धारा 370 : घाटी और देश में हिंसा और मौतों का सिलसिला और तेज होगा, लेकिन मोदी सरकार का तो भला होगा !
धारा 370 : घाटी और देश में हिंसा और मौतों का सिलसिला और तेज होगा, लेकिन मोदी सरकार का तो भला होगा !
जम्मू-कश्मीर : ‘फाइनल सोल्यूशन’ के रास्ते पर ! Jammu and Kashmir: On the way to 'Final Solution'!
‘17 जून के हंगामे के बाद
लेखक यूनियन के सचिव ने बंटवाए पर्चे...
कि जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है
और दोगुने प्रयासों से ही उसे दोबारा जीता जा सकता है।
तब क्या यही आसान नहीं होगा कि सरकार
जनता को भंग कर दे और एक नयी जनता चुन ले।’
बर्टोल्ट ब्रेख्त की ‘समाधान’ शीर्षक की कविता (Bertolt Brecht's poem in Hindi titled 'Samadhan') की ये पंक्तियां आज अचानक भारत में, मोदी-2 के सिलसिले में, भयावह तरीके से सच होती नजर आ रही हैं। कम से कम कश्मीर के सिलसिले में तो मोदी सरकार ने एक तरह से बाकायदा इसका एलान ही कर दिया है कि जनता ने उसका विश्वास खो दिया है और मोदी सरकार ने कश्मीर की जनता को भंग कर दिया है तथा अपने लिए एक नयी कश्मीरी जनता चुनने का फैसला कर लिया है।
अचरज नहीं कि एक ओर तो धारा-370, धारा-35ए, स्थापित कश्मीरी नेताओं तथा पार्टियों आदि, आदि, ‘भारत के साथ पूर्ण-एकीकरण’ की ‘बाधाओं’ से कश्मीर की ‘आजादी’ का जश्न (Celebration of Kashmir's independence) मनाया जा रहा है और अभूतपूर्व तरीके से इस मौके पर संसद भवन को ही रंग-बिरंगी रौशनियों से जगमग किया गया है। वहीं दूसरी ओर, इस जश्न को बदमजा होने से बचाने के लिए, कश्मीर में चप्पे-चप्पे पर सैन्य बलों को तैनात किया गया है, जिसमें पिछले हफ्ते-दस दिन में ही वहां पहुंचाए गए पैंतीस हजार अतिरिक्त सैनिक भी शामिल हैं।
इसके अलावा तमाम सामान्य गतिविधियां बंद करा दी गयी हैं, इतिहास में पहली बार अमरनाथ यात्रा को बीच में ही बंद करा दिया गया है तथा पर्यटकों समेत सभी गैर-कश्मीरियों को कश्मीर से वापस धकेल दिया गया है। इंटरनैट, सैलफोन यहां तक कि लैंडलाइन फोन भी बंद कर दिए गए हैं।
पूरी घाटी में कर्फ्यू (Curfew in Kashmir Valley) है और दो पूर्व-मुख्यमंत्रियों समेत, कश्मीर के सभी प्रमुख राजनीतिक नेताओं को और बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं को, नजरबंद या कैद किया जा चुका है। भारत के साथ कश्मीर के ‘पूर्ण-एकीकरण’ का यह जश्न, कश्मीर से बाहर बसे कश्मीरी पंडितों के गिनती के टेलीविजन दिखाऊ अपवादों को छोड़कर, कश्मीरियों को एक खुली जेल में बंद कर के ही मनाया जा रहा है!
संक्षेप में यह कि मोदी-शाह सरकार ने, अपना विश्वास खो चुकी कश्मीरी जनता को भंग कर दिया है।
रही नयी जनता चुनने की बात तो जिसने भी राज्य सभा में जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म करने और लद्दाख को तोड़कर उससे अलग करने का विधेयक पेश करते हुए, गृहमंत्री अमित शाह का भाषण सुना है, उसमें कश्मीर में ‘जमीन खरीदने’/ हासिल करने का जितनी बार जिक्र किया गया है, उसके बाद इसमें किसी को शक नहीं रह जाना चाहिए कि दूरगामी योजना, जमीनों पर गैर-कश्मीरियों के बढ़ते कब्जे के जरिए, घाटी की आबादी संरचना को ही बदलने और वहां कश्मीरी मुसलमानों का बोलबाला ही खत्म करने की है। यह कश्मीर को कश्मीरियों से ही ‘‘आजाद’’ कराने का खेल है। इस खेल की सौ फीसद मारकता सुनिश्चित करने के लिए, आरएसएस की जम्मू-कश्मीर के त्रिभाजन की मांग को भी कुछ संशोधित कर के ही पूरा किया जा रहा है।
लद्दाख को तो काटकर अलग कर दिया गया है, लेकिन जम्मू को कश्मीर के साथ जोड़े रखा गया है, ताकि नये केंद्र शासित क्षेत्र की कश्मीरी मुस्लिम बहुलता को खत्म कर के उसे हिंदू बहुल बनाया जा सके। अचरज की बात नहीं है कि पूर्ण राज्य के रूप में जम्मू-कश्मीर का दर्जा समाप्त करने और उसे दो केंद्र शासित क्षेत्रों में तोड़ने का जो प्रस्ताव मोदी सरकार ने संसद में बिना किसी वास्तविक विचार के ही बुलडोज कराया है, उसके साथ नये बनने वाले केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर क्षेत्र के नये परिसीमन का प्रावधान भी जुड़ा हुआ है। यानी नामुमकिन ही नहीं है कि अब इस केंद्र शासित क्षेत्र की विधानसभा के चुनाव तभी कराए जाएं, जब पहले नये परिसीमन के जरिए नयी विधानसभा का हिंदू-बहुल होना सुनिश्चित कर लिया जाए।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि विधिवत यह खेल भारत के 72वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व-संध्या में, वास्तव में स्वतंत्रता दिवस के सिर्फ दस दिन पहले शुरू किया गया है।
अपने मूल तानाशाहाना मिजाज के अनुरूप मोदी-शाह की जोड़ी ने, नोटबंदी की ही तरह, इस बार भी अपने संगियों समेत सभी को, यहां तक कि संभवत: राज्यपाल को भी अंधेरे में रखते हुए और औचक हमले के अंदाज में, जम्मू-कश्मीर पर और भारत के संविधान तथा देश की एकता पर, यह हमला किया है। यह 9/11 के बाद, इराक के खिलाफ बुश प्रशासन द्वारा अपनायी गयी हमले की ‘‘शॉक एंड ऑ’’ रणनीति की ही सोची-समझी पुनरावृत्ति है।
बेशक, ऐसा नहीं था कि नोटबंदी की तरह, इस बार भी किसी को कोई सुनगुन ही नहीं लगी हो। आपात कदम के तौर पर, मुश्किल से दस दिन में पैंतीस हजार अतिरिक्त सैनिक घाटी में पहुंचाए गए थे। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से लेकर सेना प्रमुख तक, शीर्ष सुरक्षा अधिकारी तैयारियों का जायजा लेने के लिए राज्य के दौरे कर रहे थे। प्रशासन के यहां-वहां से लीक हो रहे निर्देश बता रहे थे कि सरकारी अधिकारियों तथा कर्मचारियों को राशन आदि जमा करने समेत, लंबे समय के लिए आपात स्थिति में रहने की तैयारियों के निर्देश दिए गए थे। सभी कर्मचारियों की छुट्टियां रद्द करने से लेकर सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों के हर वक्त ड्यूटी पर रहने तक के निर्देश तो दिए ही गए थे। अमरनाथ यात्रा बीच में रोकने से लेकर, तीर्थयात्रियों तथा सभी गैर-कश्मीरियों को बाहर धकेलने, जैसे अभूतपूर्व कदम उठाए गए थे।
इस सब को देखते हुए, कश्मीर की सभी प्रमुख पार्टियों के नेताओं ने और सत्ताधारी भाजपा को छोड़कर दूसरी अनेक राष्ट्रीय पार्टियों ने भी, बार-बार सरकार से इस संबंध में विश्वास में लेने का आग्रह किया था कि वह क्या करने की तैयारी कर रही थी? यहां तक कि राज्य में विपक्षी पार्टियों के एकजुट होकर इस संबंध में आवाज उठाने पर, सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू कर दिया गया।
और जैसे खासतौर पर कश्मीरी जनता को, भारतीय राज्य के सामने उसकी औकात दिखाने के लिए और भारत सरकार की निरंकुश ताकत का प्रदर्शन करने के लिए भी, कश्मीरी जनता को ऐन तब तक पूरी तरह से अंधेरे में ही रखा गया, जब तक कि गृहमंत्री की हैसियत से अमित शाह ने, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा औपचारिक रूप से खत्म ही करने के राष्ट्रपति के आदेश और जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म करने तथा उसके टुकड़े करने का विधेयक, राज्यसभा के सामने पेश नहीं कर दिया।
वास्तव में आम कश्मीरियों को तो दिल्ली में उनके भाग्य का फैसला किए जाने के बाद भी काफी समय तक इस संबंध में अंधेरे में ही रहना था क्योंकि उनके लिए जानकारी के सारे चैनल ही बंद कर दिए गए थे।
जो लोग मोदी के राज में भारत के हिंदू-पाकिस्तान बनाए जाने की आशंकाएं जताते रहे हैं, वे कम से कम कश्मीर में अपनी आशंकाओं को सच होता देख रहे होंगे, जहां पाकिस्तान के जनरलों के राज के जमाने के नमूने पर, ‘मार्शल लॉ’ का पदार्पण हो चुका है।
बेशक, मोदी-शाह जोड़ी ने कश्मीर के अपने ‘फाइनल सोल्यूशन’ के कानूनी बचाव का पूरा इंतजाम किया लगता है। जम्मू-कश्मीर का, भारतीय संघ के कानूनों के लागू होने के संदर्भ में विशेष दर्जा स्थापित करने वाली, संविधान की धारा-370 को निरर्थक करने के लिए, इस धारा की ही उपधारा-1 का और संविधान की धारा-368 के प्रावधानों में संशोधन का इस्तेमाल किया गया है और राज्य के संवैधानिक दर्जे को ही बदल देने के लिए, राज्य संविधान सभा की जगह, विधानसभा तथा विधानसभा की जगह राज्यपाल की ‘सहमति’ को बैठाने जैसी कानूनी तिकड़मों का सहारा लेकर, जो कानूनी तौर पर असंभव नजर आता था, उसे कानूनी तौर पर संभव बनाने की कोशिश की गयी है। लेकिन, इन कानूनी तिकड़मों पर अगले कई साल तक चलने वाली संवैधानिक/ कानूनी लड़ाइयां अपनी जगह, यह है तो एक प्रकार का संवैधानिक तख्तापलट ही।
आखिरकार, जब विभाजन के साथ आयी आजादी में, धार्मिक बहुलता के आधार पर इलाकों का विभाजन/ वितरण हो रहा था, मुस्लिम-बहुल कश्मीर रियासत की जनता ने प्रचंड बहुमत से, इस्लामी पाकिस्तान के बजाए, धर्मनिरपेक्ष हिंदुस्तान के साथ रहने का सचेत फैसला लिया था। कश्मीर की जनता के इस सचेत फैसले का सम्मान करते हुए, भारत की संविधान सभा ने संविधान की धारा-370 के जरिए, जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ के अन्य राज्यों से बढ़कर अधिकार या विशेषाधिकार देने यानी संक्षेप में उसके लिए अतिरिक्त स्वायत्तता सुनिश्चित करने का जो फैसला लिया था, उसका किसी भी तरह की कानूनी तिकड़म से पलटा जाना भी अगर संवैधानिक तख्तापलट नहीं है तो और संवैधानिक तख्तापलट क्या होगा?
जैसाकि संविधान विशेषज्ञ, प्रो. फैजान मुस्तफा ने बार-बार रेखांकित किया है, संविधान सभा के जम्मू-कश्मीर के लिए अतिरिक्त स्वायत्तता के प्रावधान को बहुत हद तक खोखला तो पहले ही किया जा चुका था। लेकिन, अब तो न सिर्फ धारा-370 के खोल को भी ध्वस्त कर दिया गया है बल्कि जम्मू-कश्मीर को तोड़कर और दोनों टुकड़ों को केंद्र-शासित क्षेत्र बनाकर, उसका दर्जा देश के अन्य 28 राज्यों से भी नीचे कर दिया गया है। बचे हुए जम्मू-कश्मीर की जो विधानसभा होगी उसके अधिकारों की वास्तव में क्या स्थिति होगी, इसे दिल्ली या पोंडिचेरी जैसे विधानसभा-युक्त केंद्र-शासित क्षेत्रों के उदाहरण से बखूबी समझा जा सकता है। यह कश्मीर की जनता के साथ भारत के संविधान निर्माताओं द्वारा किए गए वादे के साथ, सरासर विश्वासघात है।
बेशक, भाजपा और उसके मातृ संगठन, आरएसएस का हमेशा से यह सपना रहा है कि भारत के इकलौते मुस्लिम बहुल राज्य के रूप में कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म किया जाए। 72वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व-संध्या पर मोदी-शाह जोड़ी ने ठीक यही किया है बल्कि इससे भी एक कदम आगे बढ़कर, उसे तोड़ दिया है और उसका राज्य का दर्जा भी खत्म कर दिया है। लेकिन, यह धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारतीय गणराज्य की जगह पर, हिंदू राष्ट्र कायम करने के संघ-भाजपा के असली एजेंडा को आगे बढ़ाने में तो मददगार हो सकता है, लेकिन यह इस अशांत क्षेत्र को और अशांत करने और इस तरह भारत की एकता को और कमजोर करने का ही काम करेगा।
किसी से छुपा हुआ नहीं है कि भारतीय संघ से कश्मीरी जनता का अलगाव, मोदी के बहुसंख्यकवादी राज में और बढ़ा ही है। आतंकवादी संगठनों में स्थानीय युवाओं की भर्ती में मोदी राज के पांच साल में हुई उल्लेखनीय बढ़ोतरी, इसका अकाट्य सबूत है।
लेकिन, यह किस्सा यहीं खत्म नहीं हो जाता है। मोदी राज के पांच साल में, जबकि पहले पीडीपी के साथ गठजोड़ सरकार के जरिए और पिछले करीब डेढ़ साल से गवर्नर के जरिए, राज्य की सुरक्षा व्यवस्था लगभग सीधे ही केंद्र सरकार के हाथों में ही रही है, इस सरकार की ‘कठोर’ नीति का घाटी के लिए नतीजा क्या निकला है? खुद सरकार द्वारा संसद में दिए गए आंकड़ों के अनुसार, जहां 2014 में कुल 222 आतंकवादी घटनाएं हुई थीं, 2018 तक यह संख्या तीन गुनी से कुछ ही कम यानी 614 तक पहुंच चुकी थी। इसी दौरान, इन हमलों में मारे गए सुरक्षाकर्मियों की संख्या 47 से बढ़कर 91 पर पहुंच चुकी थी और इसके साथ ही इन घटनाओं में मारे जाने वाले नागरिकों की संख्या भी 28 से बढ़कर 38 हो गयी थी। यानी इस नीति का एक ही नतीजा हुआ है- -पहले से ज्यादा हिंसा, ज्यादा मौतें!
कहने की जरूरत नहीं है कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के पंगु बनाकर और आम कश्मीरी के आंख-कान बंद करा के, कश्मीरियों से कश्मीर को ‘‘आजाद’’ कराने की संघ की ताजा कार्रवाई, घाटी में हिंसा और मौतों का सिलसिला और तेज करने का ही काम करेगी।
यानी सामान्य विवेक का तर्क तो यही कहता है कि यह जम्मू-कश्मीर के और देश के भी हालात को, और बिगाडऩे का ही कदम है। यह जैसाकि राज्यसभा में बहस में एक वक्ता ने कहा भी, कश्मीर को एक और फिलिस्तीन या अफगानिस्तान बनने के ही रास्ते पर धकेलेगा।
लेकिन, देश के बिगाड़ में ही संघ-भाजपा और उनकी मोदी सरकार का हित है। यह हमला प्रकटत: कश्मीरियों पर है, पर सिर्फ उन्हीं तक सीमित नहीं है। इसका मकसद मोदी राज के लिए बहुसंख्यकवादी उन्मत्त राष्ट्रवाद की छवि को पुख्ता करना है, जिसकी चकाचौंध में जनता की वास्तविक दुर्दशा को छुपाया जा सके।
इस समय जबकि आर्थिक मंदी के साये लंबे होते जा रहे हैं, तमाम मोर्चों पर बुरी खबरों को दबाने के लिए यह और भी जरूरी है। वास्तव में वे भारतीय जनता को भी भंग कर वे नयी जनता गढ़ रहे हैं, जो बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवादी उन्माद के नशे में अपनी वास्तविक दुर्दशा को भूलने के लिए तैयार होगी। इसलिए, यह हमला सिर्फ कश्मीर पर या कश्मीरियों पर ही नहीं, भारत की एकता, संविधान और सभी भारतीयों पर है और इसी रूप में देश भर की जनतंत्र-प्रेमी ताकतों को इसका मुकाबला करना होगा।
राजेंद्र शर्मा


