नेशनल हाईवे 17 : लोकपाल ही नहीं सड़कपाल भी दो
नेशनल हाईवे 17 : लोकपाल ही नहीं सड़कपाल भी दो
जुगनू शारदेय
कोई सड़क दिन ब दिन हरियाली को उजाड़ते हुए देखने में हरी भरी भी हो सकती है ? नहीं न ! सड़क तो फोर लेन के बीच की झाड़ीनुमा हरियाली के नाम पर हरित पट्टी होती है । सड़क तो विकासात्मक राजनीति के बुनियादी ढांचा के भ्रष्टाचार की भागीदार होती है । हादसों का हिस्सेदार होती है । इधर का माल उधर करती है । इसी चक्कर में तो फणीश्वर नाथ रेणु के हिरामन को पहली कसम खानी पड़ी । तीसरी कसम तक तो हिरामन मारे गए गुलफाम हो चुके थे । गलत लिखा था गाना शैलेंद्र ने कि सजन रे झूठ में बोलो , खुदा के पास जाना है, होना चाहिए था सड़क के पास या सड़क के साथ जाना है। वैसे भी हमारे देश में सड़कें खुदा के पास पहुंचाने का काम भी करती हैं ।
सड़क के सीने पर रौंदते हुए ही सारा का सारा सड़कीय कारोबार होता है । सड़क के साथ सड़क के किनारे भी सड़क बनने के पहले कारोबार जम चुका होता है । सड़क को रौंदने वाला अब कोई भी और कुछ भी हो सकता है । एक रौंदने वाले के बारे में श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी में लिखा है " शहर का किनारा । उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता है । वहीं एक ट्रक खड़ा था । उसे देखते ही यकीन हो जाता था , इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है । "
यह एक अलग बहस का मुद्दा है कि सड़क के साथ बलात्कार सिर्फ ट्रक करते हैं या सड़क बनाने वाले इंजीनीयर - ठेकेदार करते हैं । शायद कभी सिविल सोसायटी की नज़र सड़क पर पड़े कि लोकपाल सड़कपाल भी बन सकें । अभी तो देश की एक सड़क जिसके किनारे बनी कोंकण रेल की पटरियों पर ट्रक वाहक माल गाड़ियां भी चलती हैं । शायद भारतीय रेल को कभी यह समझ में आ जाए कि उनका ही एक अंग न केवल सड़क को बलात्कार से बचा रहा है , बल्कि डीजल की खपत कम कर न जाने कितना कुछ बचा रहा है ।
नेशनल हाइवे 17 भी ऐसी ही एक सड़क है । हालांकि अब इसका नाम बदल कर नेशनल हाइवे 66 कर दिया गया है । जब कोंकण रेल नहीं बनी और उस पर रेलगाड़ियों की चलने की शुरूआत नहीं हुई थी तो इस सड़क पर चलने वाली बसों के सहारे कोच्चि से मध्य रेल के एक रेल स्टेशन रोहा तक बीसवीं सदी के आखिरी दशक में चला था । अभी चला हूं कोढ़िकोड से मंगलुरु उर्फ मंगलापुरी तक । कोढ़िकोड का आसान नाम कालीकट भी है । सड़क के पहले मलयालम - तमिल के उस शब्द पर
जानकारी जिसे हिंदी अनुवादकों ने ष़ि बना दिया है । सीधे अनुवाद करने वालों ने अंग्रेजी के ज़ेड एच आइ को झी बना दिया है । दरअसल तमिल - मलयालम के बहुत सारे शब्दों का हिंदी - अंग्रेजी में महान भ्रष्टीकरण हुआ है । इसी कारण आज के एक मशहूर नाम कणिमोढ़ी को कनीमोड़ी - कनीमोई - कनीमोली लिखा बोला जाता है । बेचारा क्रिकेट का भगवान तेंडुलकर न जाने कब से तेंदुलकर है ही । रोड भी रोड़ा होता जा रहा है । अब कौन किसे - कैसे समझाए कि हिंदी को छोड़ कर किसी भारतीय भाषा में खड़ा - पढ़ा नहीं है । रोड को रोड़ा की तर्ज पर राष्ट्रीय राजमार्ग 17 को रोड़ा सड़क भी कह सकते हैं ।
हम जिस सड़क की बात कर रहे हैं उसका जन्म सड़क के साथ प्यार करने के लिए हुआ है । यह सड़क पश्चिम घाट की पहचान भी है । इस सड़क पर प्यार भी बहुत होता है और हादसा भी बहुत होता है । चोरी - चमारी - तस्करी भी बहुत होती है । हो भी क्यों नहीं । यह सड़क भारतीय राष्ट्र महाराष्ट्र के पणवेल से शुरू हो कर भारत में बसे भगवान के अपने मुलुक केरल के कोच्चि के पास
एडापल्ली में जा कर खत्म होती । बीच में यह गोवा, कर्नाटक और संघ शासित क्षेत्र पुडुचेरी के माही से गुजरती है। गोवा के साथ यह सड़क अरब सागर के साथ साथ भी चलती है। बस देखते रहिए इस सड़क को जिसके साथ साथ जंगल, पहाड़ - पहाड़ियां , नदी - नाले , झरना और सागर की लहरें चलती हों। इनके साथ हमसफर जैसे होते हैं नारियल - सुपाड़ी , केला और धान के खेत । सड़क
समतल भी नहीं है, अकसर हिचकोले भी खाती रहती है। यहां सड़कीय घालमेल की भी पहचान हो जाती है । आखिर सड़क में गड्ढे न हों तो सड़क पर चलने का मजा नहीं है। यह सड़क किसी जमाने की बिहार की सड़कों की तरह कार तोड़ - कमर तोड़ भी नहीं है। इस सड़क पर वह भी है जिसे श्रीलाल शुक्ल ने भारतीय देहात का महासगर कहा था। इस सड़क पर भारतीय नगरीकरण का महासागर भी फैला हुआ है - खास कर केरल में।
थोड़ी सी जानकारी कालिकट के बारे में। असल में उत्तर केरल का यह क्षेत्र मलबार के नाम से भी जाना जाता है त्रावणकोर - कोच्चि में मलबार का विलय कर केरल बनाया गया। विलय के पहले यह अंग्रेजों के मद्रास प्रेसीडेंसी का ही हिस्सा था। केरल में कालिकट यह मसालों के कारोबार का भी शहर है।
सूती कापड़ा कॅलिको भी इसी शहर की देन है। यह केरल के फिल्म उद्योग का भी केंद्र है। सका तट वैसा आकर्षक नहीं है जैसा तिरूअनंतपुरम के पास कोवलम का है। फिर भी सागर तीरे तो सागर तीरे ही होता है। वास्को द गामा ने अपने भारत की खोज के तहत कालिकट में ही उतरा था। वह आज के कालिकट से लगभग 20 किलोमीटर दूर पाक्कड तट पर 20 मई 1498 को उतरा था। आप अगर
पाक्कड जाना चाहें तो सड़क पर पाक्कड जाने की पहचान मिलती रहेगी। वाहन अगर बस वाला हो तो फिर तिरुवेंगरुर उतरिए - यहां से पाक्कड का तट ४ किलोमीटर दूर है। इसके तट पर केरल की बरसात या उमसीय धूप से बचने के लिए बड़े बड़े चबूतरे हैं जिन पर छतरियां बनी हुई हैं। बालू वाला तट का भी एक छोटा सा हिस्सा है। सागर यहां उछाल मार रहा होता है। सुनामी का भी शिकार हुआ था।
पाक्कड के बाद अनेक छोटे मोटे कस्बों के बाद आता है माही - केंद्र शासित क्षेत्र पुडुचेरी का एक हिस्सा। माही में शराब सस्ती है। बस स्टैंड के पास पुराना चर्च है। और है शराब की दुकानों की भरमार। हो भी क्यों नहीं। देश में सबसे ज्यादा शराब भी लोग केरल में पीते हैं और शराब सबसे
ज्यादा महंगी भी केरल में ही है।
तो चलते चलते शराब की कीमतों का एक सड़क छाप विश्लेषण। वोदका के एक ब्रांड की कीमत बिहार में 140 रूपए तो मध्य प्रदेश में 180 रुपए है। उसी की कीमत केरल में 325 रुपए और कर्नाटक में 193 रुपए है। महाराष्ट्र में वह 250 रुपए है जबकि मही में 100 रुपए। समझिए माही की शराब की दुकानें केरलवासियों के लिए ही बनी हैं। यहां सड़क क्या करती है - इधर का माल उधर।
बस आप इस सड़क पर यानी नेशनल हाईवे 17 पर चल रहे हैं। माही के बाद तलचेरी और तब कण्णूर । कण्णूर केरल का शिक्षा केंद्र भी है। इसका पय्यनूर तट बालू वाला है। मैंने पहली बार तट पर किशोरों को फुटबाल खेलते यहीं देखा। कण्णूर के बाद कासरगोड। सड़क से थोड़ा हटेंगे तो बेकल किला तक पहुंच जाएंगे। रास्ते में अगर आप हिंदी प्रेमी हैं तो भारत हिंदी कॉलेज और एस
एन हिंदी कॉलेज का साइन बोर्ड भी पाएंगे। केरल में दसवीं तक हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य है।
बस चलते रहिए इस सड़क पर। कासरगोड से मंगलापुरी उर्फ मंगलुरू और वहां से उड्डुपी - गोकर्ण - मडगांव ( गोवा ) होते हुए महाराष्ट्र। अद्भूत है यह नेशनल हाइवे १७, श्री लाल शुक्ल के शब्दों में से थोड़ा अलग हट कर इस सड़क पर देहात का महासागर नहीं इंडिया का अनगढ़ सा बनता हुआ शहर सागर दिखता है।


