नये हिंदुत्व का नया हथियार विकास की राजनीति
नये हिंदुत्व का नया हथियार विकास की राजनीति
नये हिंदुत्व का नया हथियार विकास की राजनीति
अखिलेश यादव के विकास की राजनीति का ककहरा ही दलितों से बदतर स्थिति में जी रहे मुसलमानों के खिलाफ है
यह नये हिंदुत्व की विशेषता है जिसने विकास को अपनी भाषा में पिरो लिया है
विकास की राजनीति के पैरोकार कौन हैं ?
अनिल कुमार यादव
पूर्वांचल में प्रभुत्वशाली जातियों में एक लोकगीत गाया जाता है- चप्पल पे चमाइन चलै सैंडिल पे धोबिनिया, ये नेहरू चाचा बदल गईल दुनिया। बेशक यह गीत दलित समुदाय के खिलाफ गढ़ा गया।
एक दौर था जब उत्तर प्रदेश में दलित लखनऊ से घूमकर गांव वापस जाते थे तो ऊँची जातियों के लोग ताने कसते थे कि इसका दिमाग ख़राब हो गया है, लखनऊ से पार्क देखकर वापस आया है।
दलित समुदाय आज भी ऐसी अवमाननाओं को अक्सर झेलता है।भारतीय लोकतंत्र को लेकर कई दिलचस्प धारणाएं हैं, उतनी ही रोचक इसकी कहानी भी है।
औपनिवेशिक काल में ही भारत के आने वाले भविष्य को लेकर कई किस्म की भविष्यवाणी की गईं।
'अवर ड्यूटी टू इंडिया ' नाम के प्रसिद्ध व्यख्यान में चर्चिल ने कहा था - भारत को अंग्रेजों द्वारा छोड़ दिया जाना और उसे ब्राम्हणों की सत्ता में जाने दिया जाना एक क्रूर और धूर्ततापूर्ण नजरअंदाजी होगी।
स्ट्रेचियन अवधारणा के पैरोकार स्वाधीन राष्ट्र के तौर पर भारत का जन्म असंभव मानते थे।
भारत की आज़ादी के बाद भी भारतीय लोकतंत्र के असफल होने की भविष्यवाणी करने वालों की एक लंबी फेहरिस्त है। लेकिन भारतीय मतदाताओं ने इस पूरी अवधारणा को चुनावी प्रकिया में लगातार बढ़ रही अपनी हिस्सेदारी के आंकड़ों से नकार दिया। खास कर के दलित -पिछड़े और अल्पसंख्यकों ने अपने वोटों की ताकत से अपनी हिस्सेदारी भी दर्ज करायी।
भारतीय लोकतंत्र अपने सातवें दशक में प्रवेश कर चुका है तो जाहिर सी बात है कि उसकी तस्दीक भी होनी चाहिए कि इस 69 साल में हम कहाँ पहुंचे हैं?
भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद हक़ और आधिकार दिलाने के वादे पर रखी गयी थी। भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में 17 वीं विधान सभा का चुनाव होने वाला है। भाजपा और कांग्रेस ने इस चुनाव में मुद्दा बनाया है कि सपा-बसपा ने अपने शासन काल में जातिवाद को बढ़ावा दिया है और प्रदेश के विकास की प्रक्रिया में बाधा डाला है।
अपने कुनबे की लड़ाई में दो फाड़ हो चुकी सपा में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पहले से ही विकास को अपना धर्म बताते हुए विकास के नाम पर फिर से सत्ता में आने का दावा कर रहे हैं तो वहीं बसपा सुप्रीमो मायावती भी सर्वजन के विकास को अपना एजेंडा बता रही हैं।
यानी चुनावी राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा विकास माना जा रहा है।
विकास की इस नूराकुश्ती में वो भी शामिल हैं जिन्होंने जातिवादी और क्षेत्रवादी होने का आक्षेप भी झेला है। यह आक्षेप कितना सही-गलत है इस पर बहस हो सकती है।
लोकसभा 2014 के चुनाव के बाद कुछ लोग इस बात को बढ़ा-चढ़ाकर कर कहने लगे कि अब तो जाति की राजनीति करने के दिन लद गए। असल में इसके पीछे की भावना यह थी कि अब निचली जातियों की राजनीति तो गयी।
इसका एक आशय शायद यह भी था की अब ऊँची जातियों का वर्चस्व सहजता से स्थापित हो जायेगा।
हक़ और अधिकार को पाने के संघर्षो से इतर विकास की राजनीति के अंकगणित को समझना बहुत जरूरी है। ताकि हम लोकतंत्र की बुनियाद की मजबूती को परख सकें। साथ ही साथ विकास की राजनीति का धर्म और जाति से क्या रिश्तेदारी है इसको भी समझा जा सके।
लोकसभा 2014 के चुनाव में इस बात को प्रचारित करने में भाजपा सफल रही कि नरेंद्र मोदी विकास के मसीहा हैं। लेकिन विकास का मैट्रिक्स क्या है इसको समझना बहुत जरूरी है।
भाजपा का नेतृत्व अक्सर बड़े मंचों से यह कहते हुए सुना जाता रहा है कि वह हिंदू-मुसलमान की बात नही करते हैं, वो बस हिंदुस्तानियों की बात करते हैं। वह अल्पसंख्यकों के मुद्दे को तुष्टिकरण और दलितों और पिछड़ों के सवाल को जातिवाद से आसानी से जोड़ देतें हैं। लेकिन इस बहस को अगर थोड़ा सा और विस्तार दिया जाये तो यह बहस भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है, वहां तक बहुत आसानी से पहुँच जाएगी जिसको गोलवरकर ने शुरू की थी।
वस्तुतः यह नये हिंदुत्व की विशेषता है जिसने विकास को अपनी भाषा में पिरो लिया है।
यह शक तब और मजबूत हो जाता है जब बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा नेताओं के भाषणों की समीक्षा की जाये। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरक्षण के सवाल पर बैकफुट पर गयी भाजपा को बचाने के लिए कहा की आरक्षण की नीति हिंदू धर्म के सुधार की नीति है ताकि हिंदू धर्म में सबको बराबर किया जा सके। खैर आरक्षण के सवाल पर सामाजिक न्याय के पुरोधा कहे जाने वालों का हाल भी ऐसा ही है। सपा-कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्रों में मुसलामानों को आरक्षण देने की घोषणा की थी। जोकि एक तरह भाजपा के तर्कों को मजबूती करना था कि मुसलमानों के पूरे समुदाय के विभिन्न पहचानों को खत्म कर दिया जाये।
खैर विकास और हिंदुत्व की रिश्तेदारी बिलकुल साफ-साफ़ है।
पहली बार जब मुलायम सिंह के कुनबे में सिर फुटौव्वल की शुरुआत हो रही थी तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने चाचा शिवपाल के खेमे पर आरोप लगाया था कि उनके ऊपर दबाव दिया जाता है कि मुसलमानों के पक्ष में काम करूँ।
अखिलेश यादव के विकास की राजनीति का ककहरा ही दलितों से बदतर स्थिति में जी रहे मुसलमानों के खिलाफ है जबकि सपा ने अपने पिछले चुनावी घोषणा पत्र में सच्चर और रंगनाथ मिश्र कमेटी को अमली जामा पहनाने सहित आतंकवाद के नाम पर फसाएं गए बेगुनाह मुस्लिमों को रिहा करने का वादा किया था।
उत्तर प्रदेश के 20 फीसदी आबादी वाले मुस्लिम समाज के बड़े हिस्से ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था। जिसकी बदौलत सपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनायीं थी। आखिर अब मुसलमानों के प्रति अखिलेश यादव का ऐसा बयान देने का तर्क क्या है ? निश्चय ही इसका तर्क विकास की राजनीति में निहित है।
विकास के नाम पर अखिलेश यादव रामायण पार्क बनवा रहे हैं या फिर दुनिया का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर मथुरा में बनवा रहे हैं। पिता मुलायम सिंह की राजनीति से अलग विकास का राग अलाप रहे हैं।
ठीक यही हाल कांग्रेस का भी है। 2014 लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद अपनी समीक्षा बैठक के बाद कांग्रेस के नेता एके एंटोनी ने कहा कि पार्टी की मुस्लिमपरस्त छवि से नुकसान हुआ जिसकी वजह से कांग्रेस चुनाव हारी है। मायावती पहले ही मुसलमानो को कट्टरपंथी करार दे चुकी हैं। वस्तुतः विकास की पूरी राजनीति में मुसलमानों के बुनियादी मुद्दों की कोई जगह नहीं है। कुल मिलाकर विकास बहुसंख्यकवादी हिन्दू समाज का मुद्दा है। सिर्फ इतना ही नही हिन्दू समाज के भीतरी सवालों, हक़ और अधिकार के संघर्षों और अस्मिताओं को विकास का मैट्रिक्स निगल जायेगा।
विकास की यह राजनीति सिर्फ मुस्लिम विरोधी नहीं है बल्कि पिछड़े-दलितों के सवालों के भी खिलाफ है।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विकास की राजनीति के पैरोकार यह कहते सुने गए हैं कि भारत में राजनीतिक प्रक्रिया बहुत उलझाऊं है, विकास को इससे अलग करना है।
इसका साफ़-साफ़ मतलब है कि लोकतंत्र में हिस्सेदारी और इंसाफ की लड़ाई को दरकिनार किया जाये और उन अवमाननाओं के काले इतिहास पर विकास की चादर डाल दी जाय, जिसके पैरोकार कभी 'कर्पूरी करपुरा ले उस्तरा' या फिर दलितों पिछड़ों के नेताओं पर जातिवादी तंज कसते थे।
विकास की राजनीति की पैरोकारी करने वाले इस बात को भली-भांति जानते हैं की लोकतंत्र की समावेशी राजनीतिक प्रक्रिया को विकास के नाम पर रोका जा सकता है और इसी राजनीति से ऊँची जाति के वर्चस्व को बनाया रखा जा सकता है।
मसलन विकास की इस राजनीति को ऐसे समझा जाना चाहिए कि जिस बच्चे के स्कूल का नाम विकास है उसे घर पर हिंदू बुलाया जाता है।
अनिल कुमार यादव, गिरि विकास अध्ययन संस्थान, लखनऊ में शोधार्थी हैं।


