मिल्टन फ्रीडमैन की ज़मात ने नवउदारवाद की वकालत करते हुए बहुराष्ट्रीय निगमों के हित में विकास की जिन जानलेवा शर्तों को अनिवार्य बताया था, वे हमारे यहाँ काफी फलीभूत हुए हैं।
मसलन-

मुक्त बाजार के नाम पर इजारेदार विदेशी पूँजी को बेलगाम लूट की छूट,
पूँजी की दुनिया भर में बेरोक आवाजाही, अपने देश में उसके लिए लाल कालीन बिछाना, लेकिन मजदूरों को भाषाई, क्षेत्रीय, धार्मिक और जतिगत भेदभाव के नाम पर लड़ाना,
बहुराष्ट्रीय पूँजी के सवाल पर सभी पार्टियों में आम सहमति, लेकिन गैरजरूरी अंदरूनी मामलों पर नूराकुश्ती,
श्रम उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर मजदूरों को हर अधिकार से वंचित करना और मजदूरी घटाना,
किसानों की ज़मीन हड़पना और उन्हें उजाड़ कर सस्ते श्रम की मंडी में धकेलना,
बज़ट मितव्ययिता के नाम पर सरकारी सेवाओं का निजीकरण और सब्सिडी में कटौती,
अमीरों को टैक्स में छूट और ग़रीबों पर टैक्स लादना,
सट्टेबाजों को सुविधा देना और तबाह होने पर उनको सरकारी धन से उबारना,

यह सब हमारे देश के शासक पार्टियों ने अपना लिया। फिर भी उनके दिन बहुरेंगे, इसमें संदेह है अमरीका अगर नवउदारवाद का प्रयोगस्थल है तो इस संदेह का मज़बूत आधार है। वह आज तक वित्तीय महासंकट से बाहर नहीं निकला है, बावजूद इसके कि वह अपना संकट भारत जैसे देशों पर लाद रहा है और हमारे शासक उसे अपनी ओरिजनल नीति कहकर जनता के गले में उड़ेल रहे हैं।
दिगंबर
दिगंबर, लेखक जाने-माने वामपंथी विचारक हैं।