नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते (symbiotic relationship)
नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते (symbiotic relationship)
स्याह दौर में कागज कारे-2
- सुभाष गाताडे
भाजपा की अगुआई वाले गठजोड़ को मिली जीत के फौरी कारणों पर अधिक गौर करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और उस पर प्रतिक्रिया भी दी जा चुकी है। जैसा कि प्रस्तुत बैठक के निमंत्रण पत्रा में ही लिखा गया था कि ‘भाजपा की इस अभूतपूर्व जीत के पीछे ‘मीडिया तथा कार्पोरेट तबके एवं संघ की अहम भूमिका दिखती है और कांग्रेस के प्रति मतदाताओं की बढ़ती निराशा ने’ इसे मुमकिन बनाया है। विश्लेषण को पूरा करने के लिए हम चाहें तो ‘युवाओं और महिलाओं के समर्थन’ और ‘मोदी द्वारा आकांक्षाओं की राजनीति के इस्तेमाल’ को भी रेखांकित कर सकते हैं। हम इस बात के भी गवाह हैं कि इन चुनावों ने कई मिथकों को ध्वस्त किया है।-
- मुस्लिम वोट बैंक का मिथक बेपर्द हुआ है
- यह समझदारी कि 2002 के जनसंहार की यादें लोगों के निर्णयों को प्रभावित करेंगी, वह भी एक विभ्रम साबित हुआ है।
- यह आकलन कि पार्टी और समाज के अन्दर नमो के नाम से ध्रुवीकरण होगा, वह भी गलत साबित हो चुका है।
मेरी समझ से यह अधिक बेहतर होगा कि हम हिन्दुत्व दक्षिणपंथ के उभार के फौरी कारणों पर अपना ध्यान केन्द्रित करने के बजाय - जिसे लेकर कोई असहमति नहीं दिखती - अधिक गहराई में जायें और इस बात की पड़ताल करें कि चुनाव नतीजे हमें क्या ‘कहते’ हैं। मसलन्
- भारत में विकसित हो रहे नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता के सहजीवी रिश्ते के (symbiotic relationship) बारे में
- हमारे समाज के बारे में जहां मानवाधिकार उल्लंघनकर्ताओं को महिमामण्डित ही नहीं किया जाता बल्कि उनके हाथों में सत्ता की बागडोर सौंपी तक जाती है
- भारतीय राज्य - बिल्कुल आधुनिक संस्था - का भारतीय समाज के साथ रिश्ता, जो अपने बीच से समय समय पर ‘बर्बर ताकतों’ को पैदा करता रहता है
दरअसल, अगर हम अधिक गहराई में जायें, ऐसे कई सवाल उठ सकते हैं, जो ऐसी बैठकों में आम तौर पर उठ नहीं पाते हैं। और आप यकीन मानिये यह सब किसी कथित अकादमिक रूचियों के सवाल नहीं हैं, व्यवहार में उनके परिणाम भी देखे जा सकते हैं। वैसे हिन्दुत्व दक्षिणपंथ का यह उभार जिसे साम्प्रदायिक फासीवाद या नवउदारवादी फासीवाद जैसी विभिन्न शब्दावलियों से सम्बोधित किया जा रहा है, उसके खतरे शुरू से ही स्पष्ट हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देखें:
- देश के विभिन्न भागों में साम्प्रदायिक तनावों को धीरे हवा देना
- नफरत भरे भाषणों की प्रचुरता
- साम्प्रदायिक हिंसा के अंजामकर्ताओं के प्रति नरम व्यवहार
- पाठयपुस्तकों के केसरियाकरण
- अल्पसंख्यकों का बढ़ता घेट्टोकरण
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बढ़ती बंदिशें
- श्रमिकों के अधिकारों पर संगठित हमले
- पर्यावरण सुरक्षा कानूनों में ढिलाई
- भूमि अधिग्रहण कानूनों को कमजोर करने की दिशा में कदम
- दलितों-आदिवासियों की सुरक्षा के लिए बने कानूनों को बेहतर बनाने की अनदेखी
जैसे-जैसे इस मसले पर बहस आगे बढ़ेगी हम इन खतरों के फौरी और दूरगामी प्रभावों से अधिक अवगत होते रहेंगे। शायद जैसा कि इस दौर को सम्बोधित किया जा रहा है - फिर चाहे साम्प्रदायिक फासीवाद हो या कार्पोरेट फासीवाद हो - इस दौरान दोनों कदमों पर चलने की रणनीति अख्तियार की जाती रहेगी। ‘विकास’ के आवरण में लिपटा बढ़ता नवउदारवादी आक्रमण के हमकदम के तौर पर (जब जब जरूरत पड़े) तो साम्प्रदायिक एजेण्डा का सहारा लिया जाएगा ताकि मेहनतकश अवाम के विभिन्न तबकों में दरारों को और चैड़ा किया जा सके, ताकि वंचना एवं गरीबीकरण के व्यापक मुद्दे कभी जनता के सरोकार के केन्द्र में न आ सकें।
यह एक विचित्र संयोग है कि जब हम यहां हिन्दुत्व दक्षिणपंथ के उभार की बात कर रहे हैं, दक्षिण एशिया के इस हिस्से में स्थितियां उसी तर्ज पर दिखती हैं जहां विशिष्ट धर्म या एथनिसिटी से जुड़ी बहुसंख्यकवादी ताकतें उछाल मारती दिखती हैं। चाहे माइनामार हो, बांगलादेश हो, श्रीलंका हो, मालदीव हो या पाकिस्तान हो - आप नाम लेते हैं और देखते हैं कि किस तरह लोकतंत्रवादी ताकतें हाशिये पर ढकेली जा रही हैं और बहुसंख्यकवादी आवाज़ें नयी आवाज़ एवम् ताकत हासिल करती दिख रही हैं।
वैसे बहुत कम लोगों ने कभी इस बात की कल्पना की होगी कि अपने आप को बुद्ध का अनुयायी कहलानेवाले लोग बर्मा/माइनामार में अल्पसंख्यक समुदायों पर भयानक अत्याचारों को अंजाम देनेवालों में रूपान्तरित होते दिखेंगे। अभी पिछले ही साल ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अख़बार ‘गार्डियन’ एवं अमेरिकी अख़बार ‘न्यूयार्क टाईम्स’ ने बर्मा के भिक्खु विराथू - जिसे बर्मा का बिन लादेन कहा जा रहा है - पर स्टोरी की थी, जो अपने 2,500 भिक्खु अनुयायियों के साथ उस मुल्क में आज की तारीख में आतंक का पर्याय बन चुका है, जो अपने प्रवचनों के जरिए बौद्ध अतिवादियों को मुसलमानों पर हमले करने के लिए उकसाता है। बर्मा में रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति इन दिनों अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चिन्ता का विषय बनी हुई है। वहां सेना ने भी बहुसंख्यकवादी बौद्धों की कार्रवाइयों को अप्रत्यक्ष समर्थन जारी रखा है। विडम्बना यह भी देखी जा सकती है कि शेष दुनिया में लोकतंत्र आन्दोलन की मुखर आवाज़ कही जानेवाली आंग सान सू की भी माइनामार में नज़र आ रहे बहुसंख्यकवादी उभार पर रणनीतिक चुप्पी साधे हुए हैं।
उधर श्रीलंका में बौद्ध अतिवादियों की उसी किस्म की हरकतें दिख रही हैं। दो माह पहले बौद्ध भिक्खुओं द्वारा स्थापित बोण्डु बाला सेना की अगुआई में - जिसके गठन को राजपक्षे सरकार का मौन समर्थन प्राप्त है - कुछ शहरों में मुसलमानों पर हमले किए गए थे और उन्हें जानमाल एवं सम्पत्ति का नुकसान उठाना पड़ा था। तमिल उग्रवाद के दमन के बाद सिंहली उग्रवादी ताकतें - जिनमें बौद्ध भिक्खु भी पर्याप्त संख्या में दिखते हैं - अब ‘नये दुश्मनों’ की तलाश में निकल पड़ी हैं। अगर मुसलमान वहां निशाने पर अव्वल नम्बर पर हैं तो ईसाई एवं हिन्दू बहुत पीछे नहीं हैं। महज दो साल पहले डम्बुल्ला नामक स्थान पर सिंहली अतिवादियों ने बौद्ध भिक्खुओं की अगुआई में वहां लम्बे समय से कायम मस्जिदों, मंदिरों और गिरजाघरों पर हमले किए थे और यह दावा किया था कि यह स्थान बौद्धों के लिए ‘बहुत पवित्रा’ हैं, जहां किसी गैर को इबादत की इजाजत नहीं दी जा सकती। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा था कि इन प्रार्थनास्थलों के निर्माण के लिए बाकायदा सरकारी अनुमति हासिल की गयी है। यहां पर भी पुलिस और सुरक्षा बलों की भूमिका दर्शक के तौर पर ही दिखती है।
या आप बांगलादेश जाएं, या हमारे अन्य पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जाएं, वहां आप देखेंगे कि इस्लामिस्ट ताकतें किस तरह ‘अन्यों’ की जिन्दगी में तबाही मचाये हुए हैं। यह सही है कि सेक्युलर आन्दोलन की मजबूत परम्परा के चलते, बांगलादेश में परिस्थिति नियंत्रण में है मगर पाकिस्तान तो अन्तःस्फोट का शिकार होते दिख रहा है, जहां विभिन्न किस्म के अतिवादी समूहों द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ किए जा रहे अत्याचारों की ख़बरें आती रहती हैं, कभी अहमदिया निशाने पर होते हैं, तो कभी शिया तो कभी हिन्दू।
इस परिदृश्य में रेखांकित करनेवाली बात यह है कि जैसे आप राष्ट्र की सीमाओं को पार करते हैं उत्पीड़क समुदाय का स्वरूप बदलता है। मायनामार अर्थात बर्मा में अगर बौद्ध उत्पीड़क समुदाय की भूमिका में दिखते हैं और मुस्लिम निशाने पर दिखते हैं तो बांगलादेश पहुंचने पर चित्र पलट जाता है और वही बात हम इस पूरे क्षेत्र में देखते हैं। यह बात विचलित करने वाली है कि इस विस्फोटक परिस्थिति में एक किस्म का अतिवाद दूसरे रंग के अतिवाद पर फलता-फूलता है। मायनामार के बौद्ध अतिवादी बांगलादेश के इस्लामिस्ट को ताकत प्रदान करते हैं और वे आगे यहां हिन्दुत्व की ताकतों को मजबूती देते हैं। अगर 20 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में इस समूचे इलाके में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों ने एक दूसरे को मदद पहुंचायी थी, तो 21 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में हम बहुसंख्यकवादी आन्दोलनों का विस्फोट देख रहे हैं जिसने जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के प्रयोगों की उपलब्धियों को हाशिये पर ला खड़ा किया है।
.......जारी
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