पं. नेहरू को जीवन भर सताते रहे उस निरीह जानवर के आंसू
पं. नेहरू को जीवन भर सताते रहे उस निरीह जानवर के आंसू
पुण्यतिथि 27 मई पर विशेष
नेहरू को सांप्रदायिक विद्वेष से घृणा थी
-प्रो. हीरेन मुखर्जी
जवाहर लाल नेहरू को सांप्रदायिक विद्वेष से घृणा थी। उनकी यह मान्यता थी कि राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी यदि उसके साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय आम आदमी को प्राप्त नहीं होगा। वे क्रांति के सिद्धांत में विश्वास करते थे परन्तु उनकी मान्यता थी कि क्रांतिकारी परिवर्तन क्षणभर में नहीं हो सकते हैं, उनके लिए एक लंबी तैयारी और संघर्ष की आवश्यकता है। वे इस सिद्धांत पर भी विश्वास करते थे कि शोषक को अपने आप अपने नजरिए में परिवर्तन लाना चाहिए।
नेहरूजी एक अत्यधिक सम्पन्न परिवार में पैदा हुए थे। वे चाहते तो लाखों रुपए कमा सकते थे। उनके पिता मोतीलाल नेहरू एक जाने माने वकील थे और इस बात की पूरी संभावना थी कि जवाहरलाल नेहरू भी अपने पिता के उत्तराधिकारी बनेंगे।
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प्रारंभ में उनकी राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। वे आईसीएस भी नहीं बनाना चाहते थे क्योंकि उनकी मान्यता थी कि आईसीएस न तो इंडियन हैं, न सिविल है और न ही सर्विस है। जब वे कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे तो उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के कुलपति ऑनरेरी डिग्री प्रदान कर रहे थे। वे सभी को खड़े होकर डिग्री सौंप रहे थे। परन्तु जब दो भारतीय आगा खान और महाराजा बीकानेर डिग्री लेने आए तो उन्होंने उन्हें बैठे-बैठे ही डिग्री सौंपी। नेहरूजी को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने इसे भारत के दो सम्मानीय नागरिकों का अपमान माना।
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वे कुछ समय के बाद भारत आ गए। भारत आने के कुछ दिन बाद उनका एक छोटे कद के, दुबले-पतले व्यक्ति से संपर्क हुआ। ये व्यक्ति गांधीजी थे। उस समय तक जवाहरलाल नेहरू भारतीय जीवन व्यवस्था को स्वीकार नहीं कर पाए थे। उन्हें लगता था कि वे अपने ही देश में पराए हैं। धीरे-धीरे वे भारत की समस्याओं से रूबरू हुए। उन्होंने आज़ादी के तीन वर्ष पहले लिखा था कि परिस्थितियां कुछ भी रही हों, हमने अपने देश की संस्कृति और स्वाभिमान को बचाकर रखा है।
कुछ समय बाद तो वे भारत के आज़ादी के आंदोलन का अभिन्न हिस्सा बन गए। आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही उन्होंने यह तय कर लिया था कि आज़ाद भारत डेमोक्रेटिक, सेकुलर और सोशलिस्ट होगा। उन्होंने भारत की जनता से तादात्म स्थापित कर लिया था। वे कम्युनिस्ट विचारधारा से भी प्रभावित हुए और साम्यवाद के प्रति उनका रवैया सहानुभूतिपूर्ण था। परन्तु वे कम्युनिस्टों की रणनीति के समर्थक नहीं थे। इस सबके बावजूद एक बड़े लेखक जे कोटमेन ने लिखा है कि 'शायद जवाहर लाल नेहरू की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा थी लेनिन या स्टालिन बनना।’
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जवाहर लाल नेहरू को सांप्रदायिक विद्वेष से घृणा थी। उनकी यह मान्यता थी कि राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी यदि उसके साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय आम आदमी को प्राप्त नहीं होगा। वे क्रांति के सिद्धांत में विश्वास करते थे परन्तु उनकी मान्यता थी कि क्रांतिकारी परिवर्तन क्षणभर में नहीं हो सकते हैं, उनके लिए एक लंबी तैयारी और संघर्ष की आवश्यकता है। वे इस सिद्धांत पर भी विश्वास करते थे कि शोषक को अपने आप अपने नजरिए में परिवर्तन लाना चाहिए।
गांधीजी, नेहरूजी के इस तरह के विचारों से परिचित थे। गांधीजी ने 1928 में नेहरूजी को एक पत्र लिखा। उस पत्र में उन्होंने कहा कि मैं जानता हूं कि तुम्हारी यह राय है कि आज़ादी का आंदोलन बिना धनी लोगों के समर्थन से और अकेले शिक्षित वर्ग के समर्थन से नहीं लड़ा जा सकता। मैं तुम्हारे विचार से सहमत हूं परन्तु अभी वह समय नहीं आया है और अंत तक गांधीजी के लिए वह समय नहीं आया।
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शनै:-शनै: नेहरूजी भी इस सिद्धांत में विश्वास करने लगे कि साध्य के साथ साधनों की पवित्रता भी आवश्यक है। साध्य और साधन दोनों हिंसा से मुक्त होने चाहिए। नेहरू जी ने सन् 1933 में लिखी गई अपनी पुस्तक 'वाईदर इंडिया’ में समाजवाद को भारत के लिए प्राथमिकता माना था। 1936 में कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा था कि 'समाजवाद में ही विश्व की समस्याओं का हल है। तमाम कमियों के बावजूद सोवियत संघ में निर्मित व्यवस्था ही दुनिया के लिए प्रेरणा का स्रोत है।’
कांग्रेस के उसी अधिवेशन को संबोधित करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि 'भारत की जनता की पीड़ा को देखकर मैं महसूस करता हूं कि उसे दूर करना ही आज़ाद भारत की सबसे प्रमुख प्राथमिकता होगी। बाकी चीजें बाद में आएंगी।
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1942 के 'करो या मरो’ आंदोलन के दौरान नेहरूजी ने लिखा कि 'एक शोषित और दुखों से भरपूर जीवन बिताने से अच्छा है मौत का आलिंगन। मौत के बाद नया जीवन मिलता है, व्यक्तियों को भी और राष्ट्रों को भी। जो मरना नहीं जानता है उसे जीने का हक नहीं है।’
परन्तु आज़ादी के बाद नेहरूजी अपने इन विचारों को अमलीजामा नहीं पहना सके। आज़ादी के बाद भी उनकी समाजवाद में आस्था थी परन्तु वे जानते थे कि भारतीय समाज की जो विभिन्नताएं हैं उनके चलते शायद समाजवादी समाज का निर्माण अभी भी एक सपना ही रहेगा। क्रांति के रास्ते पर चलना शायद अभी संभव नहीं है क्योंकि इन बात की पूरी संभावना है कि यदि क्रांति के रास्ते पर चले तो देश में अराजकता फैल सकती है।
नेहरूजी ने अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखा है कि 'वे एक दिन शिकार करने गए थे परन्तु शिकार करने के बाद उन्होंने लिखा कि वह छोटा जानवर मेरे पैरों पर आ गिरा था और उसकी मृत्यु भी हो गई थी। परन्तु मैंने देखा कि उसकी आंखों में आंसू हैं। वे आंसू मुझे जीवनभर सताते रहे।’
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शायद नेहरूजी की यह संवेदनशीलता भी उनके इस विचार के लिए उत्तरदायी थी कि खूनी क्रांति से परिवर्तन उचित नहीं है। वे जनता से हमेशा संवाद करते थे और यही कारण है कि आम लोगों के प्रति उनके मन में असीम सहानुभूति थी।
शायद उनके वैचारिक परिवर्तन का कारण कुछ हद तक उपर गांधीजी के विचारों का प्रभाव भी था वे सुभाषचन्द्र बोस से भी सहमत थे। वे सुभाषचन्द्र बोस के पूर्ण आज़ादी के नारे में भी भरोसा करते थे। इसके साथ-साथ वे साम्राज्यवाद के भी विरूद्ध थे। वे फासिज्म के भी विरोधी थे। उनकी मान्यता थी कि प्रजातांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष रास्ते से ही अफ्रीका और एशिया के देशों की जनता की आकांक्षाएं पूरी की जा सकती हैंं। एशिया और अफ्रीका के उनके सपने ने इन दोनों महाद्वीपों के निवासियों को बहुत प्रभावित किया था और शायद इसी कारण उनकी मृत्यु के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में बोलते हुए अफ्रीका और एशिया के देशों के अनेक प्रतिनिधियों ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि वे इन दोनों महाद्वीपों के निर्माता भी थे।
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गांधीजी की मृत्यु के बाद उनके ही प्रयासों से हमारे देश ने दुनिया के नक्शे पर एक प्रभावशाली स्थान बनाया था। उनके जीवनकाल में भी उन पर अनेक वैचारिक हमले किए गए परन्तु इस तरह के हमलों से वे अप्रभावित रहे। उन्हें उस समय भी बुरा नहीं लगा जब कुछ लोगों ने कहा कि नेहरूजी ने इतिहास में अपना स्थान खो दिया है।
वे उस समय सिर्फ मुस्कुराए जब सांसद में एक सदस्य ने उन्हें एक छोटा-मोटा कवि बताया, जिसने कविता का रास्ता छोडक़र राजनीति में प्रवेश किया है।
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इसमें कोई संदेह नहीं कि वे इतिहास में और बड़ा स्थान अपने लिए बना सकते थे। देश की जनता ने उनमें अद्भुत आस्था प्रकट की थी। वे चाहते तो अपने अद्भुत रूप से प्रभावशाली व्यक्ति से देश में और भी बुनियादी परिवर्तन कर सकते थे।
उन्होंने अपनी किताब 'भारत एक खोज’ में लिखा है कि 'शीघ्रता करनी चाहिए क्योंकि जो समय हमारे पास है वह यथेष्ट नहीं है। क्योंकि यदि हमें विश्व में होने वाले परिवर्तनों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना है तो हमें द्रुतगति से विकास के रास्ते पर चलना होगा। शायद इसलिए ही उनकी टेबल पर राबर्ट फ्रास्ट की यह पंक्तियां लिखी रहती थीं कि 'हमें मीलों चलना है और इसलिए सोने के लिए हमारे पास समय कहां है।’
सारी कमियों के बावजूद नेहरूजी ने जो कुछ भी हमारे देश को दिया है वह अद्भुत है।
शायद वे नहीं होते तो हमारे देश में वे परिवर्तन भी नहीं होते जो हो चुके हैं। वे आज भी और आने वाली सदियों में भी भारतीय आत्मा और भारतीय आकांक्षाओं के सबसे बड़े प्रतीक बने रहेंगे।
(लेखक ख्यातिप्राप्त कम्युनिस्ट नेता थे)
(साभार: सैकूलर डेमोक्रेसी)


