यह कहावत आम है कि अच्छा साहित्य समाज का दर्पण होता है। पर इसे ऐसा क्यूँ कहा जाता है, इसका जवाब सीधे नहीं दिया जाता है, अक्सर इसे बौद्धिक रहस्य के आवरण में छुपाया जाता है। यह इसलिए क्योंकि साहित्य का सम्बन्ध सीधे रूप से राजनीतिक सत्ता या राजनीति से जुड़ा है।

एक काल विशेष में कौन सा साहित्य रचा गया, यह उस दौर में सत्ताधारी वर्ग की राजनीति और उसके खिलाफ जनता के प्रतिरोध से निर्मित संघर्ष से तय होता है। इस प्रकार साहित्य का सवाल एक राजनैतिक सवाल बन जाता है। इस प्रकार साहित्य का राजनीति के साथ सम्बन्ध जनपक्षधरता के लिए लड़े गए संघर्षों से तय होता है।

इसलिए ही तो दक्षिण एशियाई उप महाद्वीप के बिश्व प्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद ने बहुत पहले फरमाया था, कि साहित्य, राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होती है। यह तय करने का काम साहित्यकार का है, कि वह किस वर्गीय स्वार्थ के साथ खड़ा होता है और वाकई में आम जन मानस संसार के बीच से होते हुए उनके सुख-दुःख-संघर्ष को अपनी रचनाओं में आवाज देता है कि नहीं। अन्यथा कि बौद्धिक गाल बजाने के लिए समाज के प्रभुजनों द्वारा स्वांत सुखाय के लिए रचे गए साहित्य का हिस्सा बनकर सिमट कर रह जाता है।

इसका कारण यह है कि साहित्य का राजनैतिक सत्ता से गहरा सम्बन्ध है।

मसलन शेक्सपियर के बारे में थोड़ा पढ़ा लिखा आदमी भी जानता है कि वे अंग्रेजी कवि हैं, और इंग्लॅण्ड देश के रहने वाले थे। लेकिन हम भारत के पडोसी देशों यथा दक्षिण एशिया में पड़ने वाले देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालद्वीप, और नेपाल या भूटान के कितने लेखकों और साहित्यकारों के बारे जानते हैं। मसलन यदि हम जानते भी हैं, तो केवल उन्ही, को जिनका साहित्य भारत की क्षेत्रीय भाषाओं (मतलब हिंदी) में अनुदित हुआ है, या (कुछेक काम अंग्रेजी से) अनुदित हुआ है।

साहित्य से राजनीति के सन्दर्भ में अभी तक दक्षिण एशिया के केंद्र में भारत है। क्योंकि इसके मूल में औपनिवेशिक इतिहासबोध भरा हुआ है। और भारत से ले दक्षिण एशिया में जनपक्षधर राजनीति का केंद्र बिंदु हिंदी क्षेत्र होता है। और हिंदी क्षेत्र दक्षिण एशिया है। दक्षिण एशिया इस मायने में भारत का पर्याय है।

मतलब साहित्य का सीधा तार हमारे औप्नेवेशिक अतीत से जुड़ा हुआ है।

इस अतीत से छुटकारा पा लेने (रूप में ही सही) के बाद भी औप्नेवेशिक अतीत पीछा नहीं छोड़ता है। क्योंकि यदि यह पीछा छोड़ता तो हम भारतीय हिंदी (और क्षेत्रीय भाषाओं के) लेखकों के अलावा दक्षिण एशिया के अन्य देशों के साहित्यकारों के बारे में बखूबी जानते। पर सच्चाई यह है, कि हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते। या ऊंट के मुंह में के मुंह में जीरे के बराबर जानते हैं।

वस्तुतः भारत देश सुरसा का मुंह है, यदि यहाँ बांग्ला भाषा और उर्दू भाषी जनता नहीं रहती, तो 1947 की ‘आजादी’ के बाद पता ही नहीं चल पाता कि बांग्लादेश में तसलीमा नसरीन जैसी विद्रोही लेखिकाएं भी पायी जाती हैं। अथवा पाकिस्तान में फैज़ अहमद फैज़, अहमद फराज और फहमीदा रियाज या तहमीना दुर्रानी ने अपनी कलम से जनपक्ष धर भी साहित्य रचा है।

इस प्रकार दक्षिण एशिया के सन्दर्भ में लेखकों ने इस दायित्व को अंशतः ही निभाया है। यहाँ स्पष्ट रूप से इन लेखकों के बारे में कहने का तात्पर्य उन औप्नेवेशिक अंग्रेजी दां कुलीन संसार से है, जो अपने कुलीन, अकादमिक संसार के बाहर तभी जाते हैं, जब उनको कुछ वाहवाही लूटनी होती है या क्षेत्रीय भाषाओं के प्रसिद्ध लेखकों के कामों को पश्चिम की बौद्धिक कुलीन जनता के लिए अनुवाद करके प्रसिद्ध पाने का चस्का लगा होता (हालांकि इसमें कुछेक अपवाद भी मिलेंगे)।

अंग्रेजी अभी तक इस उप महाद्वीप में कुलीन और उच्च वर्ग की ही भाषा बनी हुई है। इसलिए इन लेखकों द्वारा रचा गया साहित्य एक बहुत ही सीमित संसार तक सीमित रहता है।

अन्यथा इसके अलावा भारत का पढ़ी लिखी जनमानस इन दो देशों के अलावा और साउथ एशिया के किस देश के लेखक को कितना-कितना जानता है। जहाँ तक मेरी समझ है, अलग तमिल इलम के लिए श्रीलंका में दशकों से चले के प्रभाव के कारण तमिलनाडु का बौद्धिक समुदाय जरूर वहां इस बीच रचे गए साहित्य से परिचित है। लेकिन केवल उन्हीं तक, जो तमिल भाषा जानते हैं, और कुछेक मात्र में अंग्रेजी का ज्ञान रखते हैं।

असल में यह सब निकल के तब आई, जब पिछले दिनों सामाजिक संचार माध्यम फेसबुक में युवा नेपाली कवि स्वप्निल स्मृति ने अपनी फेसबुक वाल एक लेख साझा किया। यह लेख प्रख्यात नेपाली साहित्यकार श्रवण मुकारुंग से सम्बंधित था।

खैर सरसरी तौर से जब मैंने यह लेख फेसबुक में पढ़ा, तो उस समय मुझे यह समझ में आया कि श्रवण मुकारुंग की कविताओं को उनके हान्गयुग अज्ञात नाम के साहित्यिक मित्र ने चोरी कर अपने नाम से छपाया है। तत्काल मैंने इस विषय पर फेसबुक में एक प्रतिक्रिया लिखी कि “साहित्य नाम की विधा में बौद्धिक समाज इस तरह की चोरी करने में सिद्धहस्त रहा है। बौद्धिक समाज आमतौर पर दुसरे किसी के चिंतन को चुरा कर अपने नाम से छपा लेना में कुख्यात रहा है, और वह इस तरह के कर्म वह भावशून्य होकर ही अंजाम देता है। हान्गयुग अज्ञात की बौद्धिकता के नाम की जुगाली करने की इस बौद्धिक हस्तमैथुन प्रवत्ति के विरुद्ध कम से कम श्रवण मुकारुंग ने मुंह खोला है। इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।”

लेकिन एक दिन बाद दुबारा पढ़ने पर महसूस हुआ कि मैंने उस लेख को बिलकुल गलत समझा था। क्योंकि उस लेख के अनुसार नेपाली कवि श्रवण मुकारुंग ने अपने चर्चित साहित्यकार मित्र हान्गयुग अज्ञात का जिक्र इस सन्दर्भ में किया था कि कैसे अज्ञात में उनकी बहुत सी क़िताबें चोरी की थी। और वे ही नहीं उनके बहुत से नेपाली लेखक मित्र उनके घर से किताब चोरी करके पढ़ने की आदत के लत के शिकार थे।
अब लीजिये हो गया न अर्थं का अनर्थ। जबकि आमतौर पर यह सुना जाता है कि नेपाली भाषा चूँकि देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, इसीलिए वह हिंदी की छोटी बहन है। यह आम जन समुदाय ही नहीं बल्कि दिल्ली में समाज विज्ञान की उपाधियों से लैश सुसंस्कृत बौद्धिक लोगों का हाल है।

और हो भी क्यूँ न क्योंकि भारत तो वैसे भी नेपाल का बड़ा भाई है। पिछले साल इस आख्यान में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने यह कहकर सोने पे सुहागा किया। यह अवसर था जब पिछले साल तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली से भेंट करते समय उन्हें नेपाल का पर्याय मानते हुए अपने से उम्र में छोटा होने का हवाला देकर भारत को नेपाल की “ठुलो दीदी” (बड़ी बहन) बना डाला।

अब देख लीजिये कि कैसे साहित्य, राजनीति से संचालित हो रही है। नेपाली राष्ट्र की प्रगति पर सदियों से सांप की तरह कुंडली मार कर बैठे भारतीय शासक वर्ग के साम्राज्यवादी वर्चस्व का ही प्रभाव है कि जब भारत में यानि हिंदी दुनिया में नेपाली साहित्य के बारे में बात छिड़ती है, तो यही माना जाता है कि यह तो नेपाली साहित्य तो हिंदी साहित्य का छोटा भाई या छोटी बहन है।

हाल फिलहाल इस लेखक ने नेपाली समाज से टकराने के क्रम में हिंदी में कई कवितायें लिखीं और हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध पत्रिका “हंस” को छपने के लिए भेजी। लेकिन पता चला हंस नेपाल पर लिखी गयी राजनैतिक कवितायेँ छापने को उतना ही गुनाह समझता है जितना कि वर्चस्ववादी दिल्ली, अपनी राजनैतिक- सांस्कृतिक विरासत के तहत नेपाल को एक प्रभुता संपन्न, सार्वभौम देश मानने से इनकार करती है।
यह बात जगजाहिर है भारत इसे ३१ वें संघीय प्रदेश की तरह अपना हिस्सा मानता है, अन्यथा हाल फिलहाल संविधान के सवाल पर वह नेपाल सीमा पर घोषित-अघोषित किस्म का कई महीनों लम्बी नाकाबंदी नहीं करवाता। जिस पर प्रतिरोध के नाम पर सिवाय वरिष्ठ बामपंथी पत्रकार और नेपाली राजनीति के एक प्रसिद्ध विश्लेषक आनंदस्वरुप वर्मा की पहल पर एक प्रेस नोट जारी होने के अलावा कुछ न हो सका।

नेपाल पर इतनी बड़ी ज्यादती के विरोध में आमतौर पर भारतीय बौद्धिक-साहित्यिक जगत चुप बैठा रहा, क्योंकि वह मानता है कि वे सभी लोग नेपाल के तो एक्सपर्ट हैं। जानने की जरूरत ही नहीं है, इसलिए तो प्रेमचंद, राहुल सांकृत्ययन, भीष्म साहनी, महाशेवता देवी, पाश, धूमिल आदि तो नेपाल में घर घर जाने जाते हैं, पर हिंदी बौद्धिक समाज में कितने लोग नेपाली साहित्य के मील के स्तंभों बीपी कोइराला, पारिजात, भूपी शेरचन, महाकवि लक्ष्मी प्रसाद देवकोटा, गोपालप्रसाद रिमाल या फिर श्रवण मुकारुंग से कितने लोग परिचित हैं? क्या इनका काम हिंदी मैं उपलब्ध है?

खरोचने भर की देर है, पता चलता है कि हिंदी में इन पर कुछ भी उपलब्ध नहीं, जिस पर कुछ चर्चा की जा सके।

एक ले दे करके कुलीन बौद्धिक बैठकों की शोभा के नाम पर नेपाल में ले देके मंजूश्री थापा ही पायी जाती हैं, जो वैश्विक बुद्धिजीवी कहलाने का मोह वरण न कर पाने के कारण जो भी साहित्य रचती हैं, वह सब अंग्रेजी में होता है। उपन्यास लिखने में माहिर हैं। मातृभाषा में लिखना वह कभीं गवारा नहीं करतीं। अलबत्ता नेपाली कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद भी करती हैं। पर यह अलग बात है कि उनके अनुवाद इतने सतही और तकनीकी होते हैं कि उन्हें पढ़ने का मन नहीं करता।

यह सवाल उनसे पूछा जाना चाहिए जब आपके काम से नेपाली आम जनसमुदाय का बड़ा हिस्सा परिचित नहीं हो सकता, तो आप किसके लिए लिखती हैं। जाहिर है सत्ताधारी वर्ग (भारत से ले नेपाली दोनों) में अपना तथाकथित विमर्ष खड़ा करने के लिए। आम जन के सुख-दुःख से तो उनका कोई लेना देना ही नहीं!

भारतीय अंग्रेजी दां भद्रलोक में मंजूश्री थापा अपने (कुलीन हिन्दू जाति वर्गीय हित के लिए) भले ही जानी जायं, पर नेपाली आम जनमानस की तरह हिंदी क्षेत्र की आम जनता तो उनसे आज तक अपरचित ही है।

और आगे भी अपरचित ही रहेगी।

इसलिए तो भारतीय राज्यसत्ता की वर्चस्ववादी राजनीति तमाम स्तरों पर यथा सांस्कृतिक, बौद्धिक और साहित्यिक रूप में समय समय पर प्रकट होती है। मसलन हिंदी साहित्य में एक लोकप्रिय वेब पोर्टल कविता कोष पाया जाता है। इस कविता कोष में विदेशी भाषाओं से हिंदी में सैकड़ों कवियों के अनुवाद मिल जायेंगे। पर नेपाली कविओं का जो भी कुछ मिलेगा, वह नेपाली में ही मिलेगा। (कुछेक कविओं की एकाध रचनाओं के तकनीकी हिंदी अनुवाद छोड़कर)। और तो और यह कोष गर्व से हिंदी साहित्य की सेवा करने की घोषणा करता है। इसलिए यह फरमाता है कि भारतीय संस्कृति नाम की चीज़ तो होती है। तथापि नेपाली संस्कृति नाम की चीज़ नहीं पायी जाती। क्योंकि यदि पायी जाती तो नेपाली साहित्य से हिंदी का संसार परिचित होता।

और नहीं तो कल तक प्रचंड माया के वशीभूत होकर लड़े गए जनता का नाम के जनयुद्ध से उपजे प्रगतिवादी साहित्य से भारतीय साहित्य परिचित होता?

यह है वर्चस्ववादी भारतीय संस्कृति; लैनचोर की तरह यह भी साम्राज्यवादी है?

असल में भारत में नेपाल को समझने की परंपरा नहीं विकसित हुई है। भारत में नेपाल पर बस दो ही रुझान पाए जाते हैं। या तो सुरक्षा अध्ययन और या तो नेपाली समाज में बदलाव की धारा के पक्ष में कुछेक लोगों के कलम चलाने के। असल सवाल नेपाली साहित्य को हिंदी क्षेत्र में लाने का है।

मैं यह सवाल इसलिए खड़ा कर पाता हूँ क्योंकि मेरी नेपाल पर पढ़ाई किसी विदेश के प्रसिद्ध संस्थान ऑक्सफ़ोर्ड इत्यादि में नहीं हुई और न तो प्रो. एस. डी. मुनि मार्का नेपाल एक्सपर्टों के अंतर्गत दिल्ली के सुरक्षा अध्ययन संस्थानों में।

पिछले साल जेएनयू के एक सेमिनार के क्रम में मेरे नेपाल पर एक असुविधाजनक सवाल पूछने पर मुनि साहेब ने प्रोग्राम ख़त्म हो जाने के बाद चाय के वक़्त फरमाया कि “क्या मैं नेपाली हूँ?

मेरे द्वारा अपने को भारतीय कहने पर उन्हें थोड़ा झटका सा लगा, बोले क्या मैं नेपाली पढ़ता और समझता हूँ?

मैंने बताया, हाँ मैं पढ़ लेता हूँ, थोड़ी मेहनत करने के बाद।
तो प्रतिउत्तर में बोले कि मैं उनसे आकर "ऑफिस में मिलूं”।

बहरहाल मैं आज तक नहीं गया। मुझे लगता है यदि मैं उनसे मिलने गया तो मैं वह नहीं बन सकूँगा, जहाँ से होकर भारत की जनता के दुख और नेपाली जनता के दुःख एक बड़ी पीड़ा में बदल जाते हैं। जहाँ के सम्मिलन से बदलाव के उपजे संघर्ष की बासंती बयार बहती है और मैं, स्वयंभू कवि पवन एक भारतीय समाजशास्त्री के बतौर उनके सपने के साथ खड़ा हुआ पाता हूँ।

मैंने नेपाली समाज का अध्ययन इसकी राजनीति के जुड़ते हुए नेपाल को एक समाजवादी समाज में तब्दील करने वाले एक कार्यकर्ता के बतौर किया है, न कि बस बौद्धिक जुगलबंदी और अकादमिक लच्छेदार भाषा सीख कर वैश्विक बौद्धिक जगत में अपना डंका बजवाने का।

और मैं यदि कविमन नहीं होता तो नेपाल की क्रान्ति के साथ नहीं जुड़ता।

नेपाली क्रान्ति के प्रतीक थबांग नहीं जाता। अब जब मुझे महसूस हुआ कि मैं भले ही हिंदी का एक स्वयंभू कवि कहलाऊं, पर नेपाली समाज को मैं जितना अपनी कविताओं में रचूंगा, उतना ही सुन्दर समाजशाश्त्रीय आख्यान रच सकूँगा। इसलिए तो मैं कहता हूँ;

रचूंगा मैं एक मन/ बन हो पवन मन/
रचूंगा मैं एक टन/ बन हो जन मन
रचूंगा मैं एक मन/ करके लड़ाई / बना नेपाल को अपनी कमाई/
सो उत्रण हो सकूँ / मैं एक ऋण से
बना मुझको पवन मन।

पवन पटेल