धार्मिक कट्टरवाद, किसी भी धर्म का क्यों न हो, तर्कशील विमर्श को बर्दाश्त नहीं करता
धार्मिक कट्टरवाद, किसी भी धर्म का क्यों न हो, तर्कशील विमर्श को बर्दाश्त नहीं करता
एक और ब्लॉगर की हत्या
7 अगस्त को बांग्लादेश के एक और सक्रिय ब्लॉगर निलय नील की इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा हत्या कर दी गयी। इस हत्या की जिम्मेदारी भारतीय उपमहाद्वीप में अलकायदा की बांग्ला शाखा ‘अंसार अल इस्लाम’ ने ली है। पिछले दो वर्षों में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने आठ बुद्धिजीवियों पर हमले किए जिसमें से केवल एक आसिफ मोहिउद्दीन ही जीवित रह सके।
इस वर्ष फरवरी में अविजित राय, मार्च में वशीकुर्रहमान मई में अनंत बिजय दास और अगस्त में निलय नील आंतकवाद के शिकार हुए। इससे पहले अहमद राजिब हैदर, सुन्नयुर्रहमान और शफीउल इस्लाम मारे जा चुके हैं।
निलय नील अपने लोकप्रिय ब्लॉग ‘मुक्तो मन’ के माध्यम से कट्टरपंथियों की आलोचना करते थे और अन्याय तथा अंध्विश्वास के खिलाफ आवाज उठाते थे। लेखन के अलावा निलय सामाजिक न्याय से संबंधित विभिन्न आंदोलनों के साथ जुड़े थे और बांग्लादेश में वैज्ञानिकों तथा तर्कशील लोगों के संगठन ‘बांग्लादेश विज्ञान व युक्तिवादी संगठन’ (बांग्लादेश साइंस ऐंड रेशनलिस्ट्स एसोसिएशन) के संस्थापक सदस्य थे। हत्यारों ने उनके परिवार के सदस्यों के सामने घर के अंदर घुस कर उनकी हत्या की। अभी कुछ ही दिनों पहले 15 मई को उन्होंने अपने ब्लॉग पर एक घटना का जिक्र किया था और आशंका व्यक्त की थी कि उनकी हत्या हो सकती है। उन्होंने पूरा विवरण दिया था कि किस तरह दो व्यक्तियों ने उनका पीछा किया और उन्हेx घेरने की कोशिश की। बाद में जब उन्होंने पुलिस थाने में इसकी रिपोर्ट दर्ज करानी चाही तो पुलिस ने रिपोर्ट लिखने से इनकार कर दिया।
जाहिर सी बात है कि सरकार इन कट्टरपंथियों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाना चाहती। निलय नील का वास्तविक नाम निलय चटर्जी था और उन्हें कुछ लोग नीलाद्रि चट्टोपाध्याय निलय के नाम से भी जानते थे। वह ढाका में ही रहते थे। 2013 में उन्होंने ढाका विश्वविद्यालय से एम.फिल की डिग्री ली थी और शाहबाग आंदोलन से घनिष्ठ रूप से जुड़े थे। फरवरी 2015 में अविजित राय और मई में अनंत बिजय दास की हत्या के विरोध में जनमत तैयार करने और हत्यारों का पर्दाफाश करने में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभायी थी। अविजित राय की हत्या की ही तरह निलय नील की हत्या पर न केवल बांग्लादेश का बल्कि समूचे दक्षिण एशिया का बौद्धिक समुदाय काफी रोष में है।
पिछले कुछ समय से बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी और इसके छात्र संगठन इस्लामी छात्र शिविर की सक्रियता बढ़ गयी है हालांकि औपचारिक तौर पर ये दोनों संगठन प्रतिबंधित हैं।
जनवरी 2013 में समाजशास्त्र के प्रोफेसर आसिफ मोहिउद्दीन पर हमला करने वाले संगठन ‘अंशारुल्लाह बांग्ला टीम’ की प्रोफेसर से यह शिकायत थी कि उन्होंने कुरान की आलोचना की थी और धार्मिक उग्रवाद का विरोध करते थे। उन पर भी घातक हमला किया गया था लेकिन किसी तरह वह बच गए।
शफीउल इस्लाम भी राजशाही विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में अध्यापक थे। नवंबर 2014 में ‘अंसार-अल-इस्लाम’ नामक संगठन ने उन पर हमला किया। इस हमले का कारण बताते हुए एक वेबसाइट पर संगठन की ओर से लिखा गया कि ‘राजशाही विश्वविद्यालय का यह अध्यापक अपनी कक्षा में लड़कियों से कहता था कि वे बुर्का पहन कर न आवें। उसने अपने विभाग में ऐसे अध्यापकों को तरजीह दी जो न तो दाढ़ी रखते थे और न कुर्ता पायजामा पहनते थे। उसकी वजह से तमाम लड़कियों ने बुर्का पहनना छोड़ दिया था।’ इसी वेबसाइट पर शफीउल इस्लाम के खिलाफ छपी उस खबर को उद्धृत किया गया जो जमाते-इस्लामी संगठन से जुड़े अखबार में छपी थी।
इस वर्ष के प्रारंभ में अविजित राय की हत्या के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस कांड की काफी चर्चा हुई थी और न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक लेख में लिखा था कि बांग्लादेश में ब्लॉग चलाना एक खतरनाक काम हो गया है। ढेर सारे लेखकों ने सरकार की इस बात के लिए आलोचना की थी कि वह अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए कुछ नहीं कर रही है।
इसमें कोई शक नहीं कि इन हत्याओं के पीछे कट्टरपंथी समूहों का हाथ है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि देश के अंदर वोट की राजनीति ने एक ऐसा जहरीला वातावरण तैयार कर दिया है जिसमें कट्टरपंथ के समर्थकों और कट्टरपंथ के विरोधियों के बीच खतरनाक किस्म के ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है।
बांग्लादेश की घटनाओं को देखने से आने वाले दिनों के भारत के परिदृश्य के बारे में आशंका पैदा होना स्वाभाविक है क्योंकि यहां भी वोट बैंक को ध्यान में रखकर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक घृणित इरादे के साथ ध्रुवीकरण की कोशिशें जारी हैं। अभी 30 मार्च 2015 को एक अन्य ब्लॉगर वशीकुर्रहमान की जब हत्या हुई तो कट्टरपंथियों ने यही आरोप लगाया कि रहमान लगातार इस्लाम विरोधी लेख लिख रहे थे।
इन हत्याओं के जरिए यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि कट्टरपंथ के खिलाफ लिखने और तर्कपूर्ण बातें कहने वालों को दंडित किया जाएगा। मई 2015 में सिलहट में अनंत बिजयदास की हत्या के पीछे भी यही मकसद था। वह भी ‘मुक्तो मन’ में नियमित लिखते थे, उन्होंने विज्ञान पर और सोवियत संघ पर कुछ पुस्तकें लिखी थीं और ‘जुक्ति’ (तर्क) नामक एक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक थे।
अविजित राय की ही तरह अनंत बिजय दास ने भी खुलकर यह लिखा था कि वे धार्मिक आडंबर से दूर हैं और किसी भी धर्म में नहीं बल्कि तर्कशीलता में विश्वास करते हैं।
अभी कुछ ही दिनों पूर्व पुणे में हिन्दू कट्टरपंथी तत्वों ने अजीत दाभोलकर की इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि वह अंधविश्वास के खिलाफ सामाजिक चेतना विकसित करने में लगे थे। महाराष्ट्र के अत्यंत लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता गोविंद पानसरे की हत्या के पीछे भी ऐसे ही तत्वों का हाथ था। बांग्लादेश और भारत की घटनाओं को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक कट्टरवाद, चाहे वह किसी भी धर्म विशेष का क्यों न हो, तर्कशील विमर्श को बर्दाश्त नहीं करता। चूंकि उसके पास अंधविश्वास और दकियानूसी प्रवृत्तियों के जवाब में कोई तर्क नहीं होता लिहाजा वे ऐसे तत्वों का सफाया करने में जुट जाते हैं। यह एक खतरनाक स्थिति है।
आनंद स्वरूप वर्मा


