नई जलवायु में धर्मनिरपेक्षता की फसल
नई जलवायु में धर्मनिरपेक्षता की फसल
अरुण कुमार त्रिपाठी
उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव ने विधानसभा में विपक्षी आलोचनाओं का जवाब देते हुये एक बड़ी बात कही है। उनका यह कहना कि हम उत्तर प्रदेश को गुजरात नहीं बनने देंगे एक खास अर्थ रखता है। विडम्बना यह है कि उनके इस बयान को न तो उनकी पार्टी के नेताओं ने अहमियत दी, न ही दूसरी पार्टी के नेताओं ने। रही मीडिया की बात तो उसे तो आजकल नरेंद्र मोदी की गर्जना के आगे कुछ सुनाई ही पड़ रहा है। इन स्थितियों के बावजूद अगर अखिलेश यादव ने एक गम्भीर बयान दिया है तो उनसे, उनकी पार्टी के नेताओं से पूछा जाना चाहिये कि उत्तर प्रदेश को गुजरात बनने से रोकने के लिये उनकी क्या तैयारी है। आखिर वह कौन सी शक्तियाँ हैं जिनके बूते पर वे प्रदेश को गुजरात बनने से रोकने की बात कर रहे हैं। उनके इस बयान का स्पष्ट मतलब है कि वे प्रदेश को गुजरात की तरह हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला नहीं बनने देंगे। सवाल उठता है कि क्या वे इसी लड़खड़ाए और राजनीतिक नेतृत्व के प्रति अविश्वास से भरे प्रशासन के सहारे प्रदेश को गुजरात बनने से रोकेंगे या उनके पास कम्युनिस्टों की तरह प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की कोई ऐसी फौज है जिसके बूते पर वे ऐसा दावा कर रहे हैं, या फिर उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता का इतना बड़ा सामाजिक आधार है जिसके भरोसे वे ऐसा कह रहे हैं। या अखिलेश यादव के पास कोई ऐसी बड़ी वैचारिक विरासत है जो परमाणु ऊर्जा की तरह उनके साथ लम्बे समय तक चलती रहेगी। या फिर उन्होंने आधुनिक विकास की आस लगाये युवा और पूँजीवाद से यह उम्मीद है।
यह सारे सवाल अखिलेश यादव से ही नहीं उत्तर प्रदेश के सभी निवासियों को अपने आप से पूछना चाहिये और उत्तर प्रदेश ही क्यों पूरे देश के निवासियों से भी पूछा जाना चाहिये क्योंकि अगर उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिक हो जायेगा तो क्या देश बच पायेगा? भारत के विभाजन में उत्तर प्रदेश की बड़ी भूमिका तो थी ही और आज भी हिन्दू राष्ट्रवादियों को लगता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार को जीते बिना उनका सपना पूरा नही होगा। उस सपने की पूर्ति अगर गुजरात, मध्यप्रदेश और छ्त्तीसगढ़ से होनी तो होती तो वह हो गयी होती।
समाजवादी विचारक और राजनेता डॉ. राम मनोहर लोहिया का मानना था कि पिछड़ी और दलित शक्तियाँ स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी भूमिका में नहीं थीं इसलिये भारत का विभाजन हुआ। अगर उनके हाथ में संघर्ष का नेतृत्व होता तो यह देश न बँटता। उनका मानना था कि देश का सवर्ण नेतृत्व लड़ते-लड़ते थक गया था और उसकी औसत उम्र भी काफी हो चुकी थी इसलिये उसे सत्ता सुख चाहिये था। डॉ. लोहिया ऐसा इसलिये भी सोचते थे क्योंकि उनका मानना था कि इस देश को जाति और लैंगिक असमानता के कारण गुलाम होना पड़ा है और जब तक यह असमानता नहीं जायेगी तब तक गुलामी का खतरा बना रहेगा। वे साम्प्रदायिकता को एक तरफ अपने इतिहास और परम्परा की गलत समझ से पैदा हुयी बीमारी मानते थे और दूसरे गुलाम दिमाग की उपज।
उन्हीं की बात को बढ़ाते हुये उनके प्रखर अनुयायी किशन पटनायक भी धर्मनिरपेक्षता के घोषणा पत्र में इस गुरुत्तर दायित्व को शूद्रों के कंधों पर ही डालते हैं। उनका मानना था कि- भारत की सामाजिक आर्थिक परिस्थिति इतनी बदल चुकी है कि व्दिज जातियों के नेतृत्व में किसी सामाजिक आर्थिक परिवर्तन का कोई कारगर आन्दोलन नहीं होने वाला है। वे आगे कहते हैं कि— यह जमाना बीत चुका है जब नेहरू, नंबूदिरीपाद, जयप्रकाश, पीसी जोशी, सुभाष बोस और लोकमान्य तिलक न सिर्फ खुद व्दिज जाति के थे बल्कि अपनी-अपनी कमेटियों में सौ फीसदी व्दिजों को रखकर प्रगतिशील आन्दोलन का नेतृत्व कर सकते थे। उनकी विश्वसनीयता बनी रहती थी। आगे यह सम्भव नहीं है। आगे के लिये सत्य यह है कि या तो शूद्रों, पिछड़ों और दलितों के नेता अपनी-अपनी उपजाति का नेतृत्व करना छोड़कर पूरे राष्ट्र का नेतृत्व करने का दायित्व लें या फिर सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के आन्दोलनों का सिलसिला ही टूट जायेगा।
डॉ. राममनोहर लोहिया और किशन पटनायक की इन प्रतिस्थापनाओं और रणनीति में स्थिति का आशावादी विश्लेषण भी है और निराशा के सूत्र और कर्तव्य भी छुपे हैं। अगर हम यह मान लें कि पिछड़ा और दलित नेतृत्व स्वाभाविक तौर पर धर्मनिरपेक्ष होता है तो हम कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार, शिवराज सिंह चौहान और आज के नरेंद्र मोदी की परिघटना को समझ ही नहीं सकते। इस लोकतन्त्र में राष्ट्रनिर्माण और सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये हमें किसी न किसी विचारधारा का दामन पकड़ना होगा। साम्राज्यवाद से मुक्त पूँजीवाद में जितनी धर्मनिरपेक्षता की उम्मीद थी वह पूरी हो चुकी है। वजह साफ है कि पूँजीवाद कभी उपनिवेशवाद के सहारे चलेगा तो कभी साम्राज्यवाद के सहारे। वह शांति का दावा भी करेगा और हमेशा युद्ध की तैयारी भी रखेगा। यह हम पिछले 20-25 सालों में देख चुके हैं और उन्हीं के प्रभाव में भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में आतंकवादी, कट्टरपन्थी और साम्प्रदायिक ताकतें मजबूत हुयी हैं। कुछ इसी तरह का संकट जाति सम्बंधी राजनीति के साथ है। वह जब तक जातिगत गुलामी से लड़ते रहने और जातिविहीन समाज बनाने के बारे में सोचेगा तब तक वह साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ पायेगी। जैसे ही वह जातिगत और पारिवारिक सत्ता के निहित स्वार्थों से जुड़ जायेगी वह साम्प्रदायिकता के सामने न सिर्फ कमजोर हो जायेगी बल्कि स्वयं वैसी ही खतरनाक हो जायेगी। अस्सी के दशक के आखिर में जब मुलायम सिंह यादव, अयोध्या में बाबरी मस्जिद बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे तो तत्कालीन प्रधानमन्त्री चंद्रशेखर ने उन्हें एक खास जाति के युवाओं का दल बनाकर आत्मरक्षा का सुझाव दिया था, क्योंकि ब्राह्मणवादी और साम्प्रदायिक ताकतें उन्हें मारने की योजना बना रही थीं लेकिन आज जब ब्राह्मणवादी ताकतें पीछे हट गयी हैं और साम्प्रदायिकता की कमान पूरी तरह पिछड़ी जातियों के ही हाथ में है तब इस रणनीति पर अलग तरह से सोचने की जरूरत है।
आज की साम्प्रदायिकता अस्सी के दशक की तरह रथों पर बैठी हुयी नदियों का जल छिड़कती हुयी, शिला पूजती हुयी और त्रिशूल भाँजती हुयी मध्ययुगीन नहीं है। वह साइबर जगत के फेसबुक, ट्विटर, ईमेल और पूंजी के महत्वपूर्ण कारपोरेट ठिकानों पर बैठी हुयी निराकार, आधुनिक और वैश्वीकृत भी है। वह एक ऐसे समाज में फैल रही है जो ज्यादा धर्मभीरु तो है ही वर्गीय आधार पर ज्यादा विभाजित भी है। इसलिये आज अगर साम्प्रदायिकता से लड़ना है तो मंडल और आरक्षण की लाठी ही नहीं काम करेगी क्योंकि उसमें सामाजिक उत्थान की जगह पर निहित स्वार्थ हावी हो गया है। आज जातिगत असमानता मनोवैज्ञानिक रूप से तो कम हुयी है लेकिन वर्गीय विभाजन बढ़ा है। इसलिये धर्मनिरपेक्षता की रणनीति, वर्ग संघर्ष के आधार पर गढ़ी जानी चाहिये। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी किसान आदोलनों ने साम्प्रदायिक विभाजन को अतीत में पाटा है। धर्मनिरपेक्षता हर गली में उगने वाली वनस्पति नहीं है। वह एक सुगंधित किस्म का चावल है जो गहरे पानी में, खास जलवायु में और कम मात्रा में पैदा होता है, लेकिन जहाँ होता है वहाँ माहौल को खुशनुमा कर देता है। हमें उसके बीज को बचाकर रखने और उस जलवायु को पैदा करने की जरूरत है। पितृपक्ष के इस मौके पर जब व्यापक हिन्दू समाज धार्मिक आस्था और विश्वास के आधार पर अपने पुऱखों का आह्वान कर रहा है तब धर्मनिरपेक्षता को अंधविश्वास से मुक्त होकर अपने पुरखों और उनके विचारों के स्मरण की आवश्यकता है। संयोग से अक्तूबर का महीना ऐसे कई महापुरुषों की जयंती और पुण्यतिथि का है। उसके लिये हमारी राजनीति जाति और धर्म से ऊपर उठकर वर्गीय नजरिए से उनका आह्वान करें और उनके विचारों को विदा करने के लिये नहीं बल्कि मृत्यलोक की नई जलवायु में उसे नए सिरे से रोपने के लिये संजोयें।


