नीचे से ऊपर तक वंशवाद हावी, सांसद देश के लिए साँसत बनते जा रहे हैं
नीचे से ऊपर तक वंशवाद हावी, सांसद देश के लिए साँसत बनते जा रहे हैं
भारतीय संस्कृति बनाम ब्राह्मण संस्कृति
तारा चंद्र त्रिपाठी
भारतीय संस्कृति उन परम्पराओं, मान्यताओं, उपासना पद्धतियों और जीवन शैलियों का समुच्चय है जो इस भूमि के आदिम निवासियों, आर्यों, द्रविड़ों, और उनके बाद समय-समय पर इस देश में आ कर बस जाने वाली प्रजातियों के परस्पर सम्पर्क से विकसित हुई है। वे सारी प्रजातियाँ जो इस देश में आक्रान्ता की रूप में प्रविष्ट हुईं और अपनी-अपनी मान्यताओं, परम्पराओं और जीवन-शैली का प्रभाव छोड़ती हुईं इसी में घुल-मिल गयीं। आर्य, अनार्य, द्रविड़, मंगोल, शक, हूण, कुषाण, पठान (पार्थियन) जो भी इस देश में जिस रूप में भी आये, भारतीय संतति में विलीन हो गये।
यज्ञ-यागादि द्वारा प्राकृतिक शक्तियों को पूजने वाले आर्यों ने आरम्भ में यहाँ के मूल निवासियों द्वारा जीवों की उत्पत्ति के आधार प्रतीकों - योनि और लिंग की उपासना की निन्दा की, उनको मानने वाले लोगों का उत्पीड़न भी किया, पर कालान्तराल में वही देवाधिदेव महादेव मान लिये गये और पूरे देश में शक्ति और लिंग प्रतीकों सहित उनके मन्दिर सबसे बड़ी संख्या में निर्मित हुए। आदिवासियों के टोटैमिक देवता गणेश, देवताओं की प्रथम पंक्ति में आ बैठे। द्रविड़ देवता अनमन्ति हनुमन्त बन कर दुष्ट दलन और नाम लेने मात्र से ही पुकारते ही सहायता के लिए आ खड़े होने वाले देवता के रूप में सर्वाधिक लोकप्रिय देवता के पद पर आसीन हो गये।
यही नहीं आर्यों के अपने मूल देवता, जिनकी स्तुति से तीनों वेद भरे पड़े हैं, पता ही नहीं चला कि कैसे नैपथ्य में चले गये। आर्यों के गोरे देवताओं के स्थान पर साँवले देवता प्रभावी होने लगे। यही नहीं यज्ञ-यागादि और एक दिन से लेकर वर्षों तक चलने वाले कर्मकांड प्रधान यज्ञों के समानान्तर उन्हें निरर्थक मानने वाली चिन्तन प्रधान औपनिषदिक धारा चल पड़ी। जिसने आगे चल कर भारतीय दार्शनिक परंपरा की आधारशिला रखी।
वस्तुतः आर्य परिवारों में आमेलित आर्येतर महिलाओं से उत्पन्न सन्तानों और धायों द्वारा पाले जाने वाले बच्चों में लोरी और दन्त कथाओं के माध्यम से जो आर्येतर संस्कार विकसित हुए वे धीरे-धीरे विजेताओं की कर्मकांड प्रधान शास्त्रोन्मुख धारा के समानान्तर औपनिषदिक लोकधारा के रूप में पनपे और आगे चलकर यही लोकोन्मुख धारा, बौद्ध धर्म, वैष्णव परंपरा, भक्ति धारा के रूप में विकसित हुई और सबने मिलकर अन्तर्जातीय और अन्तर पन्थीय सौहार्द के माध्यम से भारतीय परम्परा की समन्वय प्रधान प्रवृत्तियों को पोषित किया।
दूसरी ओर शास्त्रोन्मुख धारा ने अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए कर्मकांड के विधान पर ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना की। यज्ञ-यागादि तथा उनसे संबन्धित पूजा-विधानों को जटिल से जटिल किया, यहाँ तक कि पति-पत्नी के समागम की हर क्रिया को मंत्रों से लाद कर पुंसवन संस्कार बना दिया। जीवन के दैनिक कार्यों में मंत्र ठूँस दिये कि लघु शंका से पहले यह मंत्र पढ़ो, दीर्घ शंका से पहले यह, स्त्रियों के आचारण के बारे में तो इतने नियम बनाये गये उसका अपना अस्तित्व ही पति की सेवा में विलीन हो गया।
जहाँ मूल भारतीय परंपरा सर्वग्राही थी, वहीं यह शास्त्रोन्मुख धारा, जो वेदों के मत्रों के अर्थ भी भूल जाने के कारण यह घोषित कर रही थी कि वेदों के मंत्रों का अर्थ जानना आवश्यक नहीं है, उनका वाचन ही पर्याप्त है, शुद्धिवाद के चक्कर में आगन्तुक परंपराओं को ही नहीं, पसन्द न आने वाली अपनी परंपराओं को भी उलीचने में लगी रही।
ब्राहमण-अब्रा्ह्मण परंपराओं के बीच संघर्ष भारत के धार्मिक इतिहास का प्रमुख घटनाक्रम है।
यह संघर्ष न केवल इस देश की दो प्रमुख धार्मिक धाराओं- ब्राह्मण और बौद्ध सम्प्रदायों के बीच व्याप्त रहा अपितु, शैवों और वैष्णवों के बीच भी यदा-कदा खूनी संघर्ष का भी रूप लेता रहा। मौर्यों के युग में बौद्ध हावी हुए तो, शुंगों के जमाने में ब्राह्मण। पु्ष्यमित्र शुंग ने तो न केवल यज्ञ-यागादि की परंपरा को पुनर्जीवित किया अपितु बौद्ध भिक्षु श्रमण का सिर काट कर लाने वाले को सौ दीनार देने की घोषणा कर दी।( यो मे श्रमण सिरो दास्यति तस्याहं दीनार शतं दास्यामि) शुंगों के बाद कुछ दिन शान्ति रही। कुषाण युग में बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा के विधान से महायान शाखा का आविर्भाव हुआ तो इन नरेशों ने, बोद्दो (बुद्ध) ओइशो (शिव) मिहिरो (मित्र या सूर्य) मातृदेवी नना सभी को स्वीकार किया। गुप्तों का युग ब्राह्मण परंपराओं के उत्कर्ष का युग होते हुए भी समन्वय का युग है। इस युग सभी धर्मिक मान्यताओं का विकास हुआ। ब्राह्मण कुछ उदार हुए तो बाहर से आयी हुई नयी प्रजातियों को राजपूतों के रूप में अपनाया गया।
गुप्त साम्राज्य बिखरा, केन्द्रीय सत्ता कमजोर हुई। प्रादेशिक क्षत्रप तू बड़ा या मैं बड़ा में लग गये। देश गौण हो गया। राजसभाओं की विलासिता मठों, मन्दिरों, यहाँ तक कि दार्शनिक परंपराओं को भी ले डूबी। मन्दिरों की दीवारें कामसूत्र का सचित्र संस्करण बन गयीं, यहाँ तक कि अद्वैतवादी शंकराचार्य की सौन्दर्य लहरी को भी कामशास्त्र की छूत लग गयी।
यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि किसी भी सभ्यता में संघर्ष का युग विनाश का ही नहीं विकास का भी कारक होता है। जब कि शान्ति का युग विलासिता को बढ़ावा देता है।
इस युग में भी दो महायुद्धों के बीच ही नहीं उसके बाद भी साम्यवादी और पूँजीवादी शक्तियों के बीच तनातनी के कारण ज्ञान और विज्ञान का अभूत्पूर्व विकास हुआ। लेकिन जैसे ही शान्ति व्याप्त होने लगी विलासिता का दौर भी आरंभ हो गया। हमारा समकालिक इतिहास इसका ज्वलन्त प्रमाण है।
आज जिस प्रकार नीति-नियंता (शास्त्रोन्मुख धारा) अपने और अपना आर्थिक पोषण करने वाले तत्वों के हितों को ध्यान में रखते हुए विधान रचने में लगे हैं उसी प्रकार तब भी शास्त्रोन्मुख धारा ने श्रमजीवी वर्ग का भीषण उत्पीड़न किया। उनके लिए नगर या गाँव में प्रवेश करते समय डंडा खटकाते हुए प्रवेश करने का नियम बनाया गया ताकि उनकी छाया भी किसी सवर्ण पर न पड़े। जिन अपराधों के लिए ब्राह्मण अदंडनीय था, क्षत्रिय और वैश्य हल्के दंड के भागी थे, उनमें भी उनके लिए मृत्यु दंड का विधान किया। स्त्रियों के लिए वेदों के मंत्रों का विशेष रूप से गायत्री मंत्र सुनने का भी निषेध कर दिया गया। संयोग से शूद्र के कानों में वेदमंत्र की ध्वनि भी चली जाय तो उसके कानों में शीशा पिघला कर डाल देने का निर्देश दिया गया।
यही नहीं जिस देश ने ब्राह्मण परशुराम को योद्धा के रूप में अपनाया, सूतपुत्र कर्ण को महारथी बनाया, पुष्यमित्र शुंग को सेनापति बनाया, उसी देश में यह फतवा जारी हुआ कि केवल क्षत्रिय ही सैन्यकर्म में शामिल होंगे और ब्राह्मण उनकी विजय के लिए मन्दिर में पूजा अर्चना और यज्ञ करेगा। इस नीति से देश का भट्टा तो बैठना ही था।
मध्यकाल में भी शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के बीच इतना विद्वेष जन्म ले चुका था कि शैव साधकों के लिए किसी वैष्णव साधक की हत्या करना पुण्य का कार्य माना जाने लगा था। इस संघर्ष से दुखी होकर ही तुलसीदास ने विष्णु के अवतार श्री राम और शिव के बीच घनिष्ठ मित्रता का अंकन किया और राम के मुख से शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास। ते नर करहिं कल्प भरि घोर नरक में वास। की घोषणा करवाई।
वर्तमान में देश में यही शास्त्रोन्मुख धारा हावी होती जा रही है। किसी मान्यता से असहमत होना मृत्यु को आमंत्रण देना हो गया है। साम्प्रदायिक उग्रवाद बढ़ रहा है और राजनीतिक दल अपनी गद्दी हिल जाने की डर से केवल तमा्शबीन बने हुए हैं।
आज हम फिर उसी मोड़ पर खड़े हैं। लोकधारा या जनवादी शक्तियाँ बिखराव पर हैं। देश गौण हो गया है, सत्ता और उसका पोषण करने वाली शक्तियाँ हावी होती जा रहीं हैं। आजीविका से सम्प्रदाय को प्रमुखता दी जा रही है। वे लोग जिन्हें न इस देश की सांस्कृतिक परंपराओं का ज्ञान है और न इतिहास की समझ है, वे भारतीय संस्कृति के ठेकेदार बनते चले जा रहे हैं जिनका अपना आचरण ही संदिग्ध है वे पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा और हिन्दू धर्म ग्रन्थों और स्मृतियों से उनके हिसाब से चयनित अंशों को बलात थोपने के लिए सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं। समाज को तोड़ रहे हैं।
जब संस्कृति मंत्री यह घोषणा करे कि पूर्व राष्ट्पति अब्दुल कलाम मुसलमान होते हुए भी सच्चे राष्ट्र भक्त थे। इससे अधिक राष्ट्रविरोधी बात क्या हो सकती है?
जो हो रहा है और जिससे हम में से बहुत से लोग बेखबर होने का ढौंग रच रहे हैं वह है इस देश में जनतंत्र मरणासन्न होता जा रहा है और आम मतदाता की लापरवाही या अज्ञान के कारण राजनीति में नीचे से ऊपर तक वंशवाद हावी होता जा रहा है। सांसद देश के लिए साँसत बनते जा रहे हैं। यही नहीं महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने तो जन प्रतिनिधियों की आलोचना और सरकार की नीतियों के प्रति असंतोष को भी राष्ट्र्द्रोह घोषित करते हुए आने वाले दिनों में लोकतंत्र के श्राद्ध का भी संकेत दे दिया है।


