किसानों की बदतर होती हालत और गहराता कृषि का संकट

लखनऊ – वर्ष 1991 से प्रारम्भ हुए आर्थिक उदारवाद के युग ने किसानों की आर्थिक हालत बुरी तरह ख़राब की है। आज स्थिति यह है कि लगभग पचास फीसदी किसानों के पास ज़मीन का एक छोटा टुकड़ा भी नही है। वहीँ पिछले पच्चीस वर्षो में लगभग साढ़े तीन लाख किसानों ने आत्म हत्या की है। इसका कारण मुख्य रूप से कर्जा था।

उक्त उदगार जन विचार मंच द्वारा आयोजित संगोष्ठी ‘‘किसानों की बदतर होती हालत और गहराता कृषि का संकट’में महाराष्ट्र के किसान नेता और अर्थशास्त्री डा. अशोक धावले ने व्यक्त किये।

कैफ़ी आज़मी अकादमी सभागार में सम्पन्न संगोष्ठी डा. धावले ने कहा कि यूपीए प्रथम के कार्यकाल में गठित स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में किसानों को उनकी फसल का उचित भुगतान करने का फार्मूला पेश किया गया था, उसके अनुसार सरकार को यह व्यवस्था करनी थी कि किसानों को अपनी लागत के साथ पचास फीसदी मुनाफ़ा भी प्राप्त हो। परन्तु न तो मनमोहन सिंह सरकार और न तो नरेंद्र मोदी की सरकार ने इस दिशा में कोई प्रयास किया।

डा. अशोक धवले ने कहा कि पिछले एक दशक में बैंकों की नीतियों में भी बदलाव आया है किसानों को बैंको से आसानी से कर्ज़ा नहीं मिलता, जिसके चलते उन्हें सूदखोरों से ऊंची दरों पर क़र्ज़ लेना पड रहा है जिसके चलते अंतत: क़र्ज़ के जाल में फंस कर किसान आत्महत्या करते हैं।

महाराष्ट्र के किसान नेता और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव डा. अशोक धावले ने कहा कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से किसानों को लाभ होने की बजाए बीमा कंपनियों को लाभ हुआ है। बीमा कंपनियों ने लगभग इक्कीस हज़ार करोड़ रुपये किसानों से हासिल किये जबकि बदले में केवल सात सौ करोड़ रुपये का भुगतान किसानों को किया।

डा. धावले ने किसानों से जुड़े विभिन्न पक्षों को सामने रखा। उन्होंने कहा की पशु व्यापार पर पाबंदी, कृषि के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश खाद, कीटनाशकों के दामों में बेतहाशा वृद्धि मनरेगा के मद में कटौती जैसे बहुत से कारकों के चलते किसानों की आर्थिक स्थिति बुरी तरह प्रभावित हुयी है।

संगोष्ठी में सीटू के प्रदेश सचिव कामरेड प्रेम नाथ राय ने भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम का संचालन प्रतुल जोशी ने किया