Medha Patkar becomes an icon of struggle in Narmada Valley: largest movement of displaced

मेधा पाटकर का 9 दिन पुराना अनशन खत्म हो गया है। आगामी नौ सितंबर को भोपाल में नर्मदा घाटी के विस्थापितों के पुनर्वास (Rehabilitation of Narmada Valley Migrants) को लेकर मुख्यमंत्री और शासन से बातचीत होना है। लेकिन गुजरात सरकार और केंद्र सरकार 9 दिन की भूख हड़ताल के बाद भी पसीजी नहीं है।

यह आंदोलन एक इतिहास बना गया है, नर्मदा घाटी में पिछले 35 सालों से चल रहे संघर्ष की किरदार मेधा पाटकर हैं, जिन्होंने इस आंदोलन को ना केवल मध्य प्रदेश बल्कि पूरी दुनिया में एक पहचान दी है। मध्य प्रदेश की पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने जिस तरह से समझौते किए और मध्य प्रदेश के हक को नजरअंदाज कर नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार के सामने शरणम् गच्छामि की स्थिति रखी उसने घाटी में रह रहे 32000 परिवारों, जो विस्थापित होने वाले हैं, उनके हकों को ही नहीं बल्कि देश की सबसे ज्यादा उपजाऊ हजारों हेक्टेयर भूमि को भी बलि पर चढ़ा दिया है।

मध्य प्रदेश की वर्तमान सरकार संवाद तो कर रही है, लेकिन उसके हाथ में ज्यादा कुछ नहीं है। हालांकि विश्व बैंक ने इस परियोजना के लिए करोड़ों डालर की मदद भी की है, उसके बावजूद विस्थापित होने वाले लोगों की जमीन जा रही है, घर जा रहे हैं, दुकान जा रहे हैं, रोजगार जा रहा है और उसको लेकर केंद्र और गुजरात की सरकार बिल्कुल चिंतित नहीं है। नर्मदा बचाओ आंदोलन इन्हीं विस्थापित लोगों के पुनर्वास के पूर्व बांध की ऊंचाई बढ़ाने और उसे 139 मीटर भरने का विरोध कर रहा है।

मेधा पाटकर की संघर्ष की कहानी (Medha Patkar's story of struggle)

मेधा पाटकर की भी संघर्ष की अपनी कहानी है। मेधा ताई नर्मदा घाटी (Narmada Valley) में इस आंदोलन और विस्थापन पर पीएचडी करने के लिए आई थी। जब वे नर्मदा घाटी में आई थीं, तब मराठी फिल्मों की एक सफल नायिका थीं, लेकिन घाटी के लोगों के विस्थापन ने उनके मन को इतना प्रभावित किया कि वे यहीं की होकर रह गई।

अब नर्मदा बचाओ आंदोलन और मेघा पाटकर एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। घाटी के विस्थापित हो रहे लोगों के अलावा भी मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के तमाम वे लोग मेधा पाटकर में एक उम्मीद देखते हैं और इसी के चलते हर घर में नर्मदा बचाओ आंदोलन पहुंच गया है। एक तरह से मेधा पाटकर का जीवन नर्मदा को समर्पित हो गया है।

नर्मदा बांध परियोजनाओं के हजारों डूब प्रभावित परिवारों (Thousands drown affected families of Narmada dam projects) ने अपने हक के लिए एक नहीं तीन सरकारों से मैदानी संघर्ष, बंद कमरों की कानूनी व प्रशासनिक लड़ाई यदि 34 सालों बाद भी नहीं हारी तो इसके पीछे सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर जैसे दधीचि का होना है।

कौन हैं दधीचि Who is Dadhichi

दधीचि हमारे पौराणिक आख्‍यान का वह किरदान जिसने असुरों के साथ संघर्ष के लिए देवों को अपनी अस्थियां दान दी थीं। मेधा पाटकर ने भी अपना पूरा जीवन नर्मदा घाटी के विस्‍थापितों को न्‍याय दिलवाने के लिए होम कर दिया है।

34 सालों से चल रहा आजीविका का यह संकट अब लगभग अपने निर्णायक मोड़ पर आ गया है। गुजरात सरकार और केन्‍द्र सरकार डूब प्रभावितों की तो ठीक मप्र सरकार भी सुन नहीं रही हैं। वे सरदार सरोवर को अधिक ऊंचाई 138 मीटर तक भरना चाहते हैं। इस कदम से मप्र के सवा सौ से अधिक गांव डूब जाएंगे। 18 हजार से अधिक परिवार बिना पुनर्वास के ही डूब क्षेत्र में आ जाएंगे।

मेधा पाटकर के साथ ग्रामीण न्‍याय की आस लिए नर्मदा के पानी में खड़े हैं। वे जानते हैं कि नर्मदा का बढ़ता जल स्‍तर उनके लिए जलमग्‍न होने की चेतावनी है, मगर डूबने के पहले वे एक बार और अपनी मुट्ठियां तान संघर्ष कर लेना चाहते हैं।

गुजरात सरकार बांध को अधिकतम ऊंचाई तक भर लेना चाहती है, तब सवाल उठता है कि क्‍या सभी लोगों का पुनर्वास हो गया है?

हकीकत यह है कि धार तहसील में जमीन दी गई तो कब्जा नहीं, खलघाट में जमीन दी तो घर नहीं मिला।

नर्मदा बचाओ आंदोलन के अनुसार 2017 में जितने घर जबरन तोड़े गए थे, उनमें से भिताड़ा, झंडाना, रोलीगांव, कुकडिया जैसे गांवों के परिवारों को तो अब तक मकान बनाने के लिए भूखण्ड भी नहीं मिले हैं। पुनर्वास स्थलों पर पीने का पानी हो या सीवेज व्यवस्था, चारागाह या श्‍मशान, अस्‍पताल, स्‍कूल जैसी बुनियादी सुविधाएं हों, यह कौन देख रहा है?

पिछले साल की मप्र की भाजपा सरकार ने भरे-पूरे डूब-क्षेत्र को शून्‍य आबादी वाला बताकर बांध की ऊंचाई बढ़ाने पर सहमति दे दी थी। यह गुजरात के आगे आत्‍मसमर्पण की उसकी राजनीतिक मजबूरी ही थी। तभी तो दिसंबर में कांग्रेस के सत्‍ता में आने के बाद मप्र सरकार ने 'सरदार सरोवर' के 'शिकायत निवारण प्राधिकरण' (जीआरए) के सामने स्‍वीकार किया कि साढ़े आठ हजार से अधिक प्रकरण लंबित हैं और डूब-क्षेत्र के 76 गांवों में कम-से-कम छह हजार परिवारों का पुनर्वास नहीं हुआ है।

मप्र सरकार ने नाराजी जताई है गुजरात सरकार सरदार सरोवर बांध से बिजली भी नहीं बना रहा है और अधिकतम ऊंचाई तक पानी भर कर मप्र के लोगों को डूबो रहा है।

यहां यह समझना आवश्‍यक है कि गुजरात, मप्र, महाराष्‍ट्र और राजस्‍थान को शामिल कर बनाई गई सरदार सरोवर बांध परियोजना में सबसे अधिक जमीन मप्र की डूब रही है। इस परियोजना से बनने वाली बिजली का 57 फ़ीसदी हिस्सा मध्य प्रदेश को, 27 फ़ीसदी हिस्सा महाराष्ट्र को और 16 फ़ीसदी हिस्सा गुजरात को मिलना तय हुआ। राजस्थान को सिर्फ़ पानी मिलना तय हुआ था।

मप्र की चिंता यह है कि गुजरात न बिजली बना रहा है और न पुनर्वास नहीं हुए परिवारों की चिंता करते हुए नर्मदा का जलस्‍तर घटाने को तैयार हो रहा है। मप्र सरकार अपना विरोध दर्ज करवा चुकी है। गुजरात सरकार सुन नहीं रही है और डूब प्रभावितों के सामने करो या मरो का सवाल पैदा हो गया है।

डूब प्रभावित कह रहे हैं कि गुजरात के 204 बांधों के जलाशय लबालब भरे हुए हैं। गुजरात को अगले साल गर्मियों में सरदार सरोवर के पानी की जरूरत नहीं होगी। गुजरात वैसे भी मप्र को बिजली बना कर नहीं दे रहा है। मप्र को बिजली की जरूरत भी नहीं है। उसके पास 21 हजार मेगावाट विद्युत निर्माण की क्षमता है और मांग की पूर्ति प्रतिदिन मात्र 7000 मेगावाट से हो रही है।

मेधाजी का सवाल है कि लोगों को बिना पुनर्वास डूबो देने की इतनी जल्‍दी क्‍यों हैं? क्‍या बांध पूरा भरने के लिए साल भर तक रूका नहीं जा सकता है

Narmada Bachao Andolan is an example of maturity of the ongoing environmental movements in India

नर्मदा बचाओ आंदोलन (Narmada Bachao Andolan) भारत में चल रहे पर्यावरण आंदोलनों की परिपक्वता का उदाहरण है। इसने पहली बार पर्यावरण तथा विकास के संघर्ष को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया जिसमें न केवल विस्थापित लोगों बल्कि वैज्ञानिकों, गैर सरकारी संगठनों तथा आम जनता की भी भागीदारी रही। नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना का उद्घाटन 1961 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। लेकिन तीन राज्यों-गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के मध्य एक उपयुक्त जल वितरण नीति पर कोई सहमति नहीं बन पायी। 1969 में, सरकार ने नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (Narmada Water Disputes Tribunal) का गठन किया ताकि जल संबंधी विवाद का हल करके परियोजना का कार्य शुरु किया जा सके।

1979 में न्यायाधिकरण सर्वसम्मति पर पहुँचा तथा नर्मदा घाटी परियोजना ने जन्म लिया जिसमें नर्मदा नदी तथा उसकी 4134 नदियों पर दो विशाल बांधों - गुजरात में सरदार सरोवर बांध तथा मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर बांध, 28 मध्यम बांध तथा 3000 जल परियोजनाओं का निर्माण शामिल था।

1985 में इस परियोजना के लिए विश्व बैंक ने 450 करोड़ डॉलर का लोन देने की घोषणा की। सरकार के अनुसार इस परियोजना से मध्य प्रदेश, गुजरात तथा राजस्थान के सूखा ग्रस्त क्षेत्रों की 2.27 करोड़ हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल मिलेगा, बिजली का निर्माण होगा, पीने के लिए जल मिलेगा तथा क्षेत्र में बाढ़ को रोका जा सकेगा।

नर्मदा परियोजना ने एक गंभीर विवाद को जन्म दिया है

एक ओर इस परियोजना को समृद्धि तथा विकास का सूचक माना जा रहा है जिसके परिणाम स्वरूप सिंचाई, पेयजल की आपूर्ति, बाढ़ पर नियंत्रण, रोजगार के नये अवसर, बिजली तथा सूखे से बचाव आदि लाभों को प्राप्त करने की बात की जा रही है वहीं दूसरी ओर अनुमान है कि इससे तीन राज्यों की 37000 हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाएगी, जिसमें 13000 हेक्टेयर वन भूमि है। यह भी अनुमान है कि इससे 248 गांव के एक लाख से अधिक लोग विस्थापित होंगे। जिनमें 58 प्रतिशत लोग आदिवासी क्षेत्र के

रामस्वरूप मंत्री

(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार और सोशलिस्ट पार्टी इंडिया की मध्यप्रदेश इकाई के अध्यक्ष हैं)