नेपाल में भारतीय सेना की उपस्थिति का राजनैतिक समाजशास्त्र
नेपाल में भारतीय सेना की उपस्थिति का राजनैतिक समाजशास्त्र
एक विशेष देशकाल में आस्तित्व में आये राष्ट्र-समाज के बिबिध आयामों की जांच पड़ताल करते समय वर्चस्व की एक मुकम्मल समझ बहुत जरुरी है. व्यक्ति एक राष्ट्र में बसे समाज की सबसे बुनियादी इकाई होता है. बौद्धिक मठों में बैठे मठाधीशों की उलझाऊ जुगलबंदी से परे जाकर हिंदी जनकवि शमसेर के शब्दों में कहें तो “बात बोलेगी, हम नहीं/ भेद खोलेगी बात ही”; मसलन आम जन मानस में सत्ताधारी वर्ग के वर्चस्व को समाप्त करने के लिए वर्चस्व की उनकी जन पक्षधर अवधारणा कैसे आकार लेती है, कैसे वह इस जन पक्षधर अवधारणा को अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य के सपने के साथ जोड़ती है? और सबसे जरूरी बात, वह इसे कैसे अपने त्रासदी भरे जीवन से मुक्ति दिलाने के सपने देखने के एक बुनियादी औजार में तब्दील करती है?
नेपाल में भारतीय वर्चस्व एक सामाजिक तथ्य है. इस सामाजिक तथ्य को न तो नेपाल की राज्यसत्ता अस्वीकार करती है, न ही बौद्धिक जगत और न ही जनता. जहाँ एक तरफ शासकवर्गीय कुलीन तंत्र ‘कभी ख़ुशी कभी गम’ की लाइन भारत को “मित्र देश/ बड़े भाई (बिग ब्रदर)” का उलाहना देता है. वहीँ बौद्धिक जगत और आम जनता क्रमशः “ विस्तारवादी/ साम्राज्यवादी” एवं “मालिक” के रूप में. भारत के वर्चस्व के इस सामाजिक तथ्य के विविध पक्ष हैं, मसलन आर्थिक-राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक पक्ष; जो इसके इतिहास की सीमेंट से निर्मित हैं और समकालीन समाज में दृश्य व अदृश्य दोनों रूपों में उपस्थित हैं. मात्र अभी से नहीं (सन्दर्भ- नेपाल भूकंप त्रासदी में भारत की भूमिका) बल्कि 17 वीं शताब्दी से जब भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश राज के जड़ ज़माने के समय पृथ्वी नारायण शाह के नेत्रवत्व में दर्जनों जनजातीय समूहों और ऊँची हिन्दू जातियों द्वारा शासित पचासों पहाड़ी रियासतों को जीतकर नेपाली सामंतवाद का ‘वीर गोर्खाली साम्राज्य’ स्थापित किया. लेकिन 1816 की सुगौली संधि तक आते-आते यही ‘वीर गोर्खाली साम्राज्य’ ने ब्रिटिश भारतीय साम्राज्यवाद के अधीन एक संरक्षित राज्य में दम तोड़ दिया और 1930 से राणा प्रधानमंत्री जुद्धशमशेर के काल से इसे नेपाल अधिराज्य (किंगडम) कहा जाने लगा. इस अधिराज्य की गरीब किसान जनता के खून-पसीने को पहले शाह-राणा शासकों ने ब्रिटिश राज के लिए दो साम्राज्यवादी बिश्व युद्धों में झोंका. रण मैदान में दुश्मन को अपनी खुखरी का जौहर दिखाने वाले व कभी पीठ न दिखाने वाले वीर गुरखा का ख़िताब अर्जित किया. आम तौर पर पश्चिमी प्राच्यवादी (ओरियंटललिस्ट) चिंतन में नेपाली की यही पहचान है.
ग़ुलाम भारत के विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में तब्दील होने के बाद भी ‘वीर गुरखा’ का तमगा आप नेपाली के माथे से नहीं हटा. अपने उपनिवेशवादी अतीत के कारण भारतीय शासक वर्गीय चिंतन में यह तथ्य अभी तक हावी है. नहीं तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, एक संप्रभु देश के शासकों की सहमति के बिना अपनी राष्ट्रीय सीमाओं की रक्षा के लिए विदेशी भूमि में कैंप लगाकर विदेशी सैनिकों की भर्ती कैसे जारी रखे हुए है. यह सहमति सुगौली संधि व 1951 की भारत-नेपाल मैत्री संधि के आधार पर पहले राणा-शाह राजा देते थे और अब संविधान सभा से गणतंत्र नेपाल ‘संस्थागत’ करने के सबसे बड़े पैरोकार यानि कल के क्रांतिकारी और अब प्रचंड-बाबूराम के कैश माओवादी (अभी सत्तासीन नेपाली कांग्रेस व एमाले के कम्युनिस्ट कभी भी इस लक्ष्य से सहमत नहीं रहे). लेकिन 50 के दशक से लेकर अभी हाल तक पूंजीवादी विकास की अमरीकी अवधारणा यानि फॉरेन ऐड (वैदेशिक अनुदान) (जो तीसरी दुनिया में साम्यवाद की रोकथाम के लिए बनाई गयी थी) के बावजूद पूंजीवादी विकास अब तक एक पहेली बना हुआ है. भले ही आज फॉरेन ऐड से देश को पूंजीवादी रास्ते में विकसित करने वाले संस्करण (जिसमें अब चीन, भारत, रूस से लेकर सभी पूंजीवादी देश शामिल हैं) के जबरदस्त प्रसार से शासक वर्ग का तो पूंजीवादी बिकास हुआ है, मसलन कुलीनों की एक से एक नई इकाइयाँ इन 50 से 60 सालों में विकसित हुई हैं. पहले के परंपरागत शाह-सामंती जमींदार नौकरशाह कुलीन वर्ग में अब कैश माओवादी, समाजवाद के पैरोकार नवधनाड्य कुलीन और हजारों एनजीओ, जो अमरीकी/भारतीय लोकतंत्र के पहरेदार भी शामिल हो गए हैं. आज देश के जीडीपी में विदेशी अनुदान की हिस्सेदारी बढ़कर करीबन चालीस प्रतिशत है, फिर भी नेपाली समाज आज तक एक पिछड़ा हुआ कृषक समाज बना हुआ है, और आज इस कृषक समाज की करीबन आधी से ज्यादा आबादी (लगभग एक तिहाई भारत में और एक चौथाई खाड़ी मुल्कों में माइग्रेंट लेबर बनी हुई है.
नेपाल का एक राष्ट्र-राज्य (नेशन स्टेट) में उदय तो हुआ है, पर एक तरफ नेपाल की भू-सामरिक स्थिति में कम्युनिस्ट चीन के प्रभाव को कम करने के लिए पूंजीवादी भारत द्वारा किये हस्तक्षेप नेपाली कुलीन वर्ग को तो रास आये हैं और भारतीय वर्चस्व का जन जीवन के विविध पक्षों में विकास सुनिश्चित हुआ है, पर इसका सबसे बड़ा नुक्सान यह हुआ है कि नेपाल जो अभी तक एक “संसदीय राजशाही” द्वारा शासित था. बकौल प्रख्यात नेपाली इतिहासकार प्रत्युष ओन्टा, इस राज्यसत्ता के तीन आधार स्तम्भ थे, “राजतंत्र, हिन्दू धर्म, व नेपाली भाषा”, और इन्ही तीन स्तंभों से नेपाली राष्ट्रीयता आकर ग्रहण करती थी. राजतंत्र के पतन से जन्मी नकारा संविधान सभा के भी स्वतंत्र रूप से विकसित नहीं हो पाने से भारतीय वर्चस्व को अब अपना ठोस आकार ग्रहण करने में कोई रोक नहीं सकता.
बकौल मार्क्सवादी क्रान्तिकारी बिचारक ग्राम्शी, वर्चस्व का सबसे बड़ा आधार मिलिट्री पॉवर है. नेपाल में भूकंप से उत्पन्न हालात में जिस तरह से भारतीय सेना की तैनाती नेपाली राज्यसत्ता के अब के पहरुओं मसलन कांग्रेसी समाजवादी/ कम्युनिस्ट / कैश माओवादियों ने सुनिश्चित की ही है, वह नेपाली इतिहास में अभूतपूर्व है. भले ही ये सब विगत के 60 सालों से पूंजीवादी विकास की अवधारणा की नाकामी के खिलाफ चले जनसंघर्षों का नेतृत्व करते हुए देश में डेमोक्रेसी और स्वतंत्र व सार्वभौमिक नेपाल के नाम पर सत्ता में स्थापित हुए हैं. इस प्रकार तीन क्रांतियाँ तो जन्म लीं, और साथ ही साथ डेमोक्रेसी के 3 मॉडल भी, यानि 2007 साल की क्रांति-पचास का प्रजातंत्र, 2046 की क्रांति-नव्वे का बहुदलीय लोकतंत्र, माओवादी जनक्रांति व अप्रैल क्रांति वाया अभी का अभागा गणतंत्र. लेकिन इसके बाद भी आम जनमानस का एक स्वतंत्र और सार्वभौमिक राष्ट्र राज्य का सपना कभी संस्थागत नहीं हो सका. हजारों लोगों की कुर्बानी के बाद भी उनका एक बेहतर जीवन का एक मानवीय सपना भारतीय वर्चस्व (तमाम संधि/ कई बिंदु समझौतों) के बूटों तले कुचले जाने में अभिशप्त रहा.
ऐसा नहीं कि नेपाली भूमि में भारतीय सेना की उपस्थित की यह पहली बड़ी ‘दुर्घटना’ है. भारतीय महाद्वीप में ब्रिटिश राज के पतन के बाद आई नेहरु की छद्म वामपंथी सरकार ने सबसे पहले नेपाल में भारतीय सेना को भेजा था. पर वह क्षण था, जब सुदूर पश्चिम नेपाल के मैदानों व पहाड़ों में तेलंगाना की तर्ज पर क्रान्तिकारी किसान नेता भीमदत्त पन्त के गुरिल्ला आन्दोलन का दमन करने के लिए और वह भी राजशाही के अधीन पहली कोइराला-राणा प्रजातान्त्रिक सरकार के बुलावे पर. भीमदत्त पन्त पहले नेपाली कांग्रेस में ही थे पर 1951 के दिल्ली समझौते का खुलेआम विरोध कर 2007 साल की क्रांति को तथाकथित करार देते हुए नेपाली कांग्रेस को नेहरु राज का पिट्ठू बताया और नेपाल राष्ट्र की सार्वभौमिकता व स्वतंत्रता से गद्दारी करने का आरोप लगाया. भारतीय सेना ने भीमदत्त पन्त सहित उनके सैकड़ों साथिओं का सर काट कर कंचनपुर जिले के मुख्यालय में बांस के डंडों में लटकाया था <देखें पवन पटेल (2014), नेपाली फिल्म भीमदत्त के बहाने, फिलहाल, अगस्त अंक>. इसके बाद कंचनपुर के नेपाली-भारतीय इलाके में भारतीय सेना ने वहां अपनी एक पोस्ट स्थापित की थी. तिब्बत का दलाई लामा एपिसोड और भारत-चीन युद्ध दूसरी और तीसरी बड़ी परिघटना थी, जिसको आधार बना नेहरु सरकार ने महेंद्र राजशाही के पहले प्रजातंत्र को बर्खास्त करने की एवज में भारतीय सेना के नेपाल में अपने ठिकाने खड़े करने में सामरिक सफलता हासिल की.
1971 में सिक्किम अधिराज्य को भारतीय राज्यसत्ता ने अपनी सेना द्वारा हस्तगत किया जाना चौथा बिंदु था. इसके बाद नेपाल में भारत को नजर रखना और इस बहाने अपने सुरक्षा क्षेत्र में बनाये रखने में आसानी हुई. लेकिन सिक्किम परिघटना ने एक दूसरी अहम् बात स्थापित की, और वह थी कि 1950 के दशक में भारत के स्वतंत्र होने के तत्काल बाद से ही नेहरू के चमके नेपाल को भारत में विलय कर लेने की उत्सुकता, लेकिन जिस पर भारतीय राज सत्ता में एक राय नहीं बन पाने (लोहियावादी समाजवादियों और संसदीय वामपंथी पार्टी के विरोध के कारण) के कारण यह योजना आगे नहीं बढ़ी. लेकिन इससे नेपाली समाज में (यहाँ तक कि कुलीन वर्ग में भी) भारत के विस्तारवादी/ साम्राज्यवादी होने का ठप्पा लगा. लेकिन मेरी समझ में भूकंप परिघटना के बाद जिस तेज रफ़्तार में मोदी राज द्वारा भौतिक प्रतिक्रिया दिखाई गयी, वह अब अपने असली मंसूबे को प्रगट कर रहा है. और वह यह है, जैसा कि सुना गया है कि इस बार भारतीय सेना अपनी एक बड़ी टुकड़ी राजधानी काठमांडू के अंतरराष्ट्रीय एअरपोर्ट से लेकर कई निकट स्थानों में पुख्ता करेगी, जिसको लेकर देश व्यापी रूप में बहस शुरू हो गयी.
नेपाली बौद्धिक जगत में अभी चल रही बहस के केंद्र भले ही इंडियन इलेक्ट्रानिक मीडिया की असंवेदनशील रिपोर्टिंग और भारतीय सैन्य हेलीकाप्टरों पर बैठ पर्यटकीय संवेदनशीलता बताई जा रही हो. लेकिन इतने सतही बिश्लेषण से बात अधूरी ही रहेगी, जब तक हम चीज़ों को उनके पूरे परिवेश में नहीं देखेंगे. भारतीय टीवी चैनल ही क्यूँ इसका निशाना हुआ, जबकि नेपाल में भारतीय टीवी चैनल में प्रसारित खबरें और कौन बनेगा करोड़पति के बच्चन संस्करण बहुत लोकप्रिय रहे हैं. सबसे ताजा हिंदी फिल्म का पहला प्रीमियम जिस दिन दिल्ली में होता है, उसी ही दिन काठमांडू के मल्टीप्लेक्स सिनेमा हालों में भी. यहाँ तक कि कल तक विपक्ष में रही और अब सत्ता सुख भोग रही कल की शुद्ध क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट दलों ने भी तो मार्क्स, लेनिन, माओ, चे का क-ख-ग भी तो भारतीय कम्युनिस्ट नेताओं की मार्फ़त हिंदी में रटा (क्यूंकि समझते तो ब्राह्मणवादी मार्क्सवादी-लेनिनवादी व कैश माओवादी में तब्दील नहीं होते), न कि जर्मन, रूसी, मंदारिन, व स्पेनिश में. लेकिन भारतीय वर्चस्व को पुख्ता बनाने वाले क्रन्तिकारी चिंतकों और दलों पर जनता का गुस्सा समय-समय पर लगातार मुखरित होता रहा है. और क्रांतियों के ठेकेदार उसके शिकार भी. नहीं तो दूसरी संविधान सभा में कैश माओवादी तीसरे स्थान में न खिसकते, यहाँ तक कि दो माओवादी प्रधानमंत्रियों प्रचंड से लेकर बाबुराम भट्टाराई अपने काठमांडू की सीटों से बुरी तरह पराजित भी. अभी बहुत दिन नहीं हुए, जब कैश माओवादी नेपाल में 50 से ज्यादा स्थानों में भारतीय सेना के कब्जे वाली जमीन वापस लेने के लिए अप्रैल 2010 में ‘राष्ट्रीयता बचाने’ का आन्दोलन चला रहे थे. लेकिन 16 दिन तक लगातार लाखों जनता के काठमांडू सहित दर्जनों शहरों में उपस्थित होने के बाद यह आन्दोलन भंग कर दिया गया. यह आन्दोलन कम्युनिस्ट माधव नेपाल की कठपुतली सरकार को तत्काल तो नहीं गिरा पाया, पर लैनचोर (काठमांडू का भारतीय दूतावास) में हुई सौदेबाजी से कैश माओवादी के एक नए बिचौलिए यांत्रिक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी बाबुराम भट्टराई को मुस्तांग जीप दौड़ाने का परमिट प्राप्त करने में सफल हुआ. लेकिन जल्दी ही प्रचंड को अपनी अब भंग हो चुकी माओवादी सेना के लड़ाकू पदम् कुंवर के हाथों भरी सभा में थप्पड़ खाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.
भूकंप परिघटना के बाद भारतीय वर्चस्व की भौतिक उपस्थिति ने नेपाली जनमानस को अब बौद्धिक सांस्कृतिक आयामों से अपनी स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिए वह क्षण दे दिया है, जो स्वर गोबैक इंडियन मीडिया कैंपेन से निकला.
क्रान्तिकारी चिन्तक ग्राम्शी के शब्दों में कहें तो यही तो war of position है, जो बौद्धिक क्षेत्र व सिविल सोसाइटी से निकलते हुए अब नेपाल के उत्तरी तराई से लेकर पहाड़ में मोदी राज के पुतले फूंकने में प्रगट हो रहा है. और दो दिन पहले अभी की सत्ताधारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के भूतपूर्व चेयरमैन व कई दफे कठ पुतली प्रधान मंत्री रह चुके माकुने (प्यार से जनता कहती है, वैसे पूरा नाम माधव कुमार नेपाल) को काठमांडू में पहली बार एक राहत शिविर का दौरा करते समय तीन युवाओं ने जम कर पिटाई की. कैश माओवादी प्रचंड व बाबुराम के चेले चपाटी पहले ही सावधान हो अपने स्विस खातों से कुछ करोड़ बचाव और राहत कार्य में लगे हुए हैं.
पवन पटेल
लेखक पवन पटेल, नेपाली समाज पर काम कर रहे भारतीय राजनैतिक समाजशास्त्री हैं; जेएनयू, नईदिल्ली से समाजशास्त्र में पीएचडी हैं. वे गणतंत्र नेपाल के समर्थन में बने इंडो-नेपाल पीपुल्स सॉलिडेरिटी फोरम के पूर्व महासचिव भी रहे हैं. वे आजकल नेपाली माओवाद के प्रमुख केंद्र रहे ‘थबांग गाँव के सामाजिक-राजनैतिक इतिहास’ पर आधारित एक किताब पर काम कर रहे हैं,


