नवउदारवाद की संतानों ने इस देश के साथ जो गद्दारी की, वैसी दूसरी मिसाल नहीं
युद्ध, गृहयुद्ध, आतंक और धर्मोन्माद की अमेरिकी अर्थव्यवस्था से भारतीय अर्थव्यवस्था को जोड़ना बेहद आत्मघाती साबित हो सकता है
कालाधन ही अब इस देश की उत्पादन प्रणाली
अमेरिकी अर्थव्यव्स्था से जुड़े मुक्तबाजार पर खतरे का अंदेशा
गौर करें कि देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली को राजनीति से शिकायत है कि वह देश के विकास के रास्ते पर अड़ंगे डाल रही है।
संसद में कई महत्वपूर्ण विधेयकों के अटके रहने के बीच सरकार ने विपक्ष से अपील की कि वह बाधाकारी भूमिका नहीं अपनाये क्योंकि देश को अपनी विकास दर को अगले वर्ष तक 8 प्रतिशत से अधिक ले जाकर चीन से आगे निकलने का ऐतिहासिक अवसर मिला है।
नवउदारवाद की संतानों ने इस देश के साथ जो गद्दारी की, उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं है।
अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं ने कारपोरेट और वैश्विक पूंजी के हितों में देशज उत्पादन प्रणाली को सिरे से खत्म करके भारत को जो अमेरिकी उपनिवेश बना दिया, वह लंबे संघर्षों के बाद हमारे पुरखों की हासिल आजादी और हमारी संप्रभूता का बेशर्म राष्ट्रद्रोही हस्तातंरण है।
हमारी अर्थव्यवस्था इतनी निराधार है कि हम अमेरिका ले आने वाले वैश्विक इशारों से अपनी वित्तीय और मौद्रिक नीतियां तय करते हैं वह भी कारपोरेट और वैश्विक पूंजी और देशज कालाधन के हित में। कालाधन ही अब इस देश की उत्पादन प्रणाली है।
राष्ट्रद्रोही तत्वों ने मिथ्या राष्ट्रवाद की आड़ में बायोमैट्रिक डिजिटल रोबोटिक क्लोन नागरिकों को सही मायने में आधार नंबर देकर निराधार बना दिया है। अब आधार लाकर भी होंगे। कहा जा रहा है कि इसमें तमाम तरह के निजी दस्तावेज स्कूली सर्टिफिकेट से लेकर पैन कार्ड, आधार कार्ड वगैरह वगैरह स्कैन कराकर अपलोड करा दें तो कहीं भी आटोमैटिकैली आपके कागजात का बिना उन्हें दिखाये सत्यापन हो जायेगा। यानी बायोमैट्रिक तथ्य के अलावा आप निजी तमाम दस्तावेज वहां रखेंगे। डिजिटल देश बनाने की दिशा में यह अगला चरण है।
अब सबसे बड़ी खतरे की घंटी है कि वैश्विक मंदी का अब तक, 2008 की महामंदी में भी भारतीय अर्थव्यवस्था और भारतीय जनगण पर खास असर नहीं हुआ। सिर्फ अरसे तक शेयरों के भाव गिरते रहे, लेकिन अब वैश्विक इशारों का मतलब कयामत है।
दुनिया भर में पराधीन अर्थव्यवस्थाओं का हश्र हम देखते रहे हैं। हम शुरू से लगातार लिख रहे हैं कि डालर वर्चस्व और युद्ध, गृहयुद्ध, आतंक और धर्मोन्माद की अमेरिकी अर्थव्यवस्था से भारतीय अर्थव्यवस्था को जोड़ना बेहद आत्मघाती साबित हो सकता है कभी भी। दुनिया के इतिहास भूगोल में भूकंप और सुनामी कभी भी कहीं भी संभव है और अमेरिका में भी संभव है।
दुनिया भर के देशों को तोड़ने वाला अमेरिका टूटेगा नहीं, इसकी कोई गारंटी दे नहीं सकता। डालर वर्चस्व टूटेगा नहीं, इसकी भी गारंटी दी नहीं जा सकती।
तो जैसे रूबल और मार्क टूटने पर इन मुद्राओं और अर्थव्यवस्थाओं का हाल हुआ है, जैसे समूचा यूरोप विकसित हो दाने के बाद उत्पादन प्रणाली से बेदखल होकर आर्थिक झंझावत से गुजर रहा है, उससे सबक नहीं लेते तो डालर वर्चस्व टूटने से उससे नत्थी हमारी अर्थव्यवस्था का क्या हाल होना है, यह अभी कहा नहीं जा सकता। जिसकी न कोई उत्पादन प्रणाली है और न जिसका कोई आधार है।
अब शेयर बाजार ही अर्थव्यवस्था है। इंफ्रा बूम बूम के इस दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के जमाने में भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई बुनियादी आधार ही नही है।
भारतीय अर्थव्यवस्था का मतलब फर्जी आंकड़े, फर्जी परिभाषा, सहूलियत के मुताबिक आधार वर्ष में बदलाव, कारपोरेट हितों में निरंतर टैक्स छूट और आम जनता का अर्थव्यवस्था से थोक निर्वासन, रोजगार, आजीविका, नागरिकता, जल जंगल जमीन और राष्ट्रीय संसाधनों से निरंकुश बेदखली, फर्जी बजट, फर्जी राजस्व और संसाधन प्रबंधन, अमेरिकी फेड बैंक का दबाव और अमेरिका नियंत्रित आर्थिक संस्थानों का रिमोट कंट्रोल, रेटिंग एजंसियों का निरंतर हस्तक्षेप, फर्जी विकास दर, फर्जी विकास, फर्जी इंक्लुजन और डाउ कैमिकल्स मनसैंटो हुकूमत है।
जिसका प्रबंधन कारपोरेट वकील के हाथों में है और मीडिया जिसे रंगीन कंडोम की तरह जनता के सामने भोग के कार्निवाल बतौर पेश कर रहा है।
उत्पादन के आंकड़े, मुद्रास्फीति दर और वित्तीय घाटा, व्यापार घाटा और भुगतान संतुलन के आंकडे भी कारपोरेट सुविधा के मुताबिक हैं।
बिना फासीवादी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के उत्पादन प्रणाली और उत्पादक शक्तियों का सत्यानाश करके, देशज कारोबार, कृषि और देशज उद्योग को बाट लगाकर अबाध पूंजी की यह अंधी दौड़ असंभव है और इसीलिए वैश्विक पूंजी ने भारत में एक हिटलर की ताजपोशी की है।
जो सिलसिलेवार अपनी नरसंहार दक्षता और विशेषज्ञता के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की बची हुई संजीवनी शक्ति को पारमाणविक रेडिएशन से खत्म करता जा रहा है।
इसे समझने की जरूरत है कि जैसे हम कहते रहे हैं कि जाति व्यवस्था, रंगभेदी नस्लवाद और मनुस्मृति शासन मुकम्मल एकाधिकारवादी वर्तस्ववादी अर्थव्यवस्था है जो बहुसंख्य जनता के बहिष्कार और एथनिक क्लीजिंग पर आधारित है, उसी तरह शत प्रतिशत हिंदुत्व और सन 2021 तक भारत को इस्लाममुक्त और ईसाई मुक्त करने की युद्धघोषणा और दस दिगंत व्यापी धर्मोन्माद भी कुल मिलाकर हिंदू साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था है, जो बिल्कुल अमेरिकी युद्धक अर्थव्यवस्था के हितो में हैं।
हम बिना समझे बतौर राष्ट्र वियतनाम बनते जा रहे हैं, लेकिन हम वियतनाम जैसा प्रतिरोध भी नहीं कर सकते।
अकूत तेलभंडार से समृद्ध अरब दुनिया, मध्यपूर्व और इस्लामी विश्व को जैसे अमेरिका ने तबाही के कगार पर पहुंचा दिया है, वहीं हाल ग्लोबल हिंदुत्व के प्रायोजन से भारतीय उपमहाद्वीप का होने वाला है। भारत के पड़ोसी देश भी भारत के साथ साथ इस महाविनाश के शिकार होंगे।
हालात कितने संगीन है, इसे ऐसे समझें कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) की प्रमुख क्रिस्टीन लगार्ड ने भारत और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं को चेतावनी दी है। उन्होंने कहा है कि अगली बार जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में बढ़ोतरी करेगा तो इन बाजारों से बड़ी मात्रा में पूंजी निकलेगी।
सवाल यह है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर और भारत के वित्तमंत्री इतने लाचार क्यों हैं।
इस पर तुर्रा कारपोरेट लाबिंग और कारपोरेट फंडिंग से इस देश की राजनीति को जनता के पक्ष से कोई मतलब नहीं है। संसदीय सहमति से सारे आत्मध्वंसी सुधार सिर्फ वोट बैंक के गणित साधने की कवायद के तहत लागू हो रहे हैं और मिलियनरों बिलियनरों की राजनीति को न देश की पर वाह है और जनता की। यह अभूतपूर्व संकट है।
मसलन तृणमूल कांग्रेस ने संसद में वित्तमंत्री की ओर से बंगाल सरकार के विकास विरोधी रवैये की आलोचना से तिलमिलाकर साफ कर दिया कि भूमि अधिग्रहण को छोड़कर उसे किसी किस्म के सुधार से ऐतराज नहीं है। राज्यसभा में क्षत्रपों के क्षेत्रीय दल ही मोदी की नैया पार लगा रहे हैं।
तृणमूल कांग्रेस किसी नीति या अर्थव्यवस्था की समझ से ऐसा कर रही है, ऐसा भी नहीं है। धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण की नूरा कुश्ती जारी रखते हुए मोदी और दीदी साथ साथ हैं तो धर्मनिरपेक्षता और धर्मोन्माद भी उसी तरह सुधार एजंडा पर एकाकार है।
दीदी भूमि आंदोलन के जरिये चूंकि सत्ता में आयी है तो इस फंडे को वे किसी तरह छोड़ना नहीं चाहती। बंगाल में निवेश हो नहीं रहा है और जमीन की वजह से तमाम परियोजनाएं अटकी हुई हैं।
दीदी भूमि अधिग्रहण की इजाजत नहीं देंगी। लेकिन बीमा बिल, खुदरा बाजार से लेकर श्रम कानून संधोधन, नागरिकता कानून संशोधन और भूमि अधिग्रहण से कहीं ज्यादा खतरनाक खनन अधिनियम और कोयला अधिनियम, जिसका बंगाल की जनता और बंगाल की अर्थव्यवस्था से सीधा नाता है, ऐसे तमाम कानूनों के मामले में वह संघ परिवार के साथ मुस्तैद खड़ी हैं।
बाकी राजनीति की हालत भी वही है। इसके विपरीत जनता की अपनी कोई राजनीति है ही नहीं। वाम और बहुजन आंदोलन सिरे से हाशिये पर है और धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण की वजह से, अस्मिता सीमाबद्ध राजनीति के सत्तालोलुप तिलिस्म में भारतीय नागरिक का कोई वजूद ही नहीं है जो राष्ट्रहित के पक्ष में कोई आवाज बुलंद कर सकें।
किसी तरह की जनपक्षधर गोलबंदी नहीं है तो प्रतिरोध असंभव।
जनांदोलनों से भी कारपोरेट, मीडिया और पूंजी ने जनता को बेदखल कर दिया है। फर्जी आंदोलन और फर्जी विकल्प के भंवर में हम नियतिबद्ध वध्य बहुसंख्य जनगण है।
भारत में मोदी के गुजराती पीपीपी माडल मेकिंग इन स्मार्ट बुलेट विकास पर कारपोरेट दांव कितना ज्यादा है, इसे इस तरह समझें कि हितों के टकराव के आरोपों को देखते हुए अन्तिम पलो में इस प्रोजेक्ट से जुड़ा एक बड़ा टेंडर रद्द कर दिया गया।
पूत के पांव तो अभी पालने में हैं। बुलेट ट्रेन के लिए एक किमी रेलवे लाइन बनाने की लागत करीब सौ करोड़ डालर बतायी जा रही है। जीवन बीमा के डेढ़ लाख करोड़, जो बीमाधारकों के प्रीमियम से निकाले गये हैं, निजी इंफ्रा कंपनियों क मुनाफे के लिए रेलवे के पीपीपी विकास में जोंक दिये गये हैं। जबकि विनिवेश का सारा कार्यक्रम जीवन बीमा निगम और भारतीय स्टेट बैंक की खरीददार पर निर्भर है।
अब समझ लीजियकि यह बुलेट ट्रेन किसके लिए होगी। आपकी मदद के लिए खबर यह है कि
1 अप्रैल से रेलवे प्लेटफॉर्म टिकट महंगा हो जाएगा। रेलवे ने फैसला किया है कि नए वित्त वर्ष से प्लेटफॉर्म टिकट के दाम 5 रुपये से बढ़ाकर 10 रुपये किए जाएंगे।
साथ ही डिवीजनल रेलवे मैनेजर्स यानी डीआरएम को ये अधिकार भी दिया गया है कि मेले या रैली जैसे मौकों पर इसके दाम 10 रुपये से भी ज्यादा किए जा सकते हैं।
रेलवे के मुताबिक प्लेटफॉर्म पर गैर-जरूरी भीड़ कम करने और यात्रियों को असुविधा ना हो, इस मकसद से प्लेटफॉर्म टिकट के दाम बढ़ाए जा रहे हैं।
सभी बीमार सराकारी उपक्रमों के विनिवेश के लिए नया बगुला पैनल बनकर तैयार है। जिन कंपनियों को बंद करना है, उनमें सबसे ऊपर एअर इंडिया का नाम है तो दूसरी तरफ विदेशों में सेवा शुरु करने के लिए निजी विमानन कंपनियों को अब पांच साल के बजाय सिर्फ एक साल इंतजार करना है। ऐसा एअर इंडिया की कीमत पर हो रहा है।
पलाश विश्वास