यह भी अकाट्य सत्य है कि सोनिया गांधी, शरद पवार, चिदम्बरम डॉ मनमोहनसिंह, सुषमा स्वराज, मोदी, मुलायम, नीतीश, जयललिता, आडवाणी- ये सभी केवल विवादस्पद व्यक्तियों के नाम ही तो हैं। जबकि कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, सपा, बसपा, शिवसेना, अकाली, जदयू, राजद, डीएमके, एआईडीएमके- विचारधाराओं के प्रतीक हैं। इन सभी के अपने-अपने अच्छे-बुरे कार्यक्रम और नीतियाँ सम्भव हैं। इनके अधिकांश नेता मोदी से बेहतर तो हैं ही वे लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष भी हैं। किन्तु देश का दुर्भाग्य है कि आजादी के 67 साल बाद भी देश की अवाम को लोकतंत्र की नहीं बल्कि 'अधिनायकवाद' की दरकार है। खासतौर से
तथाकथित पढ़े लिखे युवाओं को नहीं मालूम कि लोकतंत्र का आधार नेता नहीं नीतियां और कार्यक्रम हुआ करते हैं।

मोदी यदि प्रधानमंत्री बन भी जाए तो भी वे इस विशाल देश का विकाश तो क्या इस भ्रष्ट व्यवस्था की चूल भी नहीं हिला सकेंगे। वे लोकतंत्र को अक्षुण्ण रख सकेंगे इसमें भी संदेह है।

सारे देश को गुजरात बना देंगे यह आश्वासन भी केवल चुनावी लालीपाप है। गुजरात का विकास यदि कुछ हुआ भी है तो वह सारे गुजरातियों की मेहनत का, उसकी ऐतिहासिक एवं भौगोलिक अवस्था का परिणाम है। कांग्रेस के और जनता के अतीत के जन -संघर्षों का भी परिणाम है, केवल मोदी -मोदी चिल्लाने से गुजरात का भला नहीं हुआ और न ही भारत का भला होगा।

लोकतंत्र -समाजवाद -धर्मनिरपेक्षता और जन-क्रांति ही भारत की अभीष्ट अभिलाषा है। मोदी और संघ परिवार इसमें फिट नहीं हैं।

श्रीराम तिवारी, लेखक जनवादी कवि और चिन्तक हैं. जनता के सवालों पर धारदार लेखन करते हैं।

इन दिनों प्रधानमंत्री पद (Prime Minister's post) के लिये मीडिया के मार्फ़त -रोज-रोज नए-नए दावेदार सामने आ रहे हैं। संघ परिवार (RSS) और भाजपा (BJP) तो जनसंघ (Jansangh) के जमाने से ही व्यक्तिवाद (Individualism) तथा 'अधिनायकवाद' (Authoritarianism) का समर्थक रहा है। उसका-1960 से सन् 1999 तक एक ही नारा लगता रहा है -"बारी-बारी सबकी बारी-अबकी बारी अटल बिहारी"। 2004 में भाजपा ने अवश्य आडवाणी जी को प्रोजेक्ट किया था, किन्तु वे तत्कालीन लौह पुरुष होते हुये भी- फील गुड (Feel Good) और इंडिया शाइनिंग के चक्कर में भाजपा का पटिया उलाल कर -बड़े बेआबरू होकर अधोगति को प्राप्त हुये। संघ के फुरसतियों ने अब नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) पर दाँव लगाया गया है। चूँकि वे अमीरों- अम्बानियों अडानियों के दम पर ज़रा ज्यादा ही हवा में उड़ रहे हैं। उनके घोर पूँजीवादी निरंकुशतावादी तेवरों को समझते हुये तमाम जनवादी-प्रगतिशील लोग मोदी के इस तरह के निर्मम "क्रोनी कैपिटलिज्म" को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

भले ही इन दिनों विभिन्न सर्वे में मोदी को निरंतर जीत की ओर अग्रसर दिखाया जा रहा है। आवारा पूँजी के मार्फ़त उन्हें इस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है मानो प्रधानमन्त्री का चुनाव सीधे - सीधे अब जनता ही करने जा रही है। मोदी समर्थक तो बिना चुनाव जीते ही इतने फूले-फूले इतरा रहे हैं।

यदि दुर्भाग्य से भाजपा और एनडीए को 272 सीटें मिल भी गईं तो चुनाव जीतने के बाद देश का क्या होगा कालिया ?

मान लो चुनाव में भाजपा,एनडीए को 272 सीटें मिल भी जाती हैं और वे प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं तो भी इस देश की जनता के सहयोग के बिना वे कुछ भी नहीं कर पाएंगे।

मान लो कि कांग्रेस को, यूपीए को, तीसरे-चौथे मोर्चे को या वाम मोर्चे को उतना जनादेश नहीं मिल पाता कि केंद्र में एक लोकतांत्रिक सरकार बना सकें तो भी समूचे धर्मनिपेक्ष भारत के सामने मोदी को झुकना ही होगा। वरना जनता को हमेशा अवसर की प्रतीक्षा ही रहेगी कि इस मोदी गुब्बारे की हवा कब कैसे निकाली जाए ?

बेशक नरेंद्र मोदी आज न केवल भाजपा बल्कि एनडीए का भी 'चेहरा' हैं। लोक सभा चुनाव के दरम्यान उन्हें प्रधानमंत्री पद पर चुने जाने का नहीं अपितु एनडीए को जिताने का और स्वयं को सांसद चुने जाने का जनता से अनुरोध करने का पूरा हक है।

प्रधानमंत्री जैसे सर्वाधिक संवैधानिक एवं कार्यकारी उत्तरदायित्व पूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होने की मोदी की अभी तक की राजनैतिक यात्रा और वांछित योग्यता संदिग्ध है।

यह भी अकाट्य सत्य है कि सोनिया गांधी, शरद पवार, चिदम्बरम डॉ मनमोहनसिंह, सुषमा स्वराज, मोदी, मुलायम, नीतीश, जयललिता, आडवाणी- ये सभी केवल विवादस्पद व्यक्तियों के नाम ही तो हैं। जबकि कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, सपा, बसपा, शिवसेना, अकाली, जदयू, राजद, डीएमके, एआईडीएमके- विचारधाराओं के प्रतीक हैं। इन सभी के अपने-अपने अच्छे-बुरे कार्यक्रम और नीतियाँ सम्भव हैं। इनके अधिकांश नेता मोदी से बेहतर तो हैं ही वे लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष भी हैं। किन्तु देश का दुर्भाग्य है कि आजादी के 67 साल बाद भी देश की अवाम को लोकतंत्र की नहीं बल्कि 'अधिनायकवाद' की दरकार है। खासतौर से तथाकथित पढ़े लिखे युवाओं को नहीं मालूम कि लोकतंत्र का आधार नेता नहीं नीतियां और कार्यक्रम हुआ करते हैं।

मोदी यदि प्रधानमंत्री बन भी जाए तो भी वे इस विशाल देश का विकाश तो क्या इस भ्रष्ट व्यवस्था की चूल भी नहीं हिला सकेंगे। वे लोकतंत्र को अक्षुण्ण रख सकेंगे इसमें भी संदेह है।

सारे देश को गुजरात बना देंगे यह आश्वासन भी केवल चुनावी लालीपाप है। गुजरात का विकास यदि कुछ हुआ भी है तो वह सारे गुजरातियों की मेहनत का, उसकी ऐतिहासिक एवं भौगोलिक अवस्था का परिणाम है। कांग्रेस के और जनता के अतीत के जन -संघर्षों का भी परिणाम है, केवल मोदी -मोदी चिल्लाने से गुजरात का भला नहीं हुआ और न ही भारत का भला होगा।

लोकतंत्र -समाजवाद -धर्मनिरपेक्षता और जन-क्रांति ही भारत की अभीष्ट अभिलाषा है। मोदी और संघ परिवार इसमें फिट नहीं हैं।

श्रीराम तिवारी, लेखक जनवादी कवि और चिन्तक हैं. जनता के सवालों पर धारदार लेखन करते हैं।