धर्म, जाति और नस्ल के नाम पर घृणा आर्थिक नरसंहार का मामला है
धर्म, जाति और नस्ल के नाम पर घृणा आर्थिक नरसंहार का मामला है
तेरी तलवार और नफरत से ज़्यादा ताकतवर हथियार मौजूद हैं हमारे पास ओ हत्यारे
पलाश विश्वास
जो पिछले सात दशक के वर्णवर्चस्वी राजकाज का सारसंक्षेप है। फर्क सिर्फ मुक्तबाजार में इस तंत्र यंत्र मंत्र और तिलिस्म के ग्लोबीकरण और सूचना निषेध का है। कुल मिलाकर जिसे सूचना और तकनीकी क्रांति कहा जाता है और जिसका कुल जमा मकसद गैर जरूरी जनता और जनसंख्या का सफाया हेतु आधार कारपोरेट प्रकल्प है।
इसलिए धर्म और जाति और नस्ल के नाम पर घृणा और हिंसा का यह कारोबार सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का मामला ही नहीं है, यह सीधे तौर पर आर्थिक नरसंहार का मामला है।
साफ तौर पर समझा जाना चाहिए कि आदिवासी वन इलाकों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट के समांतर गैरआदिवासी शहरी और देहात इलाकों में सबसे ज्यादा वार अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़ा और वंचित सर्वस्वहारा समुदाय ही होंगे जो भूमि सुधार कार्यक्रम की अनुपस्थिति में उतने ही असहाय हैं जितने कि आदिवासी और हिंदू बंगाली शरणार्थी।
अब चूंकि देशज अर्थव्यवस्था और संस्कृति दोनों का कत्ल हो चुका है और उत्पादन प्रणाली ध्वस्त हो जाने से उत्पादन संबंधों के जरिये संगठित और असंगठित क्षेत्रों में तमाम अस्मिताओं की गोलबंदी मुश्किल है, जाति धर्म अस्मिता के खांचे मजबूत करने के केसरिया अश्वमेध का तात्पर्य भी समझना बेहद जरूरी है।
हम उन्हीं की भाषा में अलगाव की चिनगारियां सुलगाकर कहीं प्रतिरोध की रही सही संभावनाएं खारिज तो नहीं कर रहे।
भले ही मुसलमानों, सिखों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों, क्षेत्रीय भाषायी नस्ली राष्ट्रीयता की राजनीतिक ताकत बेहद शख्तिशाली हो, केवल इस आधार पर हम धर्मोन्मादी बहुसंख्य घृणा और हिंसा के मध्य कारपोरेट जनसंहार अभियान से बच नहीं सकते।
इसी लिए ब्रूट, निर्मम, हिंसक, पाशविक राजकाज के लिए कल्कि अवतार का यह राज्याभिषेक। धर्मनिरपेक्षता, समरसता और डायवर्सिटी जैसे पाखंड के जरिये इस कारपोरेट केसरिया तिलिस्म में हम अपने प्राण बचा नहीं सकते।
नई सरकार बनते ही सबसे पहले बाजार पर रहा सहा नियंत्रण खत्म होगा। सारी बचत, जमा पूंजी बाजार के हवाले होगी। बैंकिंग निजी घरानों के होंगे। सारी जरूरी सेवाएं क्रयशक्ति से नत्थी होंगी।
करप्रणाली का सारा बोझ गरीबी रेखा के आर-पार के सभी समुदायों के लोगों पर होगा और पूंजी कालाधन मुक्त बाजार में हर किस्म के उत्तरदायित्व, जबावदेही और नियंत्रण से मुक्त।
अंबानी घराने के मीडिया समूह ने जो केसरिया सुनामी बनायी है और देश भर के मीडियाकर्मी जो कमल फसल लहलहाते रहे हैं, उसकी कीमत दोगुणी गैस कीमतों के रुप में चुनाव के बाद हमें चुकानी होगी और हम यह पूछने की हालत में भी नही होंगे कि भरत में पैदा गैस बाग्लादेश में दो डालर की है और भारत में आठ डालर की, इसके बावजूद गैस की कीमतें क्यों बढ़ायी जायेंगी।
आरक्षण और कोटा अप्रासंगिक बना दिये जाने के बाद भी हम लगातार कुरुक्षेत्र में एक दूसरे का वध कर रहे हैं, लेकिन बेरोजगार करोड़ों युवाजनों के अंधेरे भविष्य के लिए हम एक दिया भी नहीं जला सकेंगे।
उपभोक्ताबादी मुक्त बाजार में सबसे शोषित सबसे वंचित सबसे ज्यादा प्रताड़ना,अत्याचार और अन्याय की शिकर महिलाओं और बच्चों को अलग अलग अस्मिता में बांदकर न हम उन्हें इस पुरुषवर्चस्वी वर्ण वरस्वी यौनगंधी गुलामी से आजाद कर सकते हैं और न उन्हें प्रतिरोध की सबसे बेहतरीन और ईमानदार ताकत बतौर गोलबंद कर सकते हैं।
दरअसल मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों की राजनीतिक ताकत की असली वजह उनमें जाति व्यवस्था और कर्मकांड संबंधी भेदाभेद नगण्य होना है और जब आंच दहकने लगती है तो वे प्रतिरोध में एकजुट हो जाते हैं।
छह हजार जातियों में बंटा हिंदू समाज में कोई भी जनसमुदाय देश की पूरी जनसंख्या के मुकाबले में दो तीन प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। जिनकी आबादी इतनी भी है, वे तमाम शासक जातियां हैं चाहे सवर्ण हो या असवर्ण।
इसके बरखिलाफ शोषित वंचित हिंदू समुदायों और जातियों की अलग अलग जनसंख्या शून्य प्रतिशत के आसपास भी नहीं है।
मुक्त बाजारी स्थाई बंदोबस्त के खिलाफ वे चूं नहीं कर सकते। हिंदू शरणार्थी देश भर में बंगाली, सिख, तमिल, कश्मीरी मिलाकर दस करोड़ से कम नही हैं।
मुक्त बाजार के देशी विदेशी कारपोरेट हित साधने के लिए कल्कि अवतार इसीलिए।
मसलन शरणार्थी केस स्टडी ही देखें, डा. मनमोहन सिंह, कामरेड ज्योति बसु और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेता हिंदू शरणार्थी समुदायों से हैं। लेकिन शरणार्थी देश भर में अपनी लड़ाई अपनी-अपनी जाति, भाषा और पहचान के आधार पर ही लड़ते रहे हैं।
पंजाबियों की समस्य़ा सुलझ गयी तो पंजाबी शरणार्थी नेताओं ने बंगाली शरणार्थियों की सुधि नहीं ली, यह बात तो समझी जा सकती है।
बंगाल की शासक जातियों का जिनका जीवन के हर क्षेत्र में एकाधिकार है,उन्होंने बंगाल से सारे के सारे दलित शरणार्थियों को खदेड़ ही नहीं दिया और जैसा कि खुद लालकृष्ण आडवाणी ने नागरिकता संसोधन कानून पास होने से पहले शरणार्थियों की नागरिकता और पुनर्वास के मसले पर बंगाली सिख शरणार्थियों में भेदाभेद पर कहा, हकीकत भी वही है, बंगाल और त्रिपुरा के मुख्यमंत्रियों के अलावा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बंगाली सुचेता कृपलानी रही हैं, जिनके जमाने में 64 में पूर्वी बंगाल में अल्पसंख्यक उत्पीड़न के बाद बंगाली हिंदू शरणार्थियों का बहुत बड़ा हुजूम उत्तर प्रदेश भी पहुंच गया थे, उनमें से किसी ने बंगाली हिंदू शरणार्थियों के पुनर्वास और उनकी नागरिकता के लिए कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभायी ।
विभिन्न राज्यों से चुने जाने वाले बंगाली सांसदों ने, जिनमें आरक्षित इलाकों के वे सांसद भी हैं, जिनकी जातियों के लोग सबसे ज्यादा शरणार्थी हैं, उन्होंने भी इन शरणार्थियों के हक में आवाज नहीं उठायी।
आडवाणी पंजाबी शरणार्थियों के साथ बंगाली शरणार्थियों के मुकाबले आरोपों का जवाब दे रहे थे और गलत भी नहीं थे।
बंगालियों के मुकाबले पंजाबी राष्ट्रीयता शरणार्थी समस्या पर एकताबद्ध रही है और बंगाल के मुकाबले कहीं ज्यादा खून खराबे के शिकार विभाजित पंजाब के शरणार्थियों की समस्या तुरंत युद्धस्तर पर सुलटा दी गयी।उन्हें तुरंत भारत की नागरिकता मिल गयी।
पंजाब से आये शरणार्थी एकताबद्ध होकर पंजाबी और सिख राष्ट्रीयताओं को एकाकार करके विभाजन की त्रासदी से लड़े, इसके विपरीत पूर्वी बंगाल से आये सारे शरणार्थी अकेले-अकेले लड़ते रहे।
बंगाली राष्ट्रीयता शरणार्थियों से पीछा छुड़ाने का हर जुगत करती रही। पढ़े लिखे संपन्न तबके पश्चिम बंगाल में समायोजित होत गये, चाहे जब भी आये वे। लेकिन चालीस पचास के दशक में आये मुख्यतः किसान, दलित, पिछड़े और अपढ़ लोग न सिर्फ बंगाल के भूगोल से बल्कि मातृभाषा और इतिहास के बाहर खदेड़ दिये गये।
बंगाल में बड़ी संख्या में ऐसे केसरिया तत्व हैं जो विभाजन पीड़ितों के साथ किसी भी तरह की सहानुभूति के विरुद्ध हैं और शुरू से उन्हें वापस सीमापार भेज देना चाहते हैं। कमल ब्रिगेड का असली जनाधार बंगाल में वहीं है,जिसे कल्कि अवतार ने धर्मेन्मादी बना दिया है। इस तबके में बंगाल के शरणार्थी समय के मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय, वाम शासन काल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु, जिन्होने दंडकारण्य से आये शरणार्थियों का मरीचझांपी में कत्लेआम किया और प्रणब मुखर्जी जिन्होंने नागरिकता संशोधन कानून और निलेकणि आधार परियोजना लागू की, सिपाहसालार रहे हैं।
बंगाली शरणार्थियों की दुर्दशा के लिए सिख और पंजाबी शरणार्थी जिम्मेदार नहीं हैं। यह तथ्य पिताजी ने बखूब समझाया जो सिखों और पंजाबियों के भी उतने बड़े नेता तराई में थे, जितने बंगालियों के। तराई विकास सहकारी संघ के उपाध्यक्ष, एसडीएम पदेन अध्यक्ष वे साठ के दशक में निर्विरोध चुने गये थे।
विडंबना यह कि बंगाल में शरणार्थी समस्या की चर्चा होते ही मुकाबले में पंजाब को खड़ा कर दिया जाता है। बहुजन राजनीति के सिसलिले में महाराष्ट्र को खड़ा कर दिया जाता है। हमारे लोग दूसरों को शत्रु मानते हुए अपने मोर्चे के असली गद्दारों के कभी पहचान ही नहीं सके।
आडवाणी के मुताबिक बंगाली शरणार्थियों के पुनर्वास और नागरिकता के मामले में बंगाल की कोई दिलचस्पी नहीं रही है।
मैं कक्षा दो पास करने के बाद से पिताजी के तमाम कागजात तैयार करता रहा क्योंकि पिताजी हिंदी ठीकठाक नहीं लिख पाते थे। वे किसानों, शरणार्थियों, आरक्षण और स्थानीय समस्याओं के अलावा देश के समक्ष उत्पन्न हर समस्या पर रोज राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सारे के सारे केंद्रीय मंत्री,सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, सभी मुख्यमंत्रियों और ज्यादातर सांसदों को पत्र लिखा करते थे।
वैसे किसी पत्र का जवाब बंगाल से कभी आया हो, ऐसा एक वाकया मुझे याद नहीं है।
बाकी देश से जवाब जरूर आते थे। राष्ट्रपति भवन, राजभवन और मुख्यमंत्री निवास से रोजाना जवाबी पत्र आते थे, लेकिन उन पत्रों में कोलकाता से कभी एक पत्र नहीं आया।
आडवाणी आंतरिक सुरक्षा के मुकाबले शरणार्थी समस्या को नगरिकता संशोधन विधेयक के संदर्भ में तूल नहीं देना चाहते थे। उनका स्पष्ट मत था कि घुसपैठिया चाहे हिंदू हो या मुसलमान, उनका देश निकाला तय है।
विभाजन के बाद भारत आये पूर्वी बंगाल के हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने की बात तब संसद में डॉ. मनमोहन सिंह और जनरल शंकर राय चौधरी ने ही उठायी थी।
लेकिन संसदीय समिति के अध्यक्ष बंगाली नेता प्रणव मुखर्जी ने तो शरणार्थी नेताओं से मिलने से ही, उनका पक्ष सुनने से ही साफ इंकार कर दिया था और बंगाली हिंदू शरणार्थियों के लिए बिना किसी प्रावधान के वह विधेयक सर्वदलीय सहमति से पास हो गया।
यूपीए की सरकार में डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनें तो प्रणब दादा की पहल पर 2005 में इस कानून को नये सिरे से संशोधित कर दिया गया और इसके प्रवधान बेदखली अभियान के मुताबिक बनाये गये।
पिताजी अखिल भारतीय उद्वास्तु समिति के अध्यक्ष थे आजीवन तो भारतीय किसान समाज और किसानसभा के नेता भी थे। ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के भी वे नेता थे।
हमसे उनकी बार-बार बहस होती रही कि जैसे तराई में वे सिख और बंगाली शरणार्थियों के मसलों को एकमुश्त संबोधित कर लेते थे, उसी तरह क्यों नहीं वे सर्वभारतीय कोई शरणार्थी संगठन बनाकर बंगाली, बर्मी, तमिल, पंजाबी सिख, सिंधी और कश्मीरी शरणार्थियों की समस्याएं सुलझाने के लिए कोई आंदोलन करते।
हकीकत तो यह है कि वे सर्वभारतीय नेता रहे हैं लेकिन बंगाल में उनका कोई सांगठनिक असर था नहीं। उन्होंने अखिल भारतीय बंगाली समाज की स्थापना की, जिसमें सभी राज्यों के लोग थे, लेकिन बंगाल के नहीं। जब बंगाली शरणार्थी ही एकताबद्ध नहीं रहे तो सारे शरणार्थियों को तरह-तरह की पहचान और अस्मिता के मध्य उनके बड़े बड़े राष्ट्रीय नेताओं की साझेदारी के बिना कैसे एकजुट किया जा सकता था, पिताजी इसका कोई रास्ता निकाल नहीं सके। हम भी नहीं।
लेकिन अब मुक्त बाजारी स्थाई कारपोरेट बंदोबस्त के खिलाफ किसी शरणार्थी संगठन से या इस तरह के आधे अधूरे पहचान केंद्रित आंदोलन के जरिये भी हम बच नहीं सकते।
वह संगठन कैसा हो, कैसे बने वह संगठन, जिसमें सारे के सारे सर्वस्वहारा, सारी की सारी महिलाएं, सारे के सारे कामगार, सारे के सारे छोटे कारोबारी, सारे के सारे नौकरीपेशा लोग, सारे के सारे छात्र युवा लामबंद होकर बदलाव के लिए साझा मोर्चा बना सके, अब हमारी बाकी जिंदगी के लिए यह अबूझ पहेली बन गयी है।
हम शायद बूझ न सकें, लेकिन जो बूझ लें वे ही बदलाव के हालात बनायेंगे, इसी के सहारे बाकी जिंदगी है।
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