देश बेचने का लाइसेंस दरअसल जनादेश है।
देश बेचने का लाइसेंस दरअसल जनादेश है।
मनुस्मृति का नस्ली नरसंहारी, यह राजकाज सिर्फ जमींदारियों और रियासतों के मालिकान के वंशजों के वर्चस्व के लिए!
बनियों की सरकार किसानों के बाद खुदरा कारोबार के सफाये में लगी और एफडीआई से बिजनेस और इंडस्ट्री का भी सत्यानाश, क्योंकि मुनाफावसूली सिर्फ महाजिन्न के मालिकान करेंगे!
मारे जायेंगे आम लोग, अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़े, आदिवासी बहुजन गैरहिंदू तो मारे जायेंगे आम सवर्ण भी!
न ब्राह्मण बचेंगे, न राजपूत और भूमिहार!
जो बजरंगी मौत की दस्तक से अब्दुल्ला दीवाना है!
Knock! Knock!Knock!. नी करी दी हालो हमरी निलामी, नी करी दी हालो हमरो हलाल।
पलाश विश्वास
केसरिया इतिहास तो जंतर मंतर में बन ही गया जब सरहदों पर जान की बाजी लगाकर देश की एकता और अखंडता की रक्षा करने वाले वफादार फौजी राष्ट्र की ओर से दिये पदक मनुस्मृति की तर्ज पर जलाने लगे।
अंध राष्ट्रवाद की सियासती मजहब और मजहबी सियासत की फौजों को न शर्म आयी और न शर्मिंदा है बिहार में नीतीशे कुमार जनादेश के बाद एकमुश्त देश में उद्योग कारोबार, बेसिक जरुरतों और सेवाओं, बिजली पानी, शिक्षा चिकित्सा, खुदरा कारोबार, मीडिया, संचार, परिवहन, निर्मान विनिर्माण, उड़ान और समुद्रपथ से लेकर रक्षा तक विदेशी पूंजी के हवाले करने वाले नवउदारवाद के कल्कि अवतार को। न स्वदेश और हिंदुत्व के पतंग उड़ाने वालों को शर्म है।
जनादेश की किसे परवाह है?
जनादेश की औकात क्या है?
जबकि नागरिक गुलाम हैं?
जनादेश कुल मिलाकर धार्मिक ध्रुवीकरण या जाति समीकरण की फसल है। उस जनादेश के एटीएम, सत्तादल के खजाने, सत्ता के पैकेज और पुरस्कार, हैसियत की मलाई का हिस्सा कितने फीसद लोगों को मिलता है, कितनों में बंटती हैं जागीरें और कितने लोग सिपाहसालार, सूबेदार, मनसबदार, कोतवाल वगैरह बन पाते हैं और इसकी उत्पादन और विकास दरें क्या हैं।
हिंदुओं की छह हजार जातियों समेत भारत भर के तामम मजहबों, नस्लों, गैरहिंदुओं और आदिवासियों का हाल हकीकत मालूम करें तो कुल मिलाकर सौ जातियां भी नहीं, गैरहिंदुओं के और आदिवासियों के दस-दस समुदाय भी नहीं हैं जो कायदे से दिवाली ईद करम ओनम वगैरह-वगैरह मनाने की हैसियत में हैं और जिनके बच्चों को रोजगार मिलता है।
आरक्षण और कोटा पर भी मजबूत जातियों की रंगदारी चलती हैं। ऐसी जातियां सौ भी नहीं होंगी।
गौर करें, जातियां सिर्फ शूद्रों और अछूतों की होती हैं।
बाकी वर्ण हैं तीन।
छह हजार जातियों में से कृपया उन जातियों की सूची जारी करें जिन्हें आरक्षण और कोटे का लाभ मिलता है। आदिवासियों में किन्हें यह लाभ मिला है, यह भी बता दें। 1991 के बाद क्या मिला।
दरअसल हम, भारतीय नागरिक जाति धर्म की पहचान से वे मूक हैं तो वधिर भी हैं और अंधे भी।
इसीलिए हम इस देश को मृत्यु उपत्यका बनाने वालों की फौजों में स्वयंसेवक हैं।
हाल यह है कि एकदफा कोई चुनाव जीत कर सिंहासन पर बैठ गया तो बाकी देश उनके बाप दादों की जमींदारी है, जलाकर खाक कर दें या उठा उठाकर बेच दें।
देश बेचने का लाइसेंस दरअसल जनादेश है।
केंद्र में तो किसी तरह सत्ता हासिल होनी चाहिए बाकी फिर लोकतंत्र नौटंकी है। नगाड़े ढोल बजते रहेंगे और गाना बजाना खूब होगा।
फिर होगा वहीं, जो राम रचि राखा। सरकार अल्पमत में हो या बहुमत में, सूबों में एक के बाद एक जनादेश खिलाफ हो, तो भी संसार के सारे सांढ़ और सारे के सारे अश्वमेधी घोड़े बेलगाम हैं।
हमारी आंखों में पट्टी बंधी हुई है और सियासती मजहब या मजहबी सियासत के संस्थागत फासीवाद के मुख्यालय के तिलिस्मों, चक्रव्यूहों और सोने के पिंजड़ों में फंसे हुए समझ रहे हैं कि सब कुछ ठीक ठाक है।
नुकसान की भरपाई के लिए जो चेहरे बगावत के तेवर में हैं, वे ही चेहरे कल तक कहर बरपाते रहे हैं और आज के कयामती नजारे के वे ही सबसे महान कलाकार हैं। रचनाकार हैं। कयामत उनकी भाषा है। कयामत का यह मंजर उनका व्याकरण, सौदर्यबोध है।
युद्ध अपराध उनका भी कम नहीं है, जो मार्गदर्शक हैं, राजधर्म बता रहे हैं। हम सन सैंतालीस से राजधर्म का यह अखंड पाठ भक्तिभाव से सुन रहे हैं और दसों दिशाओं में कयामत की बहार है।
खून की नदियां बहने लगी हैं फलक फाड़कर और हिमालय समुंदर तलक, महाअरण्यबी आग के हवाले हैं। ज्वालामुखी दहकने लगे हैं और सारे जलस्रोत बंधे हुए रेडियोएक्टिव हैं।
सन सैंतालीस से रघुकुल रीति यह चली आ रही है।
हम सारे लोग अपनी-अपनी जात के नाम, अपने अपने धर्म के नाम, अपनी-अपनी भाषा और क्षेत्र के नाम आपस में दंगा फसाद का बवंडर को लोकतंत्र मानकर यह नर्क जी रहे हैं और जमींदारियां, रियासतें सही सलामत हैं।
बंटवारे के बावजूद उनका कुछ भी बंटा नहीं है और हमें फिर-फिर बंटवारे का, दंगा फसाद का शिकार बनाया जा रहा है। बंटवारा जारी।
उनका कोई कहीं दंगा फसाद, राजनीतिक हिंसा में मारा नहीं जाता। मारने वाले भी हमारे लोग हैं और मरने वाले भी हमीं।
केंद्र और राज्यों में दरअसल धर्म और राजनीति, धर्मनिरपेक्षता और प्रगति, वाम और दक्षिण के नाम धर्म और राजनीति पर वंश वर्चस्व कायम है। वंश वर्चस्व ही मनुस्मृति अर्थव्यवस्था है, जिसके अनुशासन के तहत कर्मफल हमारी नियति, हमारी जाति है।
रीढ़ हममें होती नहीं दरअसल, न होते हैं दिलोदिमाग जो गुलामों के हो ही नहीं सकते क्योंकि हम टुकड़ों पर पलते हुए नर्क जीने के अब्यस्त हैं और हर सूरत में नर्क को मजबूती देते रहना हमारा धर्म-कर्म है और हमारी जिंदगी वहीं है।
नियति के खिलाफ मोर्चा लगाना औकात नहीं है हमारी और नियति मौत बनकर मुंह बाएं खड़ी हैं।
हमने कल दिवाली के मौके पर आनंद तेलतुंबड़े से गपशप के दौरान बंगाल के उन सौ परिवारों के नाम गिना दिये, जो जीवन के हर क्षेत्र में सुप्रीमो सुप्रीम हैं।
हम तो जातपांत और धर्म के नाम पर मरे जा रहे हैं।
वे आपसी मुबहब्बत कायम रखकर कायदे कानून का बेखौफ इस्तेमाल करते हुए लोकतंत्र के हर संस्थान पर काबिज बिना भेदभाव हमारे हाथ पांव दिलोदिमाग और सर कलम कर रहे हैं।
हम किसी का नाम नहीं लेंगे।
आप बहुत आसानी से अपने अपने सूबों में वंश वर्चस्व का नजारा देख लीजिये। उनके खानदान की सेहत में हम पानदान हुए जा रहे हैं तो थूकदान भी हमीं है और अब तो मुक्तबाजार में कमोड और कंडोम दुनो आम लोग।
निनानब्वे फीसद जनता का कंडोम कमोड इस्तेमाल करके चतुर सुजान अरबेअरबपति हैं। वे ही हुक्मरान हैं मजहबी।
थोड़ा बहुत अपनी जात बिरादरी का कल्याण वे कर देते हैं। बाकीर फिर वही कमोड मुक्त बाजार का। कुलो किस्सा यहींच। बाहुबलि और धनबल सिर्फ उन्हीं जातियों के हैं, और जमींदारी भी उन्हीं की।
रियासतें भी उन्हीं की। जाति से, धर्म से बाकी लोगों का कोई भला नहीं होता। लेकिन वे जाति धर्म के नाम लड़ मर रहे हैं।
बहुजनों की क्या कहें वे तो अपने दूल्हे की बेमिसाल बारात में अब्दुल्ला दीवाना हैं।
ताकतवर जातियों को भी होश नहीं है कि उनकी क्या गत बन रही है। कुछ चुनिंदे लोग हर सूबे में, पूरे देश में सियासत, कारोबार, उद्योग धंधे से लेकर कला साहित्य संस्कृति तक काबिज हैं और गौर करें, वे सारे के सारे जमींदार रियासती घरानों के ही वंशज हैं ।
आरक्षण कोटा के खिलाफ लामबंद सवर्णों का क्या मिला है, अपना-अपना हिसाब जोड़ लीजिये।
मसलन भूमिहार सबसे तेज समझे जाते हैं बिहार में, पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो कर्नाटक में वोकालिंगा हैं। तमिलनाडु में अयप्पा और अयंगर हैं। तो पंजाब में खत्री हैं।
हमने धनबाद में आवाज से पत्रकारिता शुरु की तो हमारे संपादक मालिक ब्रह्मदेव सिंह भूमिहार थे, जिनने हमें सबसे पहले संपादकीय लिखना सिखाया। उनका कहना था कि संपादकीय असल है बाकी तो आपेआप आ जाता है। वे पत्रकारिता में हमारे पहले गुरु थे।
हम पहाड़ों से मैदान में निकले, तो चतुर सुजान बिहार के भूमिहारों से हमारी दोस्ती हुई और हम हमेशा उनकी कुशाग्र बुद्धि के कायल रहे हैं। अब इन्हीं भूमिहारों की उनकी जनसंख्या के प्रतिशत के मुकाबले बहुते जियादा छियालीस टिकट बांट दिये केसरिया सियासत ने।
एको नहीं जिता पाये। लुलआ ने अपने सारे यादव जीता लिये। वहीं हाल पिछले लोकसभा चुनावों में समाजवादी सारे उम्मीदवार खेत रहने के बाद मुलायम अखिलेश कुनबे के सारे उम्मीदवार जीत गये। इस करिश्मे का समीकरण भी बांचे।
मजबूत सवर्ण जातियों की भी भूमिहारों, खत्रियों, त्यागियों और देश की दूसरी मजबूत सवर्ण जातियों की गत किसी से छुपी नहीं है।
राजपूतों और ठाकुरों का वजूद तो अब उनकी मूंछें हैं और मूंछों की लड़ाई में मशगूल उनने वीपी या अर्जुन सिंह का साथ ही नहीं दिया, जो दरअसल उन्हें इस वंश वर्चस्व के एकाधिकार को बचाने चले थे। मूंछों ने अपने सिपाहसालारों का काम तमाम कर दिया।
अजब-गजब मनुस्मृति राज है कि भूमिहार राजपूत और ब्राह्मण कोई सेहतमंद नहीं है और वर्ल्ड ब्राह्मण आर्गेनाइजेशन डंके की चोट पर केसरिया इतिहास बनाने चला है और कोई ब्राह्मण खुलकर इसके खिलाफ आवाज नहीं उठा रहा है। राजपूत, भूमिहार, त्यागी चुप। तो खामोश हैं अंबेडकर अनुयायी अपने रंग बिरंगे मसाहाओं समेत और बहुजन समाज की नीली क्रांति को भी परवाह नहीं है।
मुक्त बाजार ने केसरिया अंध धर्मराष्ट्र के जिहादी एजंडे के तहत भारत को उपनिवेश बना दिया और हम आजादी के लड़ाकों की फिर फिर हत्या पर आमादा हैं।
ताजा शिकार मैसूर के टीपू सुल्तान हैं। जिनने अंग्रेजों को जितनी बार धूल चटायी, उतनी बार नेपोलियन औरहिचलर अंग्रेजी फौजों को शिकस्त नहीं दे पाया।
मजा यह है कि बिहार में धूल चाटने के बाद नये सिरे से धार्मिक ध्रुवीकरण फिर तेज है। अरबिया गोमांस वसंतोत्सव जारी है।
अजब-गजब राजधर्म और अजब गजब चिंतन मंथन और उससे भी गजबे हैं मार्गदर्शन। भौंके बहुते हैं, काटो भी। दांत तो नइखे।
अब बताइये, ब्राह्मणों का पेट पुरोहिती से कितना चलता है और उनका जनेउ उन्हें कितनी रोजी रोटी देती है जबकि उनके जात के सिपाहसालार मनसबदार ब्राह्मण गिरोह के राजकाज और मनुस्मृति अनुशासन के नाम पर यह मुक्तबाजार का तिलिस्म है।
बताइये कि कौन कौन ब्राह्मण इतना तेज धरे हैं कि पापियों को जनेउ पर हाथ रखे या जनेउ तोड़कर पापियों को भस्म कर दें। तनिको वे मनुष्यता कि युद्धअपराधियों को भस्म करके देखें या फिर चाणक्य की तरह किसी चंद्रगुप्त का राज्याबिषेक करें अडाणी अंबानी के इस साम्राज्य में तो समझ लें कि वे ब्राह्मण हैं।
कृपया ब्राह्मण भी अपने बच्चों के सर पर हाथ रखकर सोचें नये सिरे से कि अंधियारे के सिवाय उनके हाथ क्या लगा।
सारा पाप उन्हींके मत्थे मढ़कर जैसे गांधी को भारत विभाजन का अपराधी बना दिया, गरियाने के लिए सारे लोग बाह्मणों को गरिया रहे हैं और आम ब्राह्णण के घर रोजी रोटी का जुगाड़ कोई नहीं है।
हजारों साल के मनुस्मृति शासन बहाल हो जाने के बाद सारी सत्ता नवब्राह्मणों के हाथों में हैं जिनका कोई विरोध कर नहीं रहा और ब्राह्णण भी सारा पाप अपने माथे ढोते हुए केसरिया सुनामी से उम्मीद बांधे हैं।
सबसे बुरा हाल संघ परिवार के सबसे वफादार सिपाहियों बनियों का है। देश में खेती विदेशी पूंजी और हितों के हवालेकरने वाली केसरिया सत्ता अब उनके पेट काटने पर आमादा है।
खुदरा कारोबार का कबाड़ा है।
सारा कारोबार अब इंटरनेट के हवाले है।
हाट बाजार और दुकानें बंद होने को हैं।
ई कामर्स में जो एफडीआई बेलगाम है, उससे ही एक ही साल में बनियों के पेट पर लात मारकर नेट पर दुकान चलाने वालों का कारोबार दिन दूना रात चौगुना है औरबनिया नई पीढ़ी गायत्री मंत्र जाप का रिंगटोन लगाकर जयश्री राम के बदले नमो नमो करने वाली है और कारोबार काम धंधा ठप होने की वजह से उनके लिए मक्खी मारने के बजाये यही बेहतर धंधा है। चाहे तो अरबपति बाबाओं की भभूति लगा लें या कपालभाति योगाभ्यास कर लें।
हर हाल में फायदा गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान, दिल्ली, कोलकाता की नई जमींदारियों को होना हैं, जिनने राजपूतों और ठाकुरों का बाजा बजाकर उन्हें जमींदारी और रियासत से बेदखल कर दिया हर बार किसी न किसी को सिपासालर बनाकर सिर्फ उनकी मूंछों का ख्याल रखा है।
ताजा खबर यह है कि बिरंची बाबा एफडीआई बाबा महाजिन्न को प्रोटोकाल तोड़कर असहिष्णुता और नफरत के सैलाब के लिए मृत ब्रिटिश राज की सलामी देने के मुहूर्त पर उस राज के सबसे बड़े दुश्मन, नेपोलियन के बराबर दुश्मन की गांधी की तर्ज पर फिर हत्या कर देने के पवित्र हिंदुत्व मुहूर्त पर भारत के दो सौ के करीब लेखकों ने गुलामी की अटूट पंरपरा और मानसिकता का उचित निर्वाह करते हुए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन से भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए गुहार लगायी है।
जो लोग अपनी लड़ाई खुदै लड़ नहीं सकते, उनकी नियति यही है। हमारी अभिव्यक्ति का सवाल है, हमारे वजूद का सवाल है और इसके लिए हम भारतीय संप्रभू नागरिक गुहार उस ब्रिटेन से लगा रहे हैं, जो कल तक हिंदुस्तान की सरजमीं पर राज करता रहा है।
क्या हम उसी राज के लिए वैसे ही मर मिटना चाहते हैं जो दरअसल बजरंगी एजंडा मुक्तबाजार का है, जिन्हें स्वतंत्रता, लोकतंत्र, संप्रभूता के मूल्य इसलिए भी समझ में नहीं आते कि हिंदुत्व का झंडा बुलंद करते हुए धर्म और जाति के नाम पर जमींदारों और रियासतदारों के वंशजों का वर्चस्व बहाल रखने के लिए अपने ही खून से लहूलुहान हैं?
तनिको डरियो भी!
आनलाइन कारोबार और मार्केट का जलवा बहार भी देखते रहे जयश्री नमो नमो हांका लगाते हुए!


