'हिंसा असहिष्णुता और अविवेक' की सरकार

उनके पास अपने न राष्ट्रीय नायक हैं न राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी का कोई इतिहास। इसलिए वे उस पुरानी विरासत को ध्वस्त करने पर आमादा हैं।

नेहरू बनाम सुभाष का विवाद नेहरू और सुभाष का नहीं बल्कि आरएसएस का है जो कभी सुभाष या नेहरू के साथ नहीं रहा।

'पहली बार केंद्र में ऐसे लोगों को बहुमत मिला है जिनका गोत्र कांग्रेसी नहीं है' और ' पहली बार चुनाव ऐसे नेताओं के नेतृत्व में हुआ है जो आजादी के बाद पैदा हुए हैं'। ये दो वाक्य मोदी ने लोकसभा चुनावों के परिणामों के ठीक बाद उसी दिन गुजरात की दो सभाओं में अलग-अलग कहे थे। यह स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की विरासत से विचलन का उद्घोष था। नई सरकार ने घरेलू और बाहरी बर्ताव में यह साबित भी किया है और शायद इसी लिए महामहिम राष्ट्रपति ने अपने सम्बोधन में हलके से ही सही 'हिंसा असहिष्णुता और अविवेक' को लताड़ लगाई है। मोदी मंडली ने अभी तक के कार्यकाल में इन्हीं तीन नकारात्मकताओं को पुष्ट किया है।

हाल ही में नेहरू बनाम सुभाष के विवाद को हवा देकर स्वतंत्रता आंदोलन की इस विरासत को ठेस पहुँचाने का प्रयास किया है, जिसके चलते वैचारिक विरोधियों का भी चरित्र हनन और व्यक्तिगत हमले न करने की परंपरा थी। वस्तुतः मोदी के 'गैर कांग्रेसी गोत्र' का अर्थ स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत से हीन लोगों की सरकार से था। उनके पास अपने न राष्ट्रीय नायक हैं न राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी का कोई इतिहास। इसलिए वे उस पुरानी विरासत को ध्वस्त करने पर आमादा हैं।

नेहरू के फर्जी पत्र को रचकर मोदी सरकार ने जिस विवाद को जन्म दिया है, उसने ऐसी बहस पैदा की है जिसका नुकसान खुद सुभाष बाबू की छवि को होगा। हिटलर और तोजो जैसे तानाशाहों के साथ खड़े सुभाष बाबू का मूल्याँकन करते हुए हम 26 जनवरी 1930 से पढ़े जाने वाले 'पूर्ण स्वराज के संकल्प पत्र' को पास कराने में नेहरू-सुभाष की सहयोगी भूमिका को कैसे विस्मृत कर सकते हैं।

यदि मोदी सरकार हिटलर समर्थक सुभाष को उभारेगी तो स्वातंत्र्य योद्धा सुभाष नेपथ्य में जायेगा और मेरे जैसे लोग नेहरू के समर्थन में शहीद-ए-आजम भगत सिंह को उद्धृत क्यों न करेंगे जिन्होंने अपनी फांसी से महज तीन साल पहले 1928 में कीर्ति में लिखे अपने आलेख में सुभाष बाबू को 'मात्र भाबुक बंगाली' और नेहरू को 'क्रन्तिकारी' 'अन्तर्राष्ट्रीयतावादी' कहकर सुभाष बाबू के 'संकीर्ण और सैन्य राष्ट्रवाद' के खतरे से आगाह किया था।

इस अमर क्रन्तिकारी ने लिखा था कि पंजाब के नौजवानों को जिस बौद्धिक खुराक की जरुरत है वह नेहरू से मिल सकती है, सुभाष से नहीं।

बेशक सुभाष अनगिनत भारतीयों के राष्ट्रवाद की प्रेरणा हैं लेकिन ये भी सच है कि नेहरू के बरअक्स वे दूसरे पायदान पर हैं। लेकिन नेहरू बनाम सुभाष का विवाद नेहरू और सुभाष का नहीं बल्कि आरएसएस का है जो कभी सुभाष या नेहरू के साथ नहीं रहा।

बहरहाल इस वक्त की सरकार में बैठे लोगों का 'अविवेक असहिष्णुता और हिंसा' से स्पष्ट नाता देश के लिए घातक है, देश की शानदार विरासत के लिए भी और भविष्य के लिए देश के संकल्पों के लिए भी। यह अविवेक न केवल ऐतिहासिक विषयों में दिखा है बल्कि गत वर्ष की विज्ञान कांग्रेस हो या म्यांमार में आतंकवादी कार्यवाही की लंपट वाहवाही हो या नेपाल-पाकिस्तान और चीन के साथ सम्बन्ध हों, अर्थव्यवस्था की बदहाली हो, मंहगाई हो या फिर सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ोत्तरी अथवा दलितों अल्पसंख्यकों का दमन हो, सब जगह परिलक्षित हुआ है।

कांग्रेस को चाहिए कि द्वितीय विश्व युद्ध में सुभाष चंद्र बोस की भूमिका पर जवाहर लाल नेहरू के दृष्टिकोण का दृढ़ता से पक्ष ले। दक्षिणपंथियों के दबाब में इस विषय में उसकी हिचकिचाहट नुकसानदेह होगी।

निःसंदेह जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस दोनों धर्मनिरपेक्ष समाजवादी भारत के लिए भारत को स्वतंत्र कराने के प्रयासों में अग्रणी भूमिका में थे और समचेता व सहयोगी भी थे। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध में नेताजी का स्टैंड ऐसा विषय हो गया जिसे जवाहर लाल नेहरू सहित कांग्रेस के प्रगतिशील पक्ष और कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिवाद का सामना करना पड़ा। हालाँकि बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक वामपक्ष में रहा और नेताजी के अनेक सहयोगियों ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली, जो इस बात को सरसरी में भी दर्शाता है कि नेताजी और उनके सहयोगी सदैव देश की धर्मनिरपेक्ष समाजवादी विचारधारा के साथ रहे। किन्तु नेताजी और नेहरू को आमने सामने रखकर नेहरू के बहाने धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवाद को निशाना बनाने वाले दक्षिणपंथी ऐसा कोई अवसर नहीं छोड़ते, जिसे वे नेहरू का कद घटाने के लिए प्रयोग कर सकें। सार्वजनिक की गयी फाइलें इसी कोशिश का एक भाग है।

मधुवन दत्त चतुर्वेदी