नायपाल ने खुद को भारतीय कब माना
नायपाल ने खुद को भारतीय कब माना
गिरीश कर्नाड बनाम वी एस नायपाल
वंदना शुक्ला
सुप्रसिद्ध लेखक रंगकर्मी अभिनेता श्री गिरीश कर्नाड (जिनके लिखे नाटक तुगलक की पिछले दिनों धूम रही ) को मुंबई की एक संस्था द्वारा एक साहित्य समारोह में रंगकर्म से जुड़े अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया था |लेकिन कर्नाड को अपने इस ‘’भाषण’’ में प्रशंसा के बावजूद कुछ असहमतियों जिन्होंने छोटे मोटे विवाद का रूप भी ले लिया था, सामना करना पड़ा| हुआ यूँ कि उन्होंने ‘’रंगकर्म’’ के उस विषय से हटकर भारतीय मूल के लेखक वी एस नायपाल के बारे में भी अपने कुछ विरोध दर्ज लिए। ये मुद्दा इसलिए उठा क्यूँ कि उसके पहले आयोजकों ने इस बात को रेखांकित किया कि बुकर(१९७१) एवं नोबेल (२००१)जैसे प्रतिष्ठित पुरुस्कारों से सम्मानित भारतीय मूल के लेखक वी एस नायपाल ने अपनी भारत यात्रा के समय इसी जगह खड़े होकर अपना भाषण दिया था। इत्तिफाकन इसी मंच पर सुप्रसिद्ध रंग कर्मी, अभिनेता,ले खक गिरीश कर्नाड को रंगमंच से सम्बंधित अपने अनुभव व विचार प्रस्तुत करने को आमंत्रित किया गया था। गिरीश कर्नाड जैसे रंगमंच के अलावा भी अन्य विषयों में गहन अध्ययन एवं दखल रखने वाले बहुमुखी कलाकार के सामने जब नायपाल के कसीदे पढ़े गए प्रशस्ति गान किये गए तो वे स्वयं को संयत नहीं रख पाए विशेषकर नायपाल को भारतीय लेखक मानने के मुद्दे पर जिससे उन्हें आपत्ति थी। हालाँकि नायपाल ने खुद भी कभी ऐसा नहीं माना।
कर्नाड ने नायपाल से सम्बंधित कुछ तथ्य प्रस्तुत किये जिसके मूल में कुछ कारण थे जिसके लिए नायपाल के लेखिकीय जीवन व उनकी (भारतीय मूल का लेखक मानने ) जैसी व्यक्तिगत मान्यताओं को जानना तर्कसंगत होगा।
विद्ध्याधर नायपाल के पूर्वज आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कैरेबियन द्वीप समूह के त्रिनिनाद नामक द्वीप में मजदूर बनकर गए थे। उनके पिता शासन में एक अधिकारी थे वो लेखक बनना चाहते थे लेकिन नहीं बन पाए लेकिन उनके दोनों पुत्रों (विद्ध्याधर और शिव) विश्वविख्यात लेखक हुए। वी एस नायपाल ने जीवन भर नौकरी नहीं की आरंभिक शिक्षा त्रिनिनाद में करने के बाद वो उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफोर्ड चले गए और फिर लन्दन में ही बस गए। उनके शुरू के उपन्यासों के विषय प्रवासी भारतीयों की विदेशों में ज़िंदगी और समाज में स्थान बनाने के संघर्ष से सम्बंधित हैं |’(’ए हाउस फोर मि.बिस्वास’’) भारतीय मूल के और जन्म से त्रिनिदादी नायपाल इंग्लेंड के शुद्ध अंगरेजी वातावरण में तालमेल नहीं बिठा पाए इस संघर्ष को उन्होंने अपनी रचनाओं में भी चित्रित किया। उन्होंने कहा कि ‘’मुझ जैसे दो संस्कृतियों से जुड़े लोग अंधेरों में रोशनी तलाशते हुए अधूरी ज़िंदगी बिताते हैं।’’ इस ‘अवसाद’से वो हमेशा ग्रसित रहे जो उनके लिए उठाये गए विवादों का आधार माना जाता है। उन्होंने इस तरह की दो संस्कृतियों से टूटे हुए लोगों को अपने लेखन का विषय भी बनाया जिसमे मिश्र, ईरान, इंडोनेशिया, भारत आदि के मुसलमान का ज़िक्र एतिहासिक विश्लेषण के साथ प्रस्तुत किये हैं। इनकी दो किताबें ‘’एमंग ड बिलीवर्सः एक इस्लामिक जर्नी’’और ‘’बियोंड बिलीफः इस्लामिक एक्स्कर्ज़ंस एमंग द कन्वर्टेड पीपुल्स’’ इसी से संदर्भित हैं जो बेहद चर्चित हुईं। उनका मानना है कि इस्लामिक साम्राज्यवाद से बढ़कर दुनिया में अन्य कोई साम्राज्यवाद नहीं हुआ। |कुछ समीक्षक मानते हैं कि ट्रेड टॉवर (न्यूयार्क) के हमलों के तुरंत बाद इन्हीं पुस्तकों ने उन्हें नोबेल पुरूस्कार दिलवाया। सच तो ये है कि उन्होंने खुद को भी भारतीय नहीं माना और यदि माना भी तो एक विचित्र रूप में । उनके वक्तव्य प्रायः विरोधभासी रहे जैसे एक तरफ उन्होंने माना कि उन्हें हिन्दुस्तान की राजनीति में कोई रूचि नहीं जबकि दूसरी तरफ वो हिन्दुस्तान को एक हिंदू राष्ट्र का दर्जा देने के हिमायती रहे और मुस्लिमों के कट्टर विरोधी रहे। वो मानते हैं कि मुस्लिमों ने हिन्दुस्तान को भ्रष्ट कर दिया।
भारत के बारे में उनका मानना है कि मुसलमानों का आक्रमण भारत के लिए बेहद हानिकारक सिद्ध हुआ और फिर अंगरेजी राज्य के आधिपत्य से उनकी ये संस्कृतिक किलेबंदी ढहना शुरू हुई। आजादी के बाद अंगरेजी और मुसलमानों दोनों की दूरी बढ़ी। बाबरी मस्जिद मसले पर उन्होंने कहा था कि ‘’मुझे नहीं लगता कि हिंदू इस्लामी आतंक से अभी उबर पाए हैं। अभी वो इस मसले में भ्रम की अवस्था में ही हैं और अयोध्या आन्दोलन उसे समझने की ही एक कोशिश है।’’
प्रवासी होते हुए (हमेशा विदेश में रहने के बावजूद) इन्होंने भारत की संस्कृति से सम्बंधित तीन किताबें लिखीं जिनमे से दो में भारत की संस्कृति और जीवन की तीव्र आलोचना की। ये किताबें थीं ‘’एन एरिया ओव डार्कनेस, इंडियाः ए वूंडेड सिविलाईज़ेशन‘’लेकिन इसके बाद एक किताब और लिखी जिसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति का पुनुरुत्थान करने की बात कही वो किताब थी ‘इंडिया ए मिलियन म्युतिनीज़ नाउ’ इसमें कोई दो राय नहीं, कि नायपाल का भारत के प्रति लगाव (भारतीय मूल के होने के नाते ) बहुत कम रहा है। हालाँकि वो मानते हैं कि हिन्दुस्तान लंबी गुलामी के बाद अब उन्नति के रास्ते पर है लेकिन जैसा कि ऊपर कहा गया है इस्लाम के प्रति हमेशा उनमे एक अजीब स दुराग्रह रहा। राजनीति से दूर खुद को मानने और कहने वाले नायपाल नोबेल पुरूस्कार प्राप्त करने के बाद जब हिन्दुस्तान आये तो सबसे पहले भाजपा के कार्यालय में गए। उल्लेखनीय है कि स्वयं आलोचना और विवाद में फंसे सलमान रश्दी, नायपाल को नोबेल पुरूस्कार मिलने के पक्षधर नहीं थे। नायपाल को सामरसेट मॉम प्रुस्कार, डेविड कोहेन ब्रिटिश लिटरेचर आदि पुरूस्कार भी प्राप्त हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘’सर’’ की उपाधि से भी नवाजा। उनके बारे में कहा जाता है कि वो बेहद चिड़चिड़े स्वभाव और स्पष्टवक्ता रहे। एक समय था जब प्रसिद्ध यात्रा वृत्तान्त लेखक पौल थोरु उनके बेहद प्रसंशक हो गए थे इन्हें तत्कालीन लेखकों में सर्वोपरि कहा था उन्होंने लेकिन बाद में वो उनके स्वभाव से उनके घोर विरोधी हो गए।
नायपाल ने ये स्वीकार किया है कि लन्दन में बसने के बाद उनका योवन बहुत कठिनाइयों में बीता। न्यू स्टेट्समेन में नौकरी करने के बाद भी वो अपने अकेला और बेसहारा महसूस करते थे। वे कहते हैं ये मेरे जीवन के सबसे बुरे दिन थे जिन्हें मैं याद करना नहीं चाहता लेकिन रचना गुण के कारण उनके चाहने वाले भी बढ़ते गए। यदि एक वृहद रूप में देखा जाये (भारत या प्रवासी से अलग ) तो मानव जाति की समस्याओं को जानने में उनकी रूचि रही उल्लेखनीय है कि आंध्र और बिहार के नक्सलवादी क्षेत्रों में उन्होंने भ्रमण भी किया। अपने उपन्यास ‘’हाफ ए लाइफ ‘’ में उन्होंने एक टूटे परिवार से बिछुड़े एक युवक की कहानी लिखी है।
साफगोई और स्पष्टता से सार्वजानिक आयोजनों में अपनी बात कहना विरोध दर्ज करना सभी के बूते की बात नहीं (कम से कम आज के माहौल में तो यही सच है )। उत्पल दत्त, गिरीश कर्नाड, या सफ़दर हाशमी जैसे कुछ इने गिने दुस्साहसी लेखकों के ही बूते की बात थी। प्रश्न यही है कि क्या उन लेखकों या अन्य कोई भी व्यक्ति को जिसने विदेश में ही जन्म लिया और जीवन भर वहीं की नागरिकता में रहा लेकिन सौ वर्षों पूर्व उनके पूर्वज भारतीय होने की वजह से उन्हें भारतीय प्रवासी (लेखक ) माना जा सकता है (माना जाना चाहिए )? हालाँकि भारतीय साहित्यकारों का एक धड़ा गाँव में कभी ना जाकर ना सिर्फ ग्रामीण जीवन पर उपन्यास लिख रहा है बल्कि पुरूस्कार भी प्राप्त कर रहे हैं, या विदेशी पृष्ठभूमि पर बेहिचक लिखकर वाह वाही लूट रहे हैं ऐसे वातावरण में यदि नायपाल जैसे लेखक लन्दन में बैठकर (गाहे ब गाहे भारत का दौरा कर ) भारत की समस्याओं और स्थितियों पर लिखते हैं मय मीमांसाओं के तो स्वाभाविक ही लगना चाहिए लेकिन ये साहित्य के पुरोधा व मील के पत्थर आज भी इस ‘’आडम्बर’’को सही नहीं मानते।


