बीकानेर और अजमेर सूबे के चार बडे जिलों से सीमाएं साज़ा करता हुआ जिला है नागौर। अकबर के नौ रत्नों में से अबुल फजल का जिला। ख्वाजा गरीब नवाज के प्रमुख शिष्य हमीदुद्दीन 'सुल्ताने तरेकीन' का शहर। स्थानीज जनता में हमीदुद्दीन के उपनाम सुल्ताने तरेकीन का अपभ्रंश तारकिशन के रूप में चलता है। इसके साथ यह मिथक भी जुड़ गया है कि वो हिंदू थे। हर साल लगने वाले उर्स में इसी के चलते हजारों लोग इस चिश्ती संत की दरगाह पर सजदा करने आते हैं। इल्तुतमिश ने इस दरगाह पर सुंदर नक्काशी वाला बूलंद दरवाजा बनाया था। कादरी फिरके की सबसे बड़ी दरगाह 'बजी पीर साहब की दरगाह' यहीं स्थित है। शहर के बीच में मुछल स्थापन की छोटी बिखेरती 'जामआ मस्जिद' है। यह मस्जिद अकबर के नागौर प्रवास के दौरान बनी थी। नागौर दरबारे में ही राजपूतों और मुगलों के बीच समझौतों और विवाह संबंधों की शुरुआत हुई थी। आस-पास के लोग इसे 'वलीयों का शहर' भी कहते हैं। 31 मई के दिन अचानक मध्यकाल की इन ऐतिहासिक इमारतों पर संकट के बादल छा गए थे। 1 जून की सुबह मैं नागौर पहुँच चुकी थी। सुबह चाय के साथ अख़बार का स्थानीय संस्करण पढ़ना मेरा पसंदीदा काम रहा है। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, तो गली के नुक्कड़ और चाय की दुकानों पर देर रात तक होने वाली चर्चाओं में खुद बार-बार मुख्य साबित करते हैं। लेकिन आज तो नागौर अख़बार के पहले पेज पर था। कारण था 31 मई को पैंदा हुई सांप्रदायिक तनाव की स्थिति। जिले की तीन तहसीलों देखकर ही देख सकते हैं हिंसा की चपेट में आईं। एक आदमी को पीट-पीट कर मारा डाला गया। कई दुकानों को फूंक दी गईं।