देश की राजधानी दिल्ली ने पिछले दिनों एक बहुत ही करुण प्रकरण का हास्यास्पद अंत देखा। राजधानी के बड़े हिस्से में और वास्तव में अपेक्षाकृत संपन्न दक्षिणी दिल्ली को छोड़क़र, राजधानी के ज्यादातर इलाकों में कई-कई दिन से कूड़े के ढेर लगे हुए थे। पूर्वी दिल्ली नगर पालिका के अंतर्गत आने वाले इलाके में तो स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि स्वास्थ्य संबंधी मामलों के जानकारों ने तो महामारी फैलने की चेतावनियां तक देनी शुरू कर दी थीं।
यह स्थिति इस क्षेत्र में सफाई कर्मचारियों की अनिश्चितकालीन हड़ताल की वजह से पैदा हुई थी। और कर्मचारियों की हड़ताल की नौबत दो-दो, तीन-तीन महीने से तनख्वाह ही न मिलने की वजह से आयी थी। पूर्वी दिल्ली तथा उत्तरी दिल्ली नगर पालिकाओं के कर्मचारियों को खासतौर पर पिछले कुछ महीनों में बार-बार इस समस्या का सामना करना पड़ा है। प्रदर्शनों तथा सांकेतिक हड़तालों के बाद भी जब समस्या टस से मस नहीं हुई, कर्मचारियों को आखिरकार हड़ताल का रास्ता पकडऩा पड़ा। उसके बाद सफाई कर्मचारियों की रुकी हुई तनख्वाह की समस्या का कुछ हल भी निकला है, हालांकि यह हल भी एकदम तात्कालिक है।
वास्तव में राजधानी में सफाई कर्मचारियों की हड़ताल के और लंबे खिंचने के संभावित राजनीतिक नतीजों को भांपकर, दिल्ली की आप सरकार ने दोनों नगरपालिकाओं के लिए तत्काल 500 करोड़ रु0 देने का एलान किया था, ताकि उनके कर्मचारियों को तनख्वाह मिल सके। लेकिन, इसके साथ ही केजरीवाल सरकार ने सफाई कर्मचारियों से, जो अब आम तौर पर आम आदमी पार्टी के पक्के समर्थक माने जाते हैं, साफ तौर पर यह भी कह दिया था कि अगले महीने की तनख्वाह के लिए राज्य सरकार का नहीं, केंद्र सरकार का दरवाजा खटखटाएं।
इसके बाद नगरपालिका कर्मचारियों की रुकी हुई तनख्वाह मिलने की घोषणा के साथ ही, सफाई कर्मचारियों के काम पर लौटने और कई दिनों से पड़ा कूड़ा उठाए जाने की शुरूआत हुई। और इसके बाद आया अपनी अति हास्यास्पदता से करुणा पैदा करने वाला अंत। ऊपर केंद्र में और नीचे, दिल्ली की इन नगरपालिकाओं में सत्ताधारी, भाजपा और दिल्ली में सरकार चला रही आम आदमी पार्टी के नेताओं के बीच अचानक कूड़ा उठाने और एक-दूसरे को दिल्ली को गंदा करने के लिए जिम्मेदार ठहराने की प्रतियोगिता शुरू हो गयी, ताकि फोटो के रूप में सनद रहे और वक्त-जरूरत पर काम आए।
बेशक, राजधानी की इस करुण नियति के सूत्र, यहां पिछले कुछ महीनों से जारी राजनीतिक घमासान से भी जुड़े हुए हैं। इस घमासान की जड़ में यह सचाई है कि इसी साल के शुरू में हुए विधानसभाई चुनाव में दिल्ली की जनता ने, साल भर पहले हुए लोकसभाई चुनाव में भारी जीत के बाद अजेय नजर आ रहे, नरेंद्र मोदी के विजय रथ को रोककर दिखाया था। वास्तव में दिल्ली की जनता ने मोदी के विजय रथ को रोका ही नहीं था, उसे ऐसी करारी हार का मुंह दिखाया था, जैसी हार दिल्ली के चुनावी इतिहास में भाजपा को इससे पहले कभी नहीं देखनी पड़ी थी। सत्तर सीटों की विधानसभा में भाजपा, सिर्फ तीन सीटों पर ही सिमट कर रह गयी, जबकि ..... जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें .....

इससे कुछ ही महीने पहले हुए लोकसभाई चुनाव में भाजपा ने दिल्ली की सभी लोकसभाई सीटों पर जीत हासिल की थी। सहकारी संघवाद में विश्वास करने के अपने सारे दिखावे के बावजूद, नरेंद्र मोदी की पार्टी और सरकार इस हार को हजम नहीं कर पायी है। इसका नतीजा केंद्र सरकार तथा उसके प्रतिनिधि के रूप में लैफ्टीनेंट गवर्नर के बीच जिस अंतहीन रस्साकशी की शक्ल में सामने आया है, राजधानी की सडक़ों पर हफ्ते भर पड़ा रहा कूड़ा उसके साथ भी जुड़ा हुआ था।
फिर भी इस पूरे मामले को सिर्फ भाजपा और आप पार्टी के बीच के राजनीतिक झगड़े में घटा देना भी सही नहीं होगा। बेशक, दिल्ली के नगर निकायों की खस्ता हालत में, जहां वे न्यूनतम सफाई सेवाएं बनाए रखने के लिए अपने कर्मचारियों का तनख्वाह तक देने में असमर्थ हो गए हैं, उक्त राजनीतिक खींच-तान के अलावा इन नगर निकायों को दिए गए राजस्व के अधिकारों से लेकर, राजधानी में दिल्ली नगर निगम के अविचारपूर्ण त्रिभाजन का भी कुछ न कुछ हाथ जरूर है। इस त्रिभाजन का एक नतीजा तो दीवार पर लिखे हुए की तरह साफ है। यह संयोग ही नहीं है कि इसी त्रिभाजन के निकले दक्षिण दिल्ली नगर निगम को, जो अपने हिस्से में कहीं बड़ी संख्या में संपन्नतर बस्तियां आने के चलते, राजस्व के पहलू से कहीं बेहतर स्थिति में है, तमाम राजनीतिक कारणों की समानता के बावजूद, न सफाई कर्मचारियों की हड़ताल का सामना करना पड़ा और न कूड़े के जमा होते ढेरों का। इसके बावजूद, बुनियादी सच यही है कि दिल्ली के नगर निकायों का उक्त संकट, वास्तव में देश भर में नगर निकायों में कमोबेश ऐसे ही तीखे रूप में सामने आ रहे संकट को भी दर्शा रहा था। नगर निकायों का साधनों के अभाव में नागरिकों को न्यूनतम बुनियादी सेवाएं मुहैया न करा पाना या पर्याप्त रूप से मुहैया न करा पाना, एक पुरानी बीमारी है, जिसे नवउदारवादी नीतियों के दौर ने आम नागरिकों के लिए और उग्र बना दिया है। यह हुआ है संपन्नतर इलाकों को अलग कर, उनके दरवाजे बढ़ते पैमाने पर खर्चीली किंतु बेहतर निजीकृत सेवाओं के लिए खोले जाने के जरिए। जाहिर है कि इसने पहले ही साधनों की कमी झेल रहे साधारण इलाकों में, जहां नवउदारीकरण के दौर में आबादी पहले से कहीं तेजी से बढ़ रही है, सार्वजनिक सेवाओं के प्रावधान के लिए संसाधनों की कमी को और भी उग्र बना दिया है। यह संयोग नहीं बल्कि इस व्यवस्था में अंतर्निहित नियम का ही फल है कि उत्तर तथा पूर्वी दिल्ली के नगर निकाय, अपने अधिकारों में संरचनात्मक बदलाव के बिना, अब कभी भी अपने सफाई के अपने मौजूदा स्तर को भी बनाए नहीं रख सकते हैं, फिर उसमें सुधार का तो सवाल ही कहां उठता है।
दिल्ली का कूड़ा युद्ध इस माने में आंखें खोलने वाली घटना है कि वास्तव नगर सेवाओं की खस्ता से खस्ता होती हालत ही वह ठोस सचाई है, जिसे छुपाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल अपना "स्वच्छ भारत” अभियान खड़ा किया था। तस्वीर छपाने के मौकों और विज्ञापनी मुहिम के शोर ने कुछ समय के लिए इस सचाई को ढांप भले ही लिया हो, उससे यह सचाई बदल नहीं सकती थी। उल्टे इस सचाई को बदलने में कोई दिलचस्पी भी न होने का ही सबूत पेश करते हुए, नरेंद्र मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट में, जन सुविधाओं से जुड़े दूसरे सभी क्षेत्रों की तरह, सीवरेज तथा सफाई से जुड़े अन्य खर्चों में भी उल्लेखनीय रूप से कटौती ही की गयी है। दूसरी ओर, स्कूलों में शौचालय निर्माण का जो ठोस लक्ष्य, कार्पोरेट क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया गया था, उसके मामले में साल भर में बीस फीसद भी प्रगति न होने जितना ही बड़ा सच, यह भी है कि इस काम में भी सार्वजनिक उद्यमों ने जितना कमिटेंट दिया है, कार्पोरेट घरानों का कमिटमेंट, उसके बीसवीं हिस्से के बराबर है। दूसरे शब्दों में "स्वच्छ भारत” अभियान, जिसे मोदी सरकार के एक साल के सर्वेक्षणों में जनता ने उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि माना है, वास्तव में इस सरकार के दूसरे वादों/ दावों की तरह, खोखले प्रचार का ही मामला है।
विश्व योग दिवस के पालन के शोर के बीच, ऐसे ही धूम-धड़ाके से शुरू हुए और साल भर में ही करीब-करीब भुला भी दिए गए, 'स्वच्छ भारत’ अभियान के इस हश्र की याद दिलाना और भी जरूरी है। याद रहे कि 'योग’ एक ऐसा अभियान है, जिसमें प्रचार के अलावा सरकार को कुछ करना ही नहीं है। लेकिन, इस प्रचार से अगर साधारण जनता की कारगर एलोपैथी तक पहुंच और घटाए जाने जैसा कोई बड़ा नुकसान न भी हो तब भी, उसमें जो बहुत गाढ़े बहुसंख्यकवादी संकेत छुपे हुए हैं, वे आने वाले दिनों में अपना रंग जरूर दिखा रहे होंगे।
हरियाणा के मुख्यमंत्री ने हरेक गांव में योगशाला खुलवाने के लक्ष्य की घोषणा के जरिए, बहुसंख्यकवादी गोलबंदी के विशद ताने-बाने में एक नये तत्व के जोड़े जाने का रास्ता दिखा दिया है। न तन की, न मन की और आस-पास की, यह सफाई नहीं गंदगी बढ़ाने का ही मामला है।
0 राजेंद्र शर्मा
राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।