वीरेन्द्र जैन

नरेन्द्र मोदी ने गत 20 दिसम्बर को संसदीय बोर्ड की बैठक में कैमरे की उपस्थिति में दो-तीन बार अपनी आँखें गीली होने जैसी प्रतीति दी। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि अगर आज अटलजी स्वस्थ होते तो वे मेरी जगह बैठे होते और कितने खुश होते। जब 1999 के लोकसभा चुनाव में मैंने गुजरात से बीस सीटें जीत कर दी थीं तो अटल जी ने मुझ से खुश होकर कहा था कि यह तुमने क्या कर दिया।

अपनी सोच और कठोर कार्यप्रणाली वाली छवि के विपरीत जब मोदी भरे गले और नम आँखों से बात करते हैं तो विरोधियों को वे नकली लगते हैं। राहुल गाँधी ने तो पिछले दिनों स्मरण भी दिलाया था कि वे अमिताभ बच्चन से भी अच्छे अभिनेता हैं, और किसी दिन सभा में आँसू बहा कर दिखा सकते हैं। उन्होंने तब भी आंसू दिखाये थे जब पहली बार संसद भवन में आये थे और अडवाणीजी ने भाजपा के पूर्ण बहुमत लाने की कृपा करने के लिए उन्हें बधाई दी थी। उन्होंने अमेरिका में जुकरवर्ग को साक्षात्कार देते हुए अपनी मां के श्रम को याद करते हुए भी आंसू बहाये थे, और नोटबन्दी पर हो रहे व्यापक विरोध को शांत करने के लिए भी आंसू बहाये थे।

गुजरात का चुनाव मोदी के लिए बड़ा धक्का इसलिए है क्योंकि उनके प्रधानमंत्री बनने तक लोगों को यह भरोसा नहीं था कि गुजरात माडल को सामने रखे बिना साम्प्रदायिकता की दाग झेल रही भाजपा स्वतंत्र रूप से सत्ता में आ सकती है। उसी गुजरात में जीत कमजोर पड़ने से नींव कमजोर होने जैसा आभास हो रहा है।

सच यह भी है कि 2014 में उनकी सरकार बनने में एंटी इंकम्बेंसी के साथ दलबदल कर आये नेता, क्रीतदास मीडिया, सेवानिवृत्त अधिकारी, कार्पोरेट प्रदत्त अटूट धन का प्रवाह, जातिवाद व साम्प्रयदायिकता, सैलीब्रिटीज आदि रहे थे फिर भी उन्होंने दो जगह से चुनाव लड़ा था और प्रधानमंत्री पद के चयन तक मुख्यमंत्री पद से स्तीफा नहीं दिया था।


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प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने भाजपा के नाम को छोड़ कर पार्टी में वह सब कुछ बदलने की मुहिम छेड़ दी थी जो पुराने लोगों को महत्व देती थी। वैसे तो अटल बिहारी वाजपेयी जी उम्रगत अस्वस्थता के कारण सक्रिय राजनीति में वापिस नहीं आ सकते थे, पर फिर भी मोदी ने अटल बिहारी के समय के और उनके साथ के सारे लोगों को मुख्यधारा से हाशिए पर धकेल दिया। उनके जो दो एक रिश्तेदार सक्रिय राजनीति में थे उन्हें बाहर कर दिया या निष्क्रिय कर दिया।

मोदी ने अटल बिहारी के शासन के दौर को कभी अच्छा नहीं बतलाया व सत्तर साल तक चली पिछली सरकारों की आलोचना करते हुए उन्होंने अटल जी के समय की एनडीए को भी कुशासन बतलाने में सम्मलित किया।

उल्लेखनीय है कि 2002 में गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में हुयी आगजनी के बाद गुजरात में जो नरसंहार हुआ था उसके विरोध में अटल जी ने मीडिया के सामने राजधर्म के पालन की सलाह दी थी। आज के समय आंसू बहाते हुए प्रदर्शित होने वाले मोदी अटलजी की सलाह के समय हँस रहे थे जिसका वीडियो उपलब्ध है। भुला दिये गये भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि गुजरात में हुए नरसंहार से जन्मी आलोचनाओं से दुखी होकर जब अटल जी स्तीफा देने जा रहे थे तब उन्हीं ने उन्हें रोका था।

गुजरात विधानसभा चुनाव में हुयी दुर्दशा से पूर्व मोदी ने कभी अटल जी के नाम को आदर से याद नहीं किया और अब जब याद किया तब भी अपने योगदान की प्रशंसा के साथ याद किया। मेरे नैटपरिचित एक ब्लागर जिन्हें बाद में ट्रालर के रूप में ही पहचाना गया ने अपने तब के ब्लाक में लिखा था कि बहुत सारे ब्लागर्स का लम्बा प्रशिक्षण शिविर गुजरात में आयोजित किया गया था जिसमें समय समय पर मोदी स्वयं आते रहे थे। यह वही समय था जब मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाने की प्रक्रिया चल रही थी। इस शिविर से लौट कर आने के बाद उन्होंने उन्होंने अपनी पोस्टों में जो प्रमुख परिवर्तन किया था वह था अटल बिहारी शासन काल की भी आलोचना करना। उनके इस बदले रुख से तब मैं अचम्भित हुआ था। कन्धार में आतंकवादियों को छोड़ कर आने से लेकर मुशर्र्फ से वार्ता तक उन्होंने निन्दा करना शुरू कर दिया था। किसी विरोधी की तरह उनके कमजोर हिन्दुत्व और गलत धर्मनिरपेक्षता की आलोचना भी वे करने लगे थे। पार्टी के पोस्टरों में अटल बिहारी वाजपेयी और अडवाणी जी के फोटुओं का स्तेमाल कठोरता से रोक दिया गया था।


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जब मोदी जी प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी चुन लिये गये थे तब राजनाथ सिंह नाम मात्र के अध्यक्ष रह गये थे और प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव प्रबन्धन का सारा काम नरेन्द्र मोदी और अमित शाह देखने लगे थे। अडवाणी जी तक का टिकिट उन्होंने अंतिम समय तक लटकाये रखा था। लोकसभा चुनाव में जीत के बाद जब मंत्रिमण्डल गठन का सवाल आया तब उन्होंने अटल मंत्रिमण्डल के प्रमुख सदस्यों को दूर ही रखा। अडवाणी जी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, आदि तो दूर ही रखे गये सुषमा स्वराज को भी उनकी रुचि से भिन्न और वरिष्ठता से अलग विभाग दिया। रक्षा विभाग को भले ही अरुण जैटली को वित्त मंत्रालय जैसे भारी भरकम मंत्रालय के साथ नत्थी किये रहे पर किसी वरिष्ठ को उसके आसपास फटकने भी नहीं दिया। उमा भारती को ऐसा विभाग दे दिया जिसमें उनके कर सकने लायक कुछ भी नहीं था। जो मंत्री बनाये गये वे सब उपकृत लोग थे जो बाबुओं की तरह उनके वाक्य को अंतिम मान कर चलते थे।


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अगले लोकसभा चुनावों से पहले जब कुछ विधानसभाओं के चुनाव सामने हैं, और नोटबन्दी, जीएसटी, से लेकर निष्प्रभावी आर्थिक नीतियों के कारण न काला धन वापिस आने और न रोजगार का सृजन होने के कारण असंतोष चरम की ओर बढ रहा है तब अटल जी की याद आ रही है। कट्टर हिन्दुत्ववादियों के प्रति जनता के बढते गुस्से को थामने के लिए अपेक्षाकृत उदार अटल बिहारी की फोटो में उम्मीदें देख रहे हैं। अटलजी इस अवसरवाद का उत्तर दे पाने की स्थिति में भी नहीं हैं।