धर्मनिरपेक्षता के हक में एक अमूर्त फैसला
0 प्रकाश कारात

चुनावी प्रक्रिया में धर्म की दुहाई के उपयोग के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ का बहुमत से जो फैसला आया है, उसकी बुनियादी चिंता यही थी कि धर्मनिरपेक्षता को कायम रखा जाए और इसे रेखांकित किया जाए कि चुनाव में धर्म के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है और धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के नाम पर मतदाताओं से अपील करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है।
इस संविधान पीठ का गठन, जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-123 की उप-धारा 3 की व्याख्या पर विचार करने के लिए किया गया था। धारा-123 (3) कहती है: ‘‘किसी उम्मीदवार या उसके एजेंट द्वारा या उम्मीदवार की सहमति से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या उसके चुनावी एजेंट द्वारा उसके धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर उसे वोट करने या वोट नहीं करने के लिए अपील करना या किसी उम्मीदवार के निर्वाचन की संभावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए या किसी अन्य उम्मीदवार की संभावनाओं को घटाने के लिए धार्मिक प्रतीकों या राष्ट्रीय प्रतीकों, जैसे राष्ट्र ध्वज या राष्ट्र चिन्ह का इस्तेमाल करना’’, भ्रष्ट तरीका माना जाएगा।
संविधान पीठ के सामने सवाल यह था कि इस प्रावधान में आए ‘‘उसके’’ शब्द को किस तरह व्याख्यायित किया जाए। क्या यहां उसके से आशय उम्मीदवार या उसके एजेंट के धर्म आदि से है या इसमें मतदाताओं का धर्म आदि भी शामिल है।
बहुमत के फैसले में इसकी एक व्यापक तथा उद्देश्यपूर्ण व्याख्या को अपनाया गया है। इसमें यह तय किया गया है कि न सिर्फ उम्मीदवार के धर्म, जाति या भाषायी पहचान के आधार पर वोट मांगना अपराध है बल्कि मतदाताओं के धर्म, जाति या सामुदायिक पहचान के आधार पर वोट मांगना भी इस कानून का उल्लंघन है। संक्षेप में यह कि बहुमत के फैसले में इसमें कोई अंतर नहीं माना गया है कि उम्मीदवार की पहचान के आधार पर वोट मांगे जा रहे हैं या फिर उम्मीदवार या उसके एजेंट द्वारा मतदाताओं के धर्म, जाति या भाषा के आधार पर वोट मांगे जा रहे हैं।
न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर ने अपना अलग किंतु बहुमत की राय के अनुरूप निर्णय दिया है। अपने निर्णय में उन्होंने न्यायमूर्ति लोकुर द्वारा प्रस्तुत तर्क का पक्ष लिया है और उक्त प्रावधान की व्याख्या को व्यापक बनाए जाने का पक्ष लिया है, ताकि धर्मनिरपेक्षता को कायम रखा जा सके, जोकि हमारे संविधान की एक बुनियादी विशेषता है।
बहुमत के निर्णय में धारा-123 (3) की व्याख्या का मुख्य बलाघात पर इस अर्थ में कोई आपत्ति नहीं हो सकती है कि यह नहीं चाहता है कि किसी भी रूप में धार्मिक दुहाई चुनावी प्रक्रिया को विकृत करे। फिर भी यह निर्णय समस्यापूर्ण है। भारतीय समाज की सचाइयों के पहलू से इसके अनचाहे परिणाम निकल सकते हैं।
अल्पमत के फैसले में, जो न्यायमूर्ति डी वाइ चंद्रचूड़ ने लिखा है, कुछ प्रासंगिक मुद्दे उठाए गए हैं, जिन पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। बहुमत के फैसले से असहमति रखने वाले न्यायाधीशों ने ध्यान दिलाया है कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-123 (3) की व्याख्या के इस तरह व्यापक बनाए जाने से कि इसके दायरे में धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा पर आधारित हर प्रकार की अपील आ जाए, कुछ जातियों, समुदायों या भाषायी अल्पसंख्यकों द्वारा झेले जाते सामाजिक उत्पीड़न के प्रश्न भी, चुनावी भ्रष्ट आचरण के दायरे में आ जाएंगे।
अल्पमत के फैसले में प्रभावी तरीके से इसकी वकालत की गयी है कि चुनावी विमर्श में धर्म, जाति या समुदाय के उत्पीड़न या उनके साथ भेदभाव के मुद्दे उठाए जाने की इजाजत होनी चाहिए।
अल्पमत का फैसला कहता है कि,

‘‘यह कहना कि कोई भी व्यक्ति जो चुनाव लड़ना चाहता है, उसका नागरिकों की इसकी जायज चिंताओं की बात करना प्रतिबंधित है कि धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा पर आधारित विशेषताओं के आधार पर उनके साथ जो अन्याय होता है उसे दूर किया जाएगा, जनतंत्र को एक अमूर्त चीज में घटा देना है।’’

अल्पमत में फैसले में इस पर भी जोर दिया गया है कि,
‘‘धर्म, जाति तथा भाषा, जितने इन अपरिवर्तनीय विशेषताओं के आधार पर हमारे समाज के विशाल हिस्सों पर सामाजिक भेदभाव थोपे जाने के प्रतीक हैं, उतने ही शताब्दियों के अन्याय का जवाब देने के लिए सामाजिक गोलबंदी के प्रतीक हैं। वे एक न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था का निर्माण करने की संविधान की केंद्रीय थीम का हिस्सा हैं। जनतांत्रिक राजनीति में चुनावी राजनीति का संबंध गोलबंदी से है। सामाजिक गोलबंदी, सत्ता तथा वैधता की तलाश का एक अभिन्न तत्व है।’’
यह एक दिलचस्प तथ्य है कि 1961 में संसद में जब जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-123 (3) में संशोधन पर चर्चा हो रही थी, सी पी आई की सांसद रेणु चक्रवर्ती ने निर्वचन समिति में प्रस्तावित संशोधन के संबंध में, जिसे बाद में स्वीकार कर लिया गया, अपनी असहमति दर्ज करायी थी।
उक्त संशोधन का जिक्र करते हुए उन्होंने भी यही कहा था:

‘‘बल्कि मुझे आशंका है कि इसका इस्तेमाल ऐसे किसी के भी खिलाफ किया जाएगा जो जाति या समुदाय पर आधारित ऐसे अन्यायपूर्ण आचारों की आलोचना करना चाहेगा, जिनके चलते सामाजिक उत्पीडऩ होता है या जो भी किसी जाति, समुदाय या अल्पसंख्यक समूह द्वारा झेली जा रही तकलीफों की शिकायत करना चाहेगा, उस पर भ्रष्टï आचार का आरोप लगा दिया जाएगा।’’

संविधान पीठ के सामने उपस्थित प्रकरण का एक और पहलू यह है कि उसमें सुप्रीम कोर्ट के 1995 के उस फैसले पर विचार ही नहीं किया गया जिसमें, जे एस वर्मा की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह कहा था कि,‘‘हिंदुत्व या हिंदूवाद, इस उपमहाद्वीप के लोगों की जीवन पद्धति है।’’
यही फैसला है जिसने हिंदुत्व के नाम पर मतदाताओं से वोट मांगने के लिए शिव सेना के नेताओं के निर्योग्य करार दिए जाने को खारिज कर दिया था। उक्त फैसले को बने रहने देना, चुनावों में सांप्रदायिक हिंदुत्व की दुहाई के इस्तेमाल के लिए आवरण मुहैया करा सकता है।
धारा-123 की उपधारा-3 (ए) पहले ही मौजूद है (इसे भी 1961 के संशोधन के जरिए ही लाया गया था) जो चुनाव में सांप्रदायिक तथा संकीर्णतावादी दुहाइयों के उपयोग के मामलों को कवर करती है। उपधारा-3 (ए) कहती है:

‘‘किसी उम्मीदवार या उसके एजेंट द्वारा उम्मीदवार के निर्वाचन की संभावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए या किसी अन्य उम्मीदवार की संभावनाओं को घटाने के लिए, धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर, भारत के नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच शत्रुता या घृणा की भावनाओं को बढ़ाया या उन्हें बढ़ाने की कोशिश करना’’ चुनावी भ्रष्ट आचार माना जाएगा।

वैसे भी कानून की सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुहैया करायी जाने वाली व्याख्या की बारीकियां अपनी जगह, धार्मिक-सांप्रदायिक दुहाइयों के इस्तेमाल को रोकने के लिहाज से ऐसे कानूनों के लागू कराए जाने का रिकार्ड तो व्यावहारिक मानों में शून्य ही रहा है। मौजूदा व्यवस्था के तहत जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत किसी भी कानून उल्लंघन के लिए, चुनाव के बाद ही निर्वाचित प्रतिनिधि के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर की जा सकती है।
चुनावी अपराध के मामलों में फैसले आने में बरसों लग जाते हैं और ऐसा शायद ही कभी होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधि का कार्यकाल समाप्त होने से पहले फैसला आ जाए।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को, चुनावी राजनीति में सांप्रदायिक दुहाई के बढ़ते इस्तेमाल पर अंतिम शब्द किसी भी तरह नहीं माना जा सकता है।
हां! जब जनता सांप्रदायिक राजनीति की विघटनकारी तथा जनतंत्रविरोधी प्रकृति के बारे में सचेत हो जाएगी, तब जरूर धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत को कारगर तरीके से लागू कराना संभव होगा। तब तक किसी खास धार्मिक समुदाय, जाति या भाषायी समूह के उत्पीड़न के मुद्दों को उठाने पर कोई रोक नहीं लगायी जा सकती है।