डॉ प्रेम सिंह

तीसरी किस्त
सभी जानते हैं राजनीति या जीवन का कोई भी सिद्धांत अथवा अभ्यास निगुर्ण-निराकार नहीं होता है। कोई सिद्धांत अथवा अभ्यास एकमात्र नियामक भी नहीं होता। हालांकि इतिहास के हर दौर का एक युग-धर्म भी होता है, जो आधुनिक काल में राजनीति है। सब सिद्धांतों और अभ्यासों की कसौटी मनुष्य होता है और मनुष्य की कसौटी सामाजिकता। मनुष्य की सामाजिकता की कोशिशों को ही हम मानव सभ्यता कहते हैं। आधुनिक काल में सामाजिकता के निर्धारण का काम राजनीति करती है। वह सामाजिकता को खंडित अथवा खारिज करके नहीं चल सकती। उसी तरह सामाजिकता की भूमिका और स्वरूप राजनीति को नकार कर नहीं बन सकते। तभी लोहिया ने राजनीति को अल्पकालिक धर्म और धर्म को दीर्घकालिक राजनीति कहा है।
नवउदारवाद में सब कुछ की कसौटी मुनाफा और उसे कमाने का अखाड़ा बाजार है। नवउदारवाद राजनीति को भी बाजार की कसौटी पर लेता है। सामाजिकता का भी उसका वही पैमाना है, जिसमें भारत सहित दुनिया की अधिकांश आबादी का बहिष्करण (एक्सक्लूजन) किया जा रहा है, केवल अपनी सिविल सोसायटी स्थापित और सुरक्षित की जा रही है। इस सिविल सोसायटी के एक्टिविस्टों द्वारा राजनीति को भ्रष्ट बताने और लोगों को उससे दूर रहने के ‘उपदेश’ का यही निहितार्थ निकलता है। कहना न होगा कि वह तभी संभव है जब ‘राजनीति का गंदा खेल’ कांग्रेस-भाजपा और उनके पिछलग्गू क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए छोड़ दिया जाए।
एक वरिष्ठ पत्रकार साथी ने लिखा कि जो जंतर-मंतर नहीं जाना चाहते, वे राजनीति के मैदान में जाएं। उनका लहजा तंज कसने का है। सलाह नेक है लेकिन सपाट। पहली बात तो यह कि जंतर-मंतर, रामलीला मैदान, राजघाट आदि पर लोग भोपाल गैस त्रासदी, सांप्रदायिकता, विस्थापन, उत्पीड़न-दमन, आत्महत्या, बेरोजगारी के शिकारों के पक्ष में भी जाते हैं। इरोम शर्मीला के समर्थन और जीवन की चिंता में भी कुछ लोग जंतर-मंतर गए थे। वे लोग थोड़े होते हैं तो इसका एक कारण नवउदारवाद की लहरों पर परवान चढ़ा मीडिया भी है, जो लोकपाल विधेयक को सब समस्याओं के लिए जादू की छड़ी बना देता है। दूसरे, ऐसा नहीं है कि राजनीति का मैदान खाली पड़ा है जहां कोई भी जाकर अपनी राजनीति का झंडा गाड़ दे। नवउदारवादियों ने वहां तगड़ी पकड़ और पैठ बनाई है। वे जानते हैं नवसाम्राज्यवाद की दलाली के लिए जैसे भी हो राजनीति पर अपना कब्जा रखना अनिवार्य है - वंश से, परिवार से, जाति से, धर्म से, इलाके से, धन से, बल से, झूठ से, छल से, फरेब से। ‘लोकशक्ति के साधकों’ का राजनीति के प्रति नफरत का अभियान उसी सिक्के का दूसरा पहलू है। ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में भी कुछ लोग राजनीतिक लड़ाई लड़ते ही हैं।
राजनीति का तिरस्कार नवउदारवादी राजनीति को ही मजबूत नहीं बनाता, सांप्रदायिक राजनीति को भी वैसा ही मजबूत करता है। जो साथी टीम हजारे और रामदेव का धर्मनिरपेक्षीकरण करने के प्रयास में लगे हैं, वे यह हकीकत जान लें। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह के बयानों से सिविल सोसायटी खासी नाराज है कि वे जिस तरह सब मामलों में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों की भूमिका देख लेते हैं, भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के पीछे भी उन्हें आरएसएस की भूमिका नजर आती है। विशेषकर रामदेव से वे खासे खफा हैं। लोगों को लगता है, इस तरह की बयानबाजी से दिग्विजय सिंह जहां भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को कमजोर करते हैं, वहीं कांग्रेस को भी संकट में डालते हैं। लेकिन सोनिया गांधी को उनसे कोई परेशानी नहीं है। वे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की कांग्रेसी कवायद में उनके प्रमुख सिपहसालार हैं। सोनिया गांधी की कांग्रेस को सांप्रदायिक ताकतों की मौजूदगी चाहिए ताकि उनका भय दिखा कर वे अपने सेकुलर सिपाहियों को कांग्रेस के पीछे लामबंद कर सकें। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए यह अनिवार्य होगा कि समय आने पर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी उनके पक्ष में निर्णायक रूप से एकजुट हों। कहने का आशय यह है कि राजनीति का विरोध जिस तरह से नवउदारवाद के हक में है, उसी तरह से सांप्रदायिकता के हक में भी है। कपिल सिब्बल और दिग्विजय सिंह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह ने नवउदारवाद के मोर्चे पर कपिल सिब्बल को और संप्रदायवाद के मोर्चे पर दिग्विजय सिंह को तैनात किया हुआ है। प्रणव मुखर्जी की तैनाती दोनों मोर्चों की लादी ढोने के लिए है।

जारी........