किस्त-4

डॉ प्रेम सिंह

कुछ साथियों को इंडिया अगेंस्ट करप्शन के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से लोकतंत्र संवर्द्धन होता नजर आता है। सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों का इच्छित और प्रचारित सर्वशक्तिमान लोकपाल कोरा वैधानिक नहीं है। उसकी निर्मिती में भारतीयों की एक दिन सब को ठीक कर देने वाले तानाशाह के आने की दमित इच्छा की भी भूमिका है। जिसे साथी लोकतंत्रा संवर्द्धन बता रहे हैं वह तानाशाही मनोवृत्ति का पोषण भी सिद्ध हो सकता है। नवउदारवादी और संप्रदायवादी राजनीति को पुष्ट करने वाले गैर-राजनीतिक प्रयासों से भ्रष्टाचार मिटने वाला नहीं है। भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा तो लोगों की समस्याएं और गुस्सा बढ़ते जाएंगे। फिर एक दिन सीधे राजनीति से या फौज से एक तानाशाह आकर खुद को ‘देशपाल’ घोषित कर सकता है।
आज कड़क लोकपाल बनाने के लिए सत्याग्रह से जनमत संग्रह तक करने में शामिल लोग उसके साथ हो सकते हैं। पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ ने भ्रष्टाचार को निर्मूल कर देने के वादे के साथ फौजी तानाशाही कायम की थी। मुशर्रफ की कई साल की तानाशाही के बावजूद पाकिस्तान में भ्रष्टाचार बढ़ता गया, लोकतंत्र कमजोर होता गया और आतंकवाद ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। भ्रष्टाचार विरोधी जिस तरह से राजनीति से नफरत का माहौल बना रहे हैं और नवउदारवादी नीतियों से देश की आबादी और संसाधनों को बचाने के दावेदार जनांदोलनकारी समूह और व्यक्ति भी राजनीति से परहेज बरतने की अपनी प्रवृत्ति पर पुनर्विचार करने को राजी नहीं हैं, तानाशाही का खतरा बना रहना है। उदारीकरण की तानाशाही तो पिछले दो दशकों से देश में चल ही रही है। गांधी के देश में गांधी का नाम लेकर कहा जा रहा है कि राजनीति तो होती ही बेईमानी और भ्रष्टाचार का खेल है, जिससे कोई उम्मीद नहीं रखी जानी चाहिए। बताया जा रहा है कि देश में दलाल भले कितने ही हो जाएं, राजनीतिक कार्यकर्ता एक भी नहीं होना चाहिए, होने चाहिए केवल सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट। आश्चर्य होता है तानाशही के इस खतरनाक डिजाइन में साथी लोकतंत्र संवर्द्धन देख रहे हैं!
राजनीति विरोध के इस माहौल में संविधान और लोकतंत्र में विश्वास करने वाले सामान्य नागरिक अगर मुख्यधारा राजनीति को ही ज्यादा पसंद करें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। बल्कि राजनीति विरोधियों के मुकाबले उनकी नागरिक चेतना ज्यादा सार्थक कही जाएगी। मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों में ईमानदार सदस्य अथवा समर्थक बड़ी संख्या में होते हैं। हालांकि अपनी ही पार्टियों में उनकी पेश नहीं पड़ती, फिर भी उनकी भूमिका राजनीति विरोधियों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। लोकतंत्र की अंतर्निहित खूबियों, गत्यात्मकता ;डायनेमिक्स, और विभिन्न दबावों के चलते नवउदारवाद को स्वीकरने और चलाने वाली मुख्यधारा राजनीति उसके दुष्प्रभावों पर कुछ ब्रेक का काम करती चलती है। इसीलिए एक आशा यह बनती है कि स्थापित दलों के भीतर भी नवउदारवाद विरोधी राजनीति की गुंजाइश बन सकती है।
जारी……..