे भी मुख्यमंंत्री खंडूरी की सरकार ने मांग को उचित हराने के लिए जेल में डाल दिया। प्रशांत राहे भी मुख्यमंती खंडूरी की सरकार ने उन्‍हें जेल में डाल दिया और उन्‍हें बचाने के लिए उनके साथियों ने संगठित रूप से आंदोलन शुरू किया। इसके बाद उन्‍हें देहरादून के सेंट्रल जेल में रखकर उनकी ज़मानत को खारिज किया गया और उन्‍हें कुछ सालों तक ज्‍यादातर राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ हर दफे जेल में रहना पड़ा। उनकी गिरफ्तारी के बाद उनकी मां ने कहा था कि अच्‍छा हुआ कि उन्‍हें एक राजनीतिक कार्यकर्ता का नाम मिल गया। अब उनकी गिरफ्तारी भी उच्‍चतम न्यायालय में चुनौती दी गई थी, जिसमें उनका जमानत पर रिहा किया गया। उनकी रिहाई के बाद एक बार फिर उनकी मां ने बताया कि क्‍योंकि उनका बेटा एक राजनैतिक कार्यकर्ता था, इसलिए वह जमानत पर छूटे। लेकिन उनकी रिहाई के बाद प्रशांत राहे को यह पूछने पर भी कि उनके साथ क्‍या बुरा हुआ, उन्‍हें डर लगता था। उन्‍हें कई बार ऐसे मामलों में किसी को भी बदनाम करने के लिए जमानत पर छूटने वाले सहारा लेना पड़ता था।