नेपाल भूंकप की चेतावनी सीमेंट के बहुमंजिली जंगल में कहीं नहीं, कोई नहीं सकुशल
प्रकृति और पर्यावरण को तहस नहस करने वाली मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में अब सफेदपोश मलाईदार लोग भी करेंगे खुदकशी
भूकंप के दूसरे दौर के झटके से पहले पद्दो ने बसंतीपुर से फोन करके सविताबाबू को बताया कि गांव के सारे लोग अपने अपने घर छोड़कर गांव के बीचोंबीच मैदान में जमा हो गये हैं। भूकंप के पहले दौर के झटके इतने भयंकर थे।
जाहिर है कि बसंतीपुर में अब झोपड़ियों में कोई नहीं रहता, जैसे पुलिनबाबू और उनके तमाम आंदोलनकारी साथी रहा करते थे।
जिस गांव में मैं जनमा, पला बढ़ा, वह इस देश में तेजी से बन रहे सीमेंट के जंगल में समाहित है।
गनीमत है कि मेरे भाई को बिना टीवी देखे, हमारे कुशल क्षेम की चिंता हो गयी और उसने अपनी भाभी से ही पूछ ही लिया कि कोलकाता और बंगाल में भूंकप के बाद सबकुछ सकुशल तो है।
मैंने पहाड़ में या नेपाल में किसी को फोन नहीं लगाया।
फोन से नहीं और मीडिया की खबरों से भी नहीं, अत्याधुनिक किसी माध्यम से हम पता नहीं लगा सकते कि हिमालय के अंतस्थल में कहां कहां कितने जख्म लगे हैं।
केदार जलप्रलय के वक्त भी मीडिया का सारा फोकस तीर्थयात्रा, धार्मिक पर्यटन और केदार घाटी पर था। बाकी हिमालय की किसी ने सुधि नहीं ली।
देश की नजरें केदार जलप्रलय के भूगोल पर सिर्फ इसलिए थी, कि वह त्रासदी देश के हर कोने से फंसे स्वजनों के माध्यम से सारे देश को स्पर्श कर रही थी।
वरना सालाना प्राकृतिक विपदाओं की रस्म अदायगी में हम इतने अभ्यस्त है कि कोई त्रासदी हमें उस तरह स्पर्श नहीं करती, जैसे घनघोर राजनीति में अपनी आंखों के सामने एक जिंदा किसान को खुदकशी करते देख, यूथ फार इक्वैलिटी के आरक्षण विरोधी आत्मदाह आंदोलन की आग में पके दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बिना विचलित हुए भाषण पूरा करते रहे और उपमुख्यमंत्री को उंगली के इशारे से यह तमाशा दिखाते रहे।
पहाड़ों की आपदा पहाड़ों की होती है।
पहाड़ों की गैर नस्ली सवर्ण असवर्ण आबादी की जिंदगी और मौत से मैदान के लोगों को कुछ लेना देना नहीं होता तब तक, जब तक पिघलते टूटते ग्लेशियरों से तबाही बह निकलकर मैदानों को लहूलुहान नहीं कर देती।
बचाव और राहत की गतिविधियों में कुछ दान ध्यान के फालोअप के बाद अगली त्रासदी का इंतजार शुरु हो जाता है।
केदार जलप्रलय के बाद हम फिर इस भूकंप का ही इंतजार करते रहे।
कौन सी नदियों में खून का जलजला आया। किस किस घाटी में कयामत बरपा और कहां कहां मनुष्यता का नमोनिशां नहीं रहा। किसी ने बाद में कभी खबर ही नहीं ली।
केदार घाटी में आपदा के बाद चीख चीखकर गुमशुदा लाशों के नरकंकाल यही कहते रहे।
तब भी नेपाल में भारी तबाही मचीथी और उसकी कोई खबर नहीं बनी थी। बाकी उत्तराखंड की भी खबरें हमेशा के लिए डूब में शामिल।
संजोग से पूर्वोत्तर भारत से लेकर पेशावर के मध्य और कोलकाता से लेकर गुजरात तक इस भूकंप के झटके महसूस किये गये।
यूपी और बिहार में कुछ लोगों के मरने की खबरें भी आयीं। तो सुर्खियों से हम मालूमात कर रहे हैं कि कितने बाल बाल बच गये हमलोग।
7.5 रेक्टर स्केल के भूकंप के दो मिनटलंबे झटके और मध्यहिमालय के काठमांडो और पोखरा जैसे दो बड़े नगरों के बीच जमीन की सतह से सिर्फ दस किमी नीचे एपीसेंटर से जितनी तबाही हो सकती थी, नेपाल के हालात अभी भी नामालूम होने, यहां तक कि नेपाल के सीमावर्ती उत्तराखंड, सिक्किम , बंगाल और बिहार के दूर दराज के इलाकों की पूरी खबर नहीं मालूम होने के बावजूद हमारी नगर सभ्यता के मुक्त बाजार के लिए राहत की बात है कि इसबार हम बाल बाल बच गये।
सोलह दिसंबार की रस्म अदायगी के जरिये मोमबत्ती जुलूस निकालकर स्त्री उत्पीड़ने के खिलाफ पुरुषवर्चस्वी प्रतिरोध त्योहार की तरह है हमारी संवेदनाएं।
निर्भया हत्याकांड की छतरी के नीचे संसदीय सहमति से जो नरमेध अभियान चला, उसकी हमें कानोंकान खबर नहीं हुई कि कैसे कैसे बेदखली के कानून बदल दिये गये निर्भया सुर्खियों की आड़ में।
दिल्ली के आप तमाशे के मध्य राजस्थान की एक किसान की आत्महत्या का किस्सा भी तब शुरु हुआ, जब संसद का बाजटसत्र चालू आहे और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ देश के कोने कोने से आवाजें आ रही थीं।
यकबयक वे आवाजें सिरे से गुम हैं और गजेंद्र आख्यान परत दर परत खोला जा रहा है और बिजनेस फ्रेंडली भारत की सरकार ने विदेशी निवेशकों को छह दशमलवचार बिलियन डालर का टैक्स माफ करने का फैसला कर लिया चालू बजट सत्र के मध्य कहीं चूं तक न हुआ।
जैसे अब तक भारत सरकार के बाजट में वित्तीयघाटा के हो हल्ले के बावजूद हर साल पांच सात लाख करोड़ की टैक्स छूट दी जाती रही है और हम राजस्व घाटा और अनुदानों की ही चर्चा करते रहे।
सारे के सारे सार्वजनिक उपक्रम और सरकारी ठप्पा लगे हम महकमे को निजी बनाया जा रहा है। यहां तक कि देश की लाइफलाइन रेलवे का निजीकरण संपूर्ण है।
सारे के सारे सरकारी बैंक होल्डिंग कपनियां बनायी जा रही हैं। इन त्रासदियों ने हमारे मनमानस को स्पर्श नहीं किया कि रेलवे के विस्तार के बावजूद सोलह लाख रेलवे कर्मचारियों की संख्या ग्यारह लाख तक कैसे सिमट गयी।
कारपोरेट टैक्स में पाच फीसद छूट तो सोशल सैक्टर की सारी योजनाओं में भारी कटौती और पर्यावरण कारणों से लंबित लाखों अरब डालर की कारपोरेट परियोजनाओं को हरी झंडी, अनुसूचितों के बजट अनुदान में कटौती नकद सब्सिडी के बहाने सब्सिडी को आधार से जोड़कर सिरे से खत्म करने का सिलसिला, लोकस्वास्थ्य का सफाया और शिक्षा बाजार में तब्दील, ये त्रासदियां हमें स्पर्श नहीं करतीं।
हम सीमेंट के बहुमंजिली इमारत महानगरों में ही नहीं बना रहे, उत्तराखंड, नेपाल, सिक्किम, बंगाल, हिमाचल, उत्तराखंड का चप्पा चप्पा अब सीमेंट का बहुमंजिली जंगल है। इसके बावजूद हम मानते हैं कि हम सकुशल हैं।
हम बाजार गये हुए थे। लौटते हुए रास्ते में जीवन बीमा निगम और बैंको के बड़े दफ्तरों के लोगों से लेकर सैलून में आधी दाढ़ी बना चुके लोगों के हुजूम की घबड़ाहट से हमने जाना कि भूंकप हो रहा है। दो मिनट के मौन की तरह दो मिनट का भूंकप था यह। खबरे चलायीं कि उसी के मध्य भूंकप के दूसरे दौर के झटके महसूसे गये।
देश भर में जहां जहां नेपाल का भूंकप स्पर्श कर सका, नजारा यही है।
लोग सुरक्षा के लिहाज से घरों से निकल आये। जाहिरा तौर पर लोगों को कूब मालूम हैं कि वे कैसे ताश के महलों में सहवास करते हैं, जो भूकंप के तेज झटकों से उत्तराखंड या नेपाल के पहाड़ों की तरह भरभराकर तहस नहस हो सकते हैं।
सचमुच भूंकप अगर सुनामी में तब्दील होकर समुद्र तटों को छू लें या भूकंप केदार जलत्रासदी की तरह हमारे अहाते में टूट गिरे तो भागने के दो चार पल और सारे रास्ते भी बंद हो जायेंगे।
आपको याद होगा कि अभी पिछले जाड़ों में हम देहरादून जाकर चिपको आंदोलन के गांधीवादी सर्वोदयी जीते जागते किंवदंती सुंदर लाल बहुगुणा से मिलकर आये जो सत्तर की दशक की तरह अब भी बाबुलंद आवाज में कहते हैं कि सारा महादेश रेगिस्तान में तब्दील हो रहा है। सारे ग्लेशियर सूख रहे हैं। हम अभूतपूर्व जलसंकट के मुहाने पर हैं।
सुंदर लाल बहुगुणा अभी भी कहते हैं कि हिमालय एक परमाणु बम है, जिसदिन फटेगा, न मनुष्यता बचेगी और न सभ्यता।
शुक्र मनाइये कि वह परमाणु बम फिर फटते फटते रह गया। परमाणु जखीरा को विकास का पैमाना बनाकर पीपीपी जंगल में देश को सलवा जुड़ुम बनाकर जल जंगल जमीन आजीविका रोजगार लूटने के तंत्र यंत्र मंत्र को अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद जहां एकमात्र पर्यावरण चेतना है, समझ लीजिये कि त्रासदियां कभी स्थगित नहीं होती।
गजेंद्र की आत्महत्या के बाद बिजनेस फ्रेंडली केसरिया कारपोरेट सरकार ने पीएफ का पांच फीसद शेयर बाजार में लगाने का फैसला किया है। यह विनिवेश के आईपीएल जैसा छोटा सा शुरुआती कदम है, बाकी पूरा पीएफ और पेंशनशेयर बाजार में स्वाहा होना है।
हम पिछले फरवरी और मार्च महीने में बीमार रहे हैं और स्वस्थ होकर नियमित दिनचर्या शुरु करते करते अप्रैल का माह बीतने लगा है। अगले साल सोलह मई को रिटायर होना है।
परसों रात मुंबई रोड दिल्ली रोज जाम होने के कारण हावड़ा कोलकाता होकर दमदम एअर पोर्ट तक के इलाके घूमकर लोकसभा चुनावों जैसा खर्च निकाय चुनावों का देखकर जब घर पहुंचा तो सविता बाबू का हाल डीसेंट्री से बेहाल था। ओआरएस रात के एक बजे से ले रही थी तो हालात नियंत्रण में थे। नारफ्लाक्स टीजेड देकर सारी रात बाथरूम में बिताकर, उल्टियां करके सविताबाबू की हालत जब डाक्टर दिखाने से सुधरने लगी तो मेडिकल बिल देखकर हालत खराब है।
अब समझिये कि हमें अधिकतम दो हजार रुपये पेंशन में मिलेगा हर महीने। इस पर तुर्रा यह कि रिटायर करने के बाद जो पीएफ के भरोसे हम सर छुपाने को बसेरा खोजने की सोच रहे हैं, कल ही पीएफ पर आयकर के नियमों से पता चला कि जो पीएफ 58 साल की आयु में रिटायर करने के बाद साठ साल की उम्र में मिलना है, उस पर हमें टैक्स भी देना पड़ सकता है 10.33 की दर से। दो साल इधर लाक तो उधर शुरुआत में पांच साल लाक रहेगा पीएफ। इस दौरान बाजार में पहुंचकर निवेशकों के मनमिजाज और वैश्विक इशारों से कितनी रकम हमारे लिए बचेगी, बीमा में जो करोड़ों गाहक इसी बीच शेयर बाजार का घाटा उठा चुके हैं वे इसका पता लगाये।
जैसे हम उत्तराखंड, नेपाल और देस दुनिया की किसी त्रासदी से खुद के बच निकलने की हालत में संवेदना निरपेक्ष हो जाते हैं, उसी तरह हम इस देश के कोने कोने में खेतों और खलिहानों में किसानों की थोक आत्महत्या से कतई परेशान नहीं हो रहे हैं दशकों से। खुदरा कारोबार से बेदखल लोगों को भी कोई सरदर्द नहीं है।
अब जो अपने को इस देश के हैवनाट के मुकाबले मलाईदार है व समझ रहे हैं, उनको थोक भाव से इस सीमेंट के जंगल में जलजला लाकर पटकर मारने की अर्थव्यवस्था बहाल हो गयी है। त्रासदियों से जूझकर भले ही बच निकले, धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की आग से भी भले ही गुजरात के नागरिकं की तरह सही सलामत बचे निकले लेकिन पर्यावरण और प्रकृति को तहस नहस करने वाली यह मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था हमें न पहाड़ों में और न ही मैदानों में, न गांवों और कस्बों में और न महानगरों में जीने की इजाजत देने वाली है।
पलाश विश्वास